सम्पादकीय

जनताको सक्षम बनाये सरकार


डा. भरत झुनझुनवालाï

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीने सही कहा है कि सरकारका कार्य बिजनेस करना नहीं है। सरकार यह कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकती है। प्राय: सरकारी इकाइयां घाटेमें ही चलती हैं। सार्वजनिक इकाइयोंमें सरकारके अधिकारी और नेता अपने चहेतोंको नियुक्त कराते हैं। ठेके दिलाते हैं और इनके गलत एवं घटिया कार्योंको इकाईके प्रबंधनको नजरअंदाज करनेको मजबूर करते हैं। इकाईका प्रबन्धन असहाय हो जाता है चूंकि इकाईके बजटपर इन्ही अधिकारयों एवं नेताओंका नियंत्रण होता है। सार्वजनिक इकाइयोंकी ऑडिट भी उन्हींके भाई-बंधु दूसरे सरकारी अधिकारी करते हैं। सरकारी इकाईयोंके मुख्य अधिकारीकी व्यक्तिगत उन्नति इस बातपर निर्भर नहीं करती कि कम्पनीको लाभ हो रहा है या हानि। उनकी पदोन्नति अकसर इस बातपर निर्भर करती है कि उन्होंने सचिव और मंत्री महोदयको कितना प्रसन्न रखा। मुख्य अधिकारीका लगाव इकाईसे नहीं होता है चूंकि उनका तबादला कभी भी हो जाता है। इससे सार्वजनिक इकाइयां अधिकतर घाटेमें ही चलती हैं। जो इकाइयां किसी समय लाभ कमा रही थीं जैसे घड़ी और ट्रेक्टर बनानेवाली हिंदुस्तान मशीन टूल, उड्डयन कम्पनी एयर इंडिया, इत्यादि यह भी  समय क्रममें घाटेमें आ गयी हैं। इन्हींके समानान्तर निजी कम्पनियां जैसे टाइटन घड़ी, महिंद्रा ट्रैक्टर और स्पाइस जेट एवं इंडिगो एयरवेज सफल हैं। सरकारी इकाइयोंमें देशकी भारी पूंजी लगनेके बाद भी यह असफल हैं। इसी प्रकार सार्वजनिक बैंकोंको जीवित रखनेके लिए भी देशको लगातार भारी पूंजी निवेश करना पड़ रहा है जबकी निजी बैंक लाभ कम रहे हैं। इस समस्याका दूसरा कारण यह भी है कि सरकारी अधिकारियोंका स्वाभाव बिजनेस करनेका नहीं होता है। वह कुशल अफसर होते हैं परन्तु कुशल व्यापारी नहीं। उन्हें व्यापारीकी तरह दिन-रात पैसा कमानेकी लत नहीं लगी होती है।

लेकिन निजीकरण भी इस समस्याका हल नहीं है। निजी उद्यमीका उदेश्य केवल मुनाफा कमाना होता है जबिक सार्वजनिक इकाइयोंका उद्देश्य सरकारी नीतियोंको लागू करना होता है। देखा जाता है फिल्म जगतके महानायक बड़ी कम्पनियोंमें उत्पादित हानिप्रद वस्तुओं जैसे गुटका आदिके विज्ञापन करके इनकी खपतको प्रोत्साहन देते हैं। चूंकि उनको वस्तुके गुण दोषसे कोई मतलब नहीं होता है। उद्यमीको शराब एवं गुटका बनाने, बेचने और इनमें मिलावट करनेमें तनिक भी संकोच नहीं होता। इनका एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना होता है। इस प्रकार सार्वजनिक और निजी इकाइयां दोनों ही जनहित हासिल करनेमें नाकाम हैं।

कानूनी दृष्टिसे देखा जाय तो नेताओं एवं मंत्रियोंका काम कानून बनाना है जबकी अधिकारियोंका काम उसे लागू करना है। यानी कानूनके अनुरूप उद्यमियोंका निरीक्षण एवं संचालन कराना अधिकारियोंका काम है। लेकिन नेता, अधिकारी और उद्यमीकी मिलीभगतका एक त्रिकोण बन गया है। जैसे बिड़लाने तीस सालतक देशमें घटिया अम्बेसडर कारको बनाया, बेचा और भारी लाभ कमाया। कारण कि नेता और अधिकारियोंने इनकी प्रतिस्पर्धामें दूसरे उद्यमियोंको कार बनानेका लाइसेंस नहीं दिया। टूजी स्पेक्ट्रममें जो धांधलेबाजी हुई उसके पीछे भी इन्ही तीनोंकी मिलीभगत थी। माल्या और नीरव मोदी जैसे उद्यमियोंने बैंकको चूना लगाया तो यह भी वित्त मंत्रालय और बैंकके अधिकारियोंकी मिलीभगतका ही परिणाम है। समस्या यह है कि अधिकारी और उद्यमी दोनों ही अनैतिक कार्योंमें लिप्त हैं। शराबीके दोनों हाथमें शराब हैं। उसने शराब बाएं हाथसे पीया फिर दायें हाथसे इससे अंतर नहीं पड़ता है।

