सम्पादकीय

आशा ही सकारात्मक भावशक्ति


हृदयनारायण दीक्षित   

कोरोनाके कारण वैश्विक बेचेनी है। वैज्ञानिक कम समयमें टीका खोजनेमें सफल हुए हैं। भारत सरकारें उपलब्ध साधनोंका सदुपयोग कर रही हैं, लेकिन सवा अरबकी जनसंख्याके लिए तत्काल व्यवस्था करना संभव नहीं है।

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीने कई देशोंको भारतकी मददके लिए सहमत किया है। गैर-सरकारी संघटन भी सहायार्थ जुटे हैं। चिकित्सा विज्ञानी एवं सरकारें संघर्षरत हैं। प्राणोंपर संकट है। इसके बावजूद समाजका बड़ा हिस्सा भौतिक दूरीका पालन नहीं करता। अनेक अवसरोंपर भीड़ जुट रही है। लोग मास्क भी नहीं लगाते। सब जानते हैं कि कोरोनासे जीवनको खतरा है। बावजूद इसके लाखों लोग अनुशासन नहीं मानते। संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन अपनी और अपनोंकी प्राण रक्षाके लिए भी ज्यादातर लोग अनुशासन नहीं मानते। समाचार माध्यमोंमें कोरोना सम्बंधी सूचनाओंका विस्फोट है। शवोंकी अंत्येष्टिकी कठिनाई सचित्र दिखाई जा रही है। आक्सीजनकी समस्या और अव्यवस्थाके चित्र निराशा पैदा कर रहे हैं। बेशक इलेक्ट्रानिक मीडिया परिश्रमपूर्वक कोरोना सम्बंधी समाचार जुटा रहा है। पत्रकार मित्र जान हथेलीपर रखकर जीवंत सूचनाएं दे रहे हैं। उनका काम प्रशंसनीय है। लेकिन ऐसी सूचनाओंका कृष्ण पक्ष भी है। यह निराशा बढ़ा रही हैं। कोरोना संक्रमित व्यक्ति अस्पताल जाते हुए ही जीवनसे निराश हो जाता है। ऐसे अवसरोंपर आशा संवद्र्धनकी जरूरत ज्यादा है। आशाकी मनोदशामें प्रत्येक व्यक्तिके चित्तमें सकारात्मक भावशक्तिका विकास होता है। वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि आशा और निराशामें मनुष्यके स्नायु तंत्रमें रासायनिक परिवर्तन होते हैं। आशावादी बीमारी धैर्य नहीं खोते।

उत्तर वैदिक कालकी प्रतिष्ठित दार्शनिक रचना है छान्दोग्योपनिषद्। इसकी एक कथामें नारदसे सनद कुमारने ज्ञानके तत्व पूछे थे। सनद कुमारने नारदसे पूछा अबतक तुम जो जानते हो वह बताओ। नारदने अपनी जानकारी का वर्णन किया, मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेदका ज्ञान प्राप्त है। इतिहास, पुराण रूप पांचवां वेद भी मैंने पढ़ा है। व्याकरण, गणित, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, ब्रह्मï विद्या, नीतिशास्त्र, भूत विद्या, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्व विद्या और नृत्य, संगीत आदिका भी मैं जानकार हूं, सनत कुमारने कहा कि तुम जो जानते हो वह केवल नाम है और सभी नामोंको वाणी धारण करती है। वाणीकी उपासनासे वाणीके प्रभाव क्षेत्रमें आनेवाले विश्वका ज्ञान हो जाता है, लेकिन मन वाणीसे श्रेष्ठ है। मनकी तुलनामें संकल्प बड़ा है। संकल्प वाणीको प्रेरित करता है। संकल्प उपास्य है। फिर बताया चित्त संकल्पसे श्रेष्ठ है। पुरुष चेतनावान है। उस चेतनासे प्रेरित होकर संकल्प करता है, मनन करता है। लेकिन चित्तसे ध्यान ज्यादा श्रेष्ठ है और ध्यानसे विज्ञान। फिर बताया विज्ञानसे बल श्रेष्ठ है और बलसे अन्न। अन्नसे जल श्रेष्ठ है, जलकी अपेक्षा तेज श्रेष्ठ है। तेजकी तुलनामें आकाश प्रधान है, आकाशकी तुलनामें स्मरण, लेकिन इन सबकी तुलनामें आशा उत्कृष्ट है। आशासे दीप्त हुआ स्मरण कर्म करता है। पुत्र सहित तमाम धन-धान्यकी कामना करता है। नारद तुम आशाकी उपासना करो। इसके बाद भी अनेक तत्वोंकी चर्चा है। आशासे भरपूर चित्त विषम परिस्थितियोंमें भी धीरज नहीं खोता है। आजकी परिस्थितियोंमें धैर्यका महत्व है। आशावान व्यक्ति अस्तित्वपर विश्वास रखता है। अस्तित्वपर विश्वासका नाम श्रृद्धा है। परिस्थितियां बदला करती हैं। सुख-दुख बारी-बारी आते-जाते रहते हैं, लेकिन धैर्यपूर्ण मनुष्य निराश नहीं होता। विपरीत परिस्थितिमें निराश होनेसे बड़ी क्षति होती है। महामारीके वातावरणमें निराशा बढ़ानेवाली सूचनाओंके अम्बार हैं। पूरा वातावरण निराशाजनक हो गया है। महामारीसे संघर्षमें अनेक अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं। सरकारें अपने पूरे संसाधनोंके साथ जुटी हुई हैं। अस्पतालोंमें भर्ती अनेक पीडि़त स्वस्थ होकर घर भी लौट रहे हैं। उनमें ६०-७० वर्ष या इसके ऊपरकी आयुके बीमार भी शामिल हैं। स्वस्थ हुए मरीजोंमें आशाका महत्व ध्यान देने योग्य है। आशाके कारण उनका मनोबल क्षीण नहीं हुआ है। वैज्ञानिक दृष्टिकोणकी बातें बहुत होती हैं। चिकित्सा विज्ञानी भी अपनी जान हथेलीपर रखकर काम कर रहे हैं। यह भी आशाका ही प्रत्यक्ष चेहरा है। राष्ट्रीय कर्तव्यपालनमें जूझ रहे चिकित्सक धन्यवादके पात्र हैं।

