सम्पादकीय

एक ही है रामराज्य और सुराज


हृदयनारायण दीक्षित

मनुष्य आनन्द अभीप्सु है। आनन्दके तमाम उपकरण प्रकृतिमें हैं। वह प्राकृतिक हैं। अनेक उपकरण समाजमें भी हैं और वह सांस्कृतिक हैं। समाज अपने आनन्दके लिए अनेक संस्थाएं बनाते हैं।

राजव्यवस्था समाजकी सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। एक विशेष भूखण्डमें रहनेवाले लोगोंकी एक जीवनशैली होती है। वह लोग अपनी संस्कृति गढ़ते हैं। ऐसी भू-सांस्कृतिक प्रीतिवाले लोगों द्वारा गढ़ी गयी अपनी राजव्यवस्था होती है। यह स्वदेशी होती है। कभी-कभी विदेशी हमलोंमें पराजयके कारण राजव्यवस्था विदेशी भी होती है। तब राष्ट्रको अपनी संस्कृतिके अनुसार जीनेमें कठिनाई होती है। अपनी राजव्यवस्था आवश्यक है। इसे स्वराज कहते हैं। लोकमंगलसे भरीपूरी राजव्यवस्था सुराज है लेकिन भारतमें १९४७ तक ब्रिटिशराज था। इसके पहले इस्लाम प्रेरित विदेशीराज था। यहां स्वराज नहीं था। सुराज असंभव था। सुराजके लिए स्वराज जरूरी है।

मनुष्य अतिप्राचीन कालसे ही सुखी देश/भूक्षेत्रमें रहना चाहता है। वेदोंमें स्वराज और सुराजकी खूबसूरत अभिलाषाएं हैं। ऋग्वेद प्राचीनतम इतिहास साक्ष्य है। यहां स्वराज्य, राजधर्म, राजकर्म, सहित अनेक सूक्त हैं। ऋग्वेदमें सोमसे प्रार्थना है ‘जहां सारी कामनाएं पूरी होती हों, यत्र कामा निकामाश्र्च, जहां सुखदायी तृप्तिदायक अन्न हो, आप हमें वहां अमरत्व (स्थायित्व) दें। जहां आनंद, मोद, मुद एवं प्रमोद हैं – यत्रानन्दाश्च, मोदाश्च, मुद: प्रमोद आसते। कामनाएं जहां तृप्त होती हैं आप वहां अमरत्व दें।’ यह सुराजकी झांकी है लेकिन सुराजके लिए स्वराज चाहिए। आदर्श राज्य व्यवस्था चाहिए। स्वराज और सुराजके भाव वैदिक पूर्वज भी जानते थे कि श्रेष्ठ राज्य स्वराज व्यवस्थाके अभावमें राष्ट्र सुखी नहीं होते। आगे कहते हैं ‘जहां विवस्वानका पुत्र राजा है। जहां विशाल नदियां रहती हैं, जहां आनन्दका द्वार है आप हमें वहां स्थायित्व दें।’ यहां सुराजकी कामना है। राष्ट्रीय समृद्धिके लिए स्वराज और सुराज जरूरी है। यजुर्वेदके एक सुन्दर मंत्रमें प्रार्थना है ‘हमारे राष्ट्रमें राजन्य शूरवीर हों। विद्वान सम्पूर्णताके ज्ञाता हों। गायें दुधारू हों, भारवाहक बैल स्वस्थ हों, तेज गतिवाले घोड़े हों, परिवार संरक्षक माताएं हों, तेजस्वी युवा हो। मेघ मनोनुकूल वर्षा करें। राष्ट्रमें समृद्धि हो।’ यहां एक आनन्दमगन स्वराज एवं सुराजकी आकांक्षा है।

राज्य संस्थाका क्रमिक विकास हुआ है। अथर्ववेदमें राज्यके जन्म और विकासका सुन्दर वर्णन है। बताते हैं ‘पहले राजा-राज्यरहित दशा थी। इसका विकास हुआ। फिर गार्हृपत्य संस्था (परिवार-कुटुम्ब) आयी। इसके बाद ‘आह्वïानीय’ दशा आयी। परिवारोंका आह्वान हुआ, पंचायते हुई। फिर ‘दक्षिणाग्नि दशा’ आयी। दक्षिणाग्नि दशाका अर्थ है- कुशल लोगोंका नेतृत्व मिलना। फिर सभा बनी। इसीके विकाससे समिति बनी।’ वैदिककालीन समिति राजाका चयन करती थी। समिति उसे पदासीन करती थी, पदसे हटाती भी थी। ऋग्वेदके अनुसार राजा समितिमें जाता है। राजा समितिके प्रति उत्तरदायी है। वैदिक कालका ‘राजा’ परम स्वतंत्र नहीं है। वरुण शासक हैं लेकिन ‘धृतवृत’ हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेदमें वरुण भी धृतवृत हैं। स्वराजमें ही अपनी संस्कृतिके अनुसार जीनेका अवसर मिलता है। यहां धृतवृतका अर्थ है- आचार संहिताके प्रति वचनबद्ध/प्रतिज्ञाबद्ध। स्वराज और सुराज अपरिहार्य है। अथर्ववेदके एक मंत्रमें कहते हैं, जहां गौएं मारी जाती हैं, वहां कमल नहीं खिलते। गाय अबध्य हैं। लेकिन स्वराज और सुराजके अभावमें गौवें मारी जाती हैं।