लेकिन अधिकारी भ्रष्ट हों तो भी अनिवार्य हैं। मनु:स्मृतिके श्लोक ७.१२४ में कहा गया है प्राय: राजाके वह रक्षा अधिकारी अधिकतर दूसरेके धनको हरण करनेवाले और वंचक होते हैं। इसलिए राजा उन लोगोंसे प्रजाओंकी रक्षा करे। जो पापात्मा कर्मचारी घूस लें राजा उनका सर्वस्व हरण करके उन्हें देशसे निकाल दे। अत: प्रश्न है कि इस प्रकारके भ्रष्ट चरित्रवाले सरकारी अधिकारियोंसे उतने ही भ्रष्ट चरित्रवाले निजी उद्यमियोंको कैसे नियंत्रित कराया जाय। इस मुद्देपर सार्वजनिक इकाइयों और निजी कम्पनियोंमें एक मौलिक अंतर है। सार्वजनिक इकाइयोंका भ्रष्टाचार सरकारी कर्मियोंके दायरेमें रह जाता है। इनपर कहींसे दबाव नहीं पड़ता है। यह घपलेबाजी और अपनी मनमानी आरामसे कर सकते हैं। जबतक सरकार इन इकाईयोंमें उत्तरोत्तर पूंजी निवेश करती रहती है तबतक इनकी अकुशलता और भ्रष्टाचारका खेल जारी रहता है। तुलनामें निजी उद्यमी स्वयं घाटा खाता है। बड़ी कम्पनी हो तो शेयर बाजारकी नजर रहती है। इसके अलावा निजी उद्यमी और नियंत्रण करनेवाले सरकारी अधिकारीके बीच घर्षण होता है। जिस प्रकार कांटेसे कांटेको निकाला जाता है उसी प्रकार संभव है कि इन दोनोंके आपसी घर्षणका लाभ उठाकर इन दोनोंपर ही नियंत्रण किया जा सके।

सीधा उपाय यह है कि सरकार देशकी आम जनताको सक्षम बनाये क्योंकि इनके दुराचारकी जानकारी जनताको तो होती ही है। सरकारको चाहिए कि उच्च सरकारी कर्मियोंकी पांच वर्षोंके बाद जन-सुनवाई करे और उन्होंने पांच वर्षोंमें जहां-जहां कार्य किया है वहां जनतासे उनके कार्यशैलीके बारेमें जानकारी प्राप्त करे। सरकार इन अधिकारियोंका गुप्त मूल्यांकन करा सकती है। सरकार सूचनाके अधिकारकी तर्जपर जवाबके अधिकारका कानून भी बना सकती है। वर्तमानमें सूचनाके अधिकारमें जनता द्वारा सरकारके फाइलोंमें उपलब्ध सूचना मांगी जा सकती है लेकिन सरकारके कार्योंपर कोई प्रश्न करनेका जनताको कोई अधिकार नहीं है। यदि अधिकारी कोई गलत कार्य करते हैं तो उनसे जवाब मांगनेके लिए न्यायालयोंकी चौखटपर ही जाना पड़ता है जो कि आम आदमीके लिए अति दुष्कर कार्य है। प्रधान मंत्रीको बधाई है कि उन्होंने इस बातको स्वीकार किया है कि सरकारका काम व्यवसाय करना नहीं है। लेकिन इससे भी आगे बढऩेकी जरूरत है। प्रधान मंत्रीको चाहिए कि जनताको सक्षम बनायें, ताकि नेताओं, अधिकारियों और उद्यमियोंकी मिलीभगतसे किये गये गलत कार्योंके विरुद्ध जनता आवाज उठा सके और इनके बीचमें घर्षण उत्पन्न करके निजी उद्यमियोंपर नियन्त्रण किया जा सके और जनहित हासिल किया जा सके। साथ ही सरकारको उन्हीं चुनिन्दा उद्योगोंको अपने हाथमें लेना चाहिए जो कि सामरिक दृष्टिसे देशके लिए महत्वपूर्ण हों और निजी उद्यमीकी क्षमताके बाहर हो।