सम्पादकीय

कांट्रैक्ट फार्मिंगसे किसानोंको खतरा


कुलभूषण उपमन्यु

दुनियाभरमें ट्रेड वार, जलवायु परिवर्तन, वैश्वीकरण और कॉर्पोरेट खेतीके चलते छोटा किसान दबावमें आ गया है। छोटा किसान उस स्तरका मशीनीकरण खेतीमें प्रयोग नहीं कर सकता जैसा बड़ा किसान या कारपोरेट घराने कर सकते हैं। इसलिए छोटे किसानके मुकाबले बड़े किसान या कारपोरेट कृषक सस्ता उत्पादन कर सकते हैं। इसके चलते छोटा किसान प्रतिस्पर्धामें पिछड़ जाता है। इस दबावमें जब वह कांट्रैक्ट फार्मिंगके लिए जानेपर बाध्य होता है तो उसे कारपोरेटकी शर्तोंको मान्य करना पड़ता है या फिर घाटेकी कृषिको छोड़कर जमीन बेचनेपर मजबूर होना पड़ता है। अमेरिका जैसे समृद्ध देशोंमें भी छोटा किसान इन दबावोंको झेल नहीं पा रहा है। इसीका परिणाम है कि २०११ और २०१८ के बीच अमेरिकामें एक लाख छोटे किसान गायब हो गये।

वह अपने खेत बेचनेपर मजबूर हुए। अमेरिकामें भी स्वतंत्र छोटा किसान कर्ज और आत्महत्याके भंवरमें फंस चुका है। स्वतंत्र कृषि कोई लाभदायक व्यवसाय नहीं रहा है और ग्रामीण जीवन खतरेमें आ गया है। कारपोरेट फार्मिंग ही लाभकारी बची है। अमेरिकाके फार्म ब्यूरोके वैज्ञानिक जॉन न्यूटनके अनुसार विश्वमें खाद्य उत्पादन तीन प्रतिशत बढ़ा है, किंतु किसानको मिलनेवाले भाव आपूर्ति बढऩेसे कम होते चले गये। लागत खर्च तो कम नहीं हुआ, उलटे बढ़ा ही है। इसके कारण छोटे किसान खेती छोड़कर शहरोंकी ओर पलायन करनेपर मजबूर हो रहे हैं। अमेरिकामें एक नारा चल पड़ा  है कि गेट बिग और गेट आउट। यानी जोत बड़ी कर लो या खेती व्यवसायसे बाहर हो जाओ।

१९८७ और २०१२ के बीच २००० एकड़से बड़े फार्म दो गुने हो गये और दो सौ एकड़के लगभगवाले फार्म ४४ फीसदी घट गये। यानी धीरे-धीरे छोटे किसानको खेती छोडऩेकी स्थितियां पैदा हो गयी हैं और मजबूत होती जा रही हैं। भारतवर्षकी स्थिति इस मामलेमें और भी चिंताजनक हो सकती है क्योंकि सघन आबादीके कारण यहां ९५ फीसदीके लगभग जोतें लघु और  सीमांत किसानोंकी हैं। जब कारपोरेट खेतीसे दो सौ एकड़ वाला ही मुकाबला नहीं कर पा रहा है तो पांच एकड़वाला किसान कैसे करेगा। खेती छोड़कर शहरोंको भागनेवाला किसान उद्योगोंमें रोजगार पानेका प्रयास करता है, किन्तु उद्योग जगत भी उतने लोगोंको रोजगार देनेमें अक्षम होता जा रहा है क्योंकि वहां भी स्वचालित तकनीकोंसे उत्पादन लागत बचानेकी सोच हावी हो रही है। अत: खेती छोड़ रहे किसानोंको रोजगार उद्योगोंमें भी मिलनेवाला नहीं है। इसलिए खेतीके ऐसे मॉडलकी बात भारतवर्षमें होनी चाहिए जिसमें छोटा किसान स्वतंत्र कृषकके रूपमें इज्जतसे जीवनयापन कर सके।

