सम्पादकीय

शास्त्रोंसे ऊपर प्रज्ञा


डा. बी.दास

‘शास्त्र क्या वस्तु है’ ‘शास्त्र’ शब्द से जो ग्रंथ आजकल समझे जाते हैं, वे सब, किसी न किसी मानवकी बुद्धिसे ही उत्पन्न हुए हैं। गीताके द्वितीय अध्यायमें बुद्धिकी महिमाका गीत है। जितनी बार बुद्धि शब्दका प्रयोग गीतामें हुआ है, उतनी बार केवल आत्मा और अहं (मा, मे, मम) का हुआ है और किसी शब्दका नहीं। महामान्य गायत्री मंत्रमें ‘धियो यो न: प्रचोदयात्ï’, बुद्धिको प्रेरणा करे, परमात्मा सद्बुद्धि दे-ऐसी प्रार्थना की है, शास्त्र दे- नहीं, सद्बुद्धि मिलेगी तो हम स्वयं शास्त्र बना लेंगे। यह भी वैदिक मंत्रकी प्रार्थना है- ‘स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु’, ‘शास्त्रेण संयुनक्तु’ नहीं इत्यादि। ‘शास्त्रवादी’ कहते हैं कि ‘शास्त्रीय’ विरोधोंका परिहार, ‘शास्त्रीय’ सिद्धांतका निर्णय करना चाहिए। ठीक है परन्तु कौन करे। आपकी और हमारी और सज्जन मित्रोंकी बुद्धि ही न। जो दशा श्रुतिकी चिरकालीनपर परासे ‘सुनी’ हुई बातकी, वेद पदार्थकी है, उससे भी अधिक बिगड़ी दशा ‘स्मृतियों’ की (वृद्धों द्वारा यादकी हुई बातोंकी) और अन्य धर्मशास्त्रोंकी है। यहांतक कि वेदव्यासजीने यक्ष-युधिष्ठिर संवादमें युधिष्ठिरके मुखसे कहलाया है-

तर्कोऽप्रतिष्ठ:, श्रुतयो विभिन्ना:, नैको ऋषि: (स्मृतिकत्र्ता) यस्य वच: प्रमाणं,

धर्मस्य तत्व निहितं गुहायां, ‘महाजनो’ येन गत: स पंथा:।

तर्ककी कहीं समाप्ति नहीं, श्रुतियां विविध, परस्पर भिन्न, एक भी स्मृतिकार ऋषि नहीं, जिसकी ही बात मानी जाय, धर्मका तत्व तो मनुष्यकी हृदय गुहामें (उसकी बुद्धिके प्रेरक आत्माके, रूपमें) छिपा हुआ है। जिस ‘महा-जन’ समूह, जनता, समाजमें रहना हो, वह जन-साधारण ‘लोकमत’, भूयसीयन्यायसे, ‘मेजारिटी ओपिनियन’, कसरत रायसे, जिस रास्तेपर चले, वही रास्ता ठीक है धर्म है। महाजन शब्दका अर्थ ‘महापुरुष’, बड़ा आदमी नहीं है, जैसा भ्रांतिसे, बहुधा समझा जाता है, बल्कि ‘जनता’, ‘जन-समूह’, ‘पब्लिक’, जो ही अर्थ आजतक गुजराती भाषामें, इस शब्दका चला आता है। (‘मानव धर्म-सार’ में इसके समर्थक, कई पुराने संस्कृत ग्रंथोंसे बहुतेरे उदाहरण दिये गये हैं।) ‘नैको ऋषिर्यस्य मनं न भिन्नं’ ऐसा भी पाठ है, अर्थ वही निकलता है। जितने ऋषि उतने मत, प्रत्येक ऋषिका मत दूसरोंसे भिन्न होता है, विवाद-ग्रस्त विषयोंमें। जब ऋषियोंकी प्रामाणिकता, इस प्रकार, संशयित हो गयी, तब ‘महाजन’ शब्दका अर्थ ‘महा-पुरुष’ करके, उसको प्रामाणिक निर्णायक कहना कैसे उचित हो सकता है क्या ऋषि-महर्षि भी ‘महा-पुरुष’ नहीं तो और कौन।