सम्पादकीय

निरलिप्त भाव


 बाबा हरदेव

वास्तवमें महानता उसीकी है जो सभी कर्मोंको निभाता हुआ निरलिप्त अवस्थामें रहता है। जैसे कमलका फूल जलमें रहता है। जलमें रहकर भी जलसे विलग रहता है, उसकी निरलिप्त अवस्था रहती है। कोई समझानेके लिए कहे कि कमलके फूलको यदि निरलिप्त रहना है तो उसे उठाकर किसी स्थानपर रख दीजिए। तब वह खुद पानीसे निरलिप्त हो जायगा। यदि पानी ही नहीं है तो निरलिप्त किससे होगा। उसके निरलिप्त रहनेकी परख तो तभी होगी, जब वह पानीमें रहकर निरलिप्त रहकर दिखायगा। वह पानीमें मौजूद रहे तभी तो मालूम पड़े कि वह कितना निरलेप रह सकता है। इसी तरह भक्तों, महापुरषोंकी भावना रही है। भक्त इसी समाजमें रहे और अपने फर्जोंको निरलेप रहकर निभाते रहे हैं। वह चाहे किसी युगमें संसारमें आये, उन्होंने कर्मोंसे मुख नहीं मोड़ा। वे अपने परिवारमें रहे और हर प्रकारके कर्तव्योंका पालना किया। यह सब कुछ करते हुए भी उनकी निरलेप अवस्था बनी रही। एक राजा और रानी थे। दोनोंको ध्यान आया कि मायाको छोड़कर कहीं जायं। रास्तेमें राजाकी नजर सोनेके एक टुकड़ेपर पड़ी। ज्यों ही उसने सोनेका टुकड़ा देखा, फटाफट मिट्टी उठाकर उसके ऊपर डाल दिया ताकि वह सोनेका टुकड़ा दिखाई न दे। रानीने उसे मिट्टी डालते हुए देख लिया। उसने पूछा कि यहां आप क्या कर रहे थे। राजा बोले, यहां सोनेका टुकड़ा पड़ा था, मैंने सोचा कि यदि आपकी नजर सोनेके टुकड़ेपर गयी तो आपको लालच आ जायगा, इसलिए मैंने ऊपर मिट्टी डाल दी। रानीने कहा कि आपको स्वर्णका अब भी ध्यान है? मैं तो इसे पहले ही मिट्टी मान चुकी हूं। इसी तरह भक्त महापुरुष सभी पदार्थोंको मिथ्या मानते हैं। निरलेप जीवनमें अहंकार बड़ी बाधा पैदा करता है, क्योंकि अकसर इनसानको भ्रम हो जाता है कि शायद मैं खुद ही परिवारका पालन-पोषण कर रहा हूं। अकसर कह भी दिया जाता है कि दाने-दानेपर लिखा है खानेवालेका नाम, लेकिन दास तो ऐसा मानता है कि दाने-दानेपर लिखा है देनेवालेका नाम। दान देनेवाला तो प्रभु है, यदि इसकी कृपा न हो तो इनसानके सामने भले ही अनेक पदार्थ पड़े रहें, उनमेंसे एक छोटा-सा कौर भी उठाकर मुंहमें नहीं डाल सकता। भक्त हमेशा दातारकी कृपाको ही मानते हैं। यदि कोई व्यापार करता है तो भी ऐसा ही मानता है कि दातार यदि दिनमें बीस-पचीस ग्राहक भी आ गये हैं तो ये मेरे यतनके कारण नहीं, बल्कि तू मुझे रोजी-रोटी देना चाहता है।