वर्तमान कानूनमें जाहिर है कि बिना उचित कानूनी पकड़के किसानको कारपोरेट फर्मोंसे निबटना आसान नहीं होगा। यह ठीक है कि जमीन लीजपर नहीं दी जायगी, केवल फसलका ही ठेका होगा और पहलेसे निर्धारित कीमतपर फसलकी गारंटी होनेके कारण बाजारके उतार-चढ़ावसे किसान सुरक्षित रहेगा। किंतु ठेकेकी शर्तोंमें शरारत करनेकी गुंजाइश तो बनी ही रहेगी। क्योंकि किसानको बड़े व्यापारिक घरानोंपर विश्वासकी कमी है, इसलिए ऐसा कोई भी कानून किसानों और कृषि विशेषज्ञोंको एक साथ बैठाकर बनाया जाना चाहिए या अभी उसमें संशोधनकी व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें कोई किसान विरोधी छेद न हो। मान लो आसपासके बीस किसान अपनी फसलका ठेका किसी कम्पनीसे कर लेते हैं तो जाहिर है कि उनके बीचमें फंसे २-४ किसानोंको भी फसलका ठेका करना ही पड़ेगा, चाहे उनकी इच्छा ऐसा करनेकी न हो। फिर उन कम्पनियोंसे मूल्यमें भी मुकाबला करना पड़ेगा। बड़ी फर्मोंकी उत्पादन लागत कम आयगी जिसके बूते वह छोटे किसानोंको मजबूर करके ठेका व्यवस्थामें आ जानेपर मजबूर कर सकते हैं। इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि हमारी किसानी अमेरिकाकी तरह कारपोरेट घरानोंके हाथमें न चली जाय, जहां आज स्वतंत्र कृषक नाममात्र २.५ फीसदी ही बचे हैं। ऐसी परिस्थितिको भारत जैसा देश कदापि सहन नहीं कर सकता जहां ६० फीसदी लोग खेतीपर ही निर्भर हैं और उसके वैकल्पिक रोजगार खड़े होनेकी भी कोई संभावना नहीं है। सरकार खुद पहल करके वार्ता करे, कुछ आशंकाएं यदि आधारहीन हैं तो किसानोंको समझाया जा सकता है। कानूनका कागजी स्वरूप और उसका क्रियान्वित रूप ज्यादातर अलग होनेकी संभावनाएं बनी ही रहती हैं। जैसे कि दहेज लेना-देना अपराध है, किन्तु सबसे ज्यादा दहेज कानून बनानेवाले ही लेते-देते पाये जाते हैं। स्पष्ट कानून होनेके बावजूद बड़े-बड़े अपराधी छुट्टा घूमते हैं। ऐसा वह पैसेके दमपर कर पाते हैं। इसी तरह बड़ी कारपोरेट फर्मों द्वारा कानूनको घुमा-फिरा कर किसानोंके शोषणके रास्ते निकाल लेनेका अंदेशा भी बना ही रहेगा। अत: ऐसे कोई छेद न रह जायं जिनसे किसानका शोषण संभव हो। यह सुनिश्चित करने और किसानोंके शक दूर करनेके लिए सांझी समझ, जिसमें किसान, कृषि विशेषज्ञोंको साथ बैठाकर, तीनों कानूनोंके संयुक्त प्रभावका आकलन करके उस हिसाबसे संशोधन करनेकी दिशामें बढऩा चाहिए। सरकारको यह नहीं सोचना चाहिए कि हम छह बार वार्ता कर चुके हैं, परिणाम नहीं निकला, बल्कि खुद पहल करके यह साबित करना चाहिए कि किसी भी सूरतमें सरकार किसानोंको संतुष्ट करना चाहती है। जो लोग इसमें राजनीतिक लाभ उठानेका मौका देखते हैं, उनको भी आत्ममंथन करना चाहिए और किसान हितको प्रमुख मानते हुए किसान नेताओंको बात करने देना चाहिए और बिना कारण बयानबाजियोंसे दूर रहना चाहिए। बढ़ती ठंड और सामने आ रहे मृत्युके मामलोंको देखते हुए अब इस मामलेको और लटकाना किसी भी पक्षके हितमें नहीं है।