सम्पादकीय

ईश्वरका अस्तित्व


श्रीराम शर्मा

ईश्वरका प्यार केवल उसीको मिलेगा, जो दीपककी तरह जलकर प्रकाश उत्पन्न करनेको तैयार है, प्रभुकी ज्योतिका अवतरण उसीपर होगा। ईश्वरका अस्तित्व विवादका नहीं, अनुभवका विषय है। जो उस अस्तित्वका जितना अधिक अनुभव करेगा, उतना ही प्रकाशपूर्ण उसका जीवन होता जायगा। मनुष्य शरीर परमात्माकी अनुपम और अद्वितीय-अद्भुत कलाकृति है। इस कलाकृतिकी संरचनाका अध्ययन किया जाय तो सहज ही यह विदित हो जायगा कि मनुष्य शरीर कितना जटिल, सुव्यवस्थित और सुनियोजित कार्यप्रणालीपर निर्भर है। इतनी जटिल संरचना और उससे अधिक कार्यप्रणाली बिना किसी बाहरी नियंत्रणकर्ता नियामकके अपने आप सुचारू रूपसे संपन्न होती रहती है। मनुष्यका स्वस्थ शरीर-आरोग्य, आहार-विहारपर निर्भर करता है। स्वास्थ्यके नियमोंका पालन करनेवाला निरोग रहता है और असंयम बरतनेवाले, अखाद्य खानेवाले बीमार पड़ते हैं। बीमारियोंके कारण रोग-कीटाणुओंके रूपमें, ऋतु प्रभाव या धातुओं-तत्वोंके हेर-फेरमें ढूंढ़े जाते हैं और उसी आधारपर चिकित्सा की जाती है। परन्तु कई बार इन मान्यताओंको झुठलाते हुए ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं कि अप्रत्याशित रूपसे शरीरके किन्हीं अवयवोंका या प्रवृत्तियोंका यकायक घटना-बढऩा शुरू हो जाता है। कारण ढूंढ़ते हैं तो समझमें नहीं आता, अंधेरेमें ढेला फेंकनेकी तरह कुछ उपचार किया जाता है तो उसका कुछ परिणाम नहीं निकलता। ऐसी परिस्थितियां प्राय: हारमोन ग्रंथियोंमें गड़बड़ी आ जानेके कारण उत्पन्न होती हैं। शरीरके सामान्य अवयवोंकी संरचना और उसकी कार्यपद्धतिका ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है, इसलिए रोगोंके कारण और निवारणके संबंधमें काफी प्रगति भी हुई है। परन्तु यह अंत:स्रावी ग्रंथियोंकी आश्चर्यचकित करनेवाली हरकतें जबसे सामने आयी हैं, तबसे चिकित्साविज्ञानी स्तब्ध रह गये हैं, प्रत्यक्षत: शरीरगत क्रियाकलापमें इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वह किसी महत्वपूर्ण आवश्यकताकी पूर्ति नहीं करतीं, चुपचाप एक कोनेमें पड़ी रहती हैं और वहींसे तनिक-सा स्राव बहा देती हैं।