वैदिक कालमें राजाकी नियुक्ति होती थी। ऋग्वेदमें कहते हैं, ‘आपको अधिपति नियुक्त किया गया है। आप स्थिर रहें। प्रजाएं आपकी अभिलाषा करें। आपके माध्यमसे राष्ट्रका यश कम न हो- मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत्ï।’ सुराजके लिए राजा और राज्यका स्थायित्व प्रजाकी शुभकामना है। कहते हैं ‘जैसे आकाश, पृथ्वी, पर्वत और विश्व अविचल है उसी प्रकार राजा भी अविचल रहे।’ फिर राजनीतिक स्थिरिताके लिए भी सभी देवोंकी स्तुतियां हैं ‘वरुण स्थायित्व दें – धु्रवं ते राजा वरूणो। बृहस्पति स्थायित्व दें- धु्रवं देवो बृहस्पति। इन्द्र और अग्नि भी इस राष्ट्रको स्थिर रूपमें धारण करें- राष्ट्र धारयतां धु्रवं।’ स्थिरिताकी प्रार्थना वरुण, बृहस्पति और इन्द्र अग्निसे लेकिन सुराजकी प्रार्थना ‘सविता, सोमसे है।’

वाल्मीकि ‘रामायण’ में दशरथ द्वारा श्रीरामको राजपद सौंपनेके लिए दशरथने मंत्रिपरिषद बुलायी गयी थी। उन्होंने स्वयंके असमर्थ होनेका उल्लेख किया। मंत्रिगणोंने श्रीरामका नाम सुझाया। दशरथने कहा कि आप मुझे खुश करनेके लिए ही तो ऐसा प्रस्ताव नहीं लाये है? मंत्रिगणोंने श्रीरामके गुणोंका उल्लेख किया और उन्हें राज्यपदके सर्वथा योग्य बताया। ‘रामायण’ के इस प्रसंगमें राजाके गुणोंकी सूची है। रामायणमें ‘राजाविहीन/राज्य व्यवस्थाहीन राष्ट्रदशाका भी उल्लेख है। राज्याभिषेकके पहले ही श्रीरामका वनगमन हो गया। दशरथका निधन हो गया। मंत्रिपरिषद बैठी, राजाके नये नामपर विचार हुआ। इसी विचार-विमर्शके दौरान राज्यव्यवस्थाविहीन भूखण्डकी दशाका वर्णन हुआ। स्वराज्य जरूरी है। स्वराज्यके अभावमें सुराज नहीं चलता। यजुर्वेदके एक सुंदर मंत्रमें राजाके कार्य हैं, ‘हम कृषिके लिए, लोकमंगल और धनसमृद्धिके लिए तथा सम्पूर्ण पोषणके लिए आपको स्वीकार करते हैं।’ यहां सुराजके लक्ष्य हैं। राज्याभिषेकके मंत्रोंमें कहते हैं, ‘आपको चंद्रमाकी आभासे, अग्निके तेजसे, सूर्यकी ऊर्जासे एवं इन्द्रके बलसे अभिषिक्त करते हैं। आप शौर्यवानोंके क्षत्रपति हों और प्रजाकी रक्षा करें।’ एक अन्य स्थलपर कहते हैं ‘तेजस्विताके लिए, सारस्वत ज्ञानके लिए, बलके लिए, श्री, समृद्धि और यशके लिए हम प्रार्थनाएं करते हैं।’ यहां सुराजके सभी तत्व हैं।  महाभारतकालमें सभाकी शक्ति घट गयी है। सभा जुंए जैसे मनोरंजनका स्थल है। वरिष्ठ सभासद भी सत्य नहीं बोलते। इसीलिए महासंग्राम हुआ था। वास्तविक इतिहासबोधके अभावमें हमने वैदिककालीन सभा, समितियोंसे प्रेरणा नहीं ली। महाभारत कालकी कमजोर सभाके दुष्परिणामोंसे कोई सबक नहीं सीखा। महाभारत (शान्ति पर्व) के अनुसार अन्य अनेक कर्तव्योंके साथ राजाको व्यवसायरहित निराश्रित लोगोंके भरण-पोषणका भी प्रबंध करना चाहिए। शुक्रनीतिमें राजा-प्रजाका सेवक बताया गया है। यहां राजा राजकोषका मालिक नहीं न्यासी/संरक्षक है। कहते हैं ‘राजकोशको प्रजा, राष्ट्ररक्षा आदिपर खर्च करना चाहिए, निजी परिवारपर नहीं।’ सुराजके सभी तत्व। अंग्रेजीराजमें स्वराज्य नहीं था। इसीलिए भारतवासी लड़े। तिलकने घोषणा की थी कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वराज्यके लिए ही दीर्घकालिकतक स्वाधीनता संग्राम हुआ। हम पराधीन थे, स्वाधीन होनेके लिए संघर्षरत थे। पराधीनता दुखदाई होती है। स्वाधीनताका अमृत महोत्सव प्रधान मंत्री प्रेरणासे अभी मनाया गया है। वह स्वराजमें सुराज चाहते हैं। गांधीजीने स्वराजपर जोर दिया है। सुराज स्वराजमें ही संभव है। रामराज्य और सुराज एक है।