विज्ञानकी सीमा है। सकारात्मक विचार आशा और श्रद्धा विज्ञानकी पकड़में नहीं आते। भाव शक्ति, बुद्धि शक्तिसे कम नहीं है। भारतको आशा और अस्तित्वके प्रति आस्थाको भी साथ रखना होगा। विज्ञानने मनुष्य जीवनमें आशा, प्रेम और सौंदर्यपर ध्यान नहीं दिया। वह सत्यकी खोजको ही लक्ष्य मानता है। मानव जीवनमें आनन्दकी स्वतंत्र भूमिका है। पंडित जवाहर लाल नेहरूने भी ‘दि डिस्कवरी आफ इण्डियाÓ में लिखा है, विज्ञानका प्रत्यक्ष-ज्ञानके क्षेत्रसे ताल्लुक है, लेकिन जो इससे हममें प्रवृत्ति पैदा होती है, उसका ताल्लुक विज्ञानके अलावा दूसरे और क्षेत्रोंसे भी है। आदमीका आखिरी मकसद ज्ञान प्राप्त करना, सचाईको समझना, अच्छाई और खूबसूरतीको पहचानना कहा जाता है। प्रत्यक्ष छानबीनका वैज्ञानिक तरीका इन सबपर लागू नहीं होता और ऐसा लगता है कि जो कुछ जिन्दगीमें जरूरी है, वह इसकी पहुंचसे बाहर है, जैसे कला और कविताके प्रति संवेदनशीलता, वह भावना जो हममें सुंदरतासे पैदा होती है या अच्छाईके बारेमें पैदा होनेवाली अनुभूति। यहां विज्ञानकी सीमा है। वह आगे लिखते हैं, हो सकता है कि वनस्पति-विज्ञानी, प्राणि-विज्ञानीके आकर्षण और सौंदर्यको कभी नहीं महसूस कर पायें। इसी तरह समाज-विज्ञानीमें भी मानवताके बारेमें प्रेमका बिल्कुल ही अभाव हो। लेकिन जब हम ऐसे क्षेत्र ें पहुंच जायें, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे परे हो और पर्वतके शिखरोंपर पहुंच जायें, जहां दर्शनका राज्य है और जिन्हें देखकर हमारे मनमें तरह-तरहकी कल्पनाएं होने लगें या जिनके पीछेका विशाल भू-भाग देख हम ठिठकेसे रह जायें, वह दृष्टिकोण और भाव भी बहुत जरूरी है। भाव शक्तिपर ध्यान देना जरूरी है। पंडित जीने लिखा है, विज्ञान पश्चिमकी दुनियापर हावी हो गया है और वहां सभी इसके गुन गाते हैं, लेकिन वहां लोग फिर भी वैज्ञानिक स्वभावके असली स्वरूपको नहीं अपना सके हैं। उनको अपनी जिन्दगीमें इसकी भावनाको अपनाना है। हिंदुस्तानमें जाहिर है कि काफी लंबी मंजिल तय की जानी है, लेकिन हमारे रास्तेमें बड़ी मुश्किलें कुछ ही आयेंगी। इसकी वजह यह है कि बादके जमानेको छोड़कर हमारे गुजरे जमानेमें हिंदुस्तानकी विचारधाराका वैज्ञानिक स्वभाव और दृष्टिकोणके और साथ ही अंतरराष्ट्रीयवादके साथ मेल रहा है। इसकी बुनियाद सचाईकी निडर खोज, इनसानकी मजबूती, यहांतक कि हर जानदार चीजकी अलौकिकतापर, हर व्यक्ति और प्राणीके मुक्त और सहयोग आश्रित विकासपर रही है। विज्ञानके साथ भावशक्ति, आशा और धैर्यका भी महत्व है और अदृश्य अलौकिकतापर भी।