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और धुंधली हुई कांग्रेस के उद्धार की उम्मीद, कोई राहुल गांधी से पूछे कि जब भारत राष्ट्र ही नहीं तो गांधी राष्ट्रपिता कैसे?


प्रदीप सिंह। राहुल गांधी के बारे में जब भी आप सोचते हैं कि अब उनमें कुछ सुधार होता दिख रहा है, उसी समय वह कुछ ऐसा करते या कहते हैं कि आपको लगेगा कहां मुंह छिपाएं। हाल में राहुल गांधी के इंग्लैंड दौरे को आयोजित किया गया था, उनकी छवि सुधारने के लिए, लेकिन नतीजा हुआ ठीक उलटा। उनकी जो बची खुची छवि है, उसमें भी बट्टा लग गया। क्या यह हैरानी की बात नहीं कि जो व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहता है, वह कह रहा है कि राष्ट्र का मतलब किंगडम यानी साम्राज्य होता है। राहुल गांधी एक अर्से से अपनी इस जिद पर अड़े हुए हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। इस अज्ञानता में वह भारत विरोधियों के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाते रहते हैं। हालत यह हो गई है कि सेक्युलरवादियों ने भी उम्मीद छोड़ दी है। इन लोगों ने मान लिया है कि राहुल गांधी से कोई अपेक्षा करना ही बेकार है।

राहुल गांधी की छवि गढऩे वालों के धैर्य की प्रशंसा करनी पड़ेगी। एक प्रोडक्ट बार-बार फेल हो जाए तो निर्माता उसे बंद करके नया उत्पाद बाजार में लेकर आता है। कांग्रेस की समस्या यहीं से शुरू होती है। कंपनी यानी कांग्रेस या सोनिया गांधी की जिद है कि प्रोडक्ट तो यही रहेगा, उसकी पैकेजिंग बदलते रहो। दूसरी समस्या यह है कि पैकेजिंग खोलते ही पता चल जाता है कि यह तो पहले से भी अधिक खराब हो गया है। इसके बाद भी गजब का विश्वास है सोनिया गांधी का कि उन्हें कोई खराबी दिखती ही नहीं। कहावत है कि 12 साल में घूरे के दिन भी फिरते हैं। यहां तो 18 साल हो गए और आगे कोई उम्मीद दिखती नहीं। बेटे के प्रति मां का मोह जगजाहिर है, पर कांग्र्रेसियों को क्या कहें? सब जानते हुए भी गूंगे-बहरे बने हुए हैं। आस-पास जो घट रहा है, उसे भी वे निरपेक्ष भाव से देखते हैं।