सम्पादकीय

चित्तको आनन्दित करते देवता


हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय परंपराको अंधविश्वासी कहनेवाले लज्जित हैं। कथित प्रगतिशील श्रीराम, श्रीकृष्णको कल्पना बताते थे। वे हिन्दुत्वको साम्प्रदायिक कहते थे। राजनीतिक दलतंत्रका बड़ा हिस्सा भी हिन्दुत्वको साम्प्रदायिक बताता था।

कथित प्रगतिशील देवोंकी निन्दा, देव आस्थासे जुड़े उत्सवोंका भी मजाक बनाते थे। लेकिन अचानक देशकी संपूर्ण राजनीतिमें हिन्दू हो जानेकी जल्दबाजी है। संप्रति देशमें हिन्दुत्वका स्वाभाविक वातावरण है। किसी भी पार्टीके नेता द्वारा हिन्दुत्वकी निन्दाका साहस नहीं है। हिन्दुत्व भारतके लोगोंकी जीवनशैली है। यहां देव आस्थाकी बात अलग है। यहां बहुदेव उपासना है। एक ईश्वर, परमतत्वकी धारणा भी है। आस्था अंध विश्वास नहीं होती। आस्थाका विकास शून्यसे नहीं होता। करके देखना या देखनेके बाद विश्वास मानव स्वभाव है। अंधविश्वास बिना देखे-सुने मान लेना अंधविश्वास है। भारत सत्य खोजी है। शोध और बोधकी मनोभूमिसे निर्मित भारतकी देव आस्था निराली है। यहां विविध प्रकारके देवता हैं। सबके रूप भिन्न-भिन्न हैं। कथित प्रगतिशील तत्व देवताओंका मजाक भी बनाते हैं। लेकिन भारतीय देव श्रद्धामें प्रकृतिकी शक्तियां ही देवता है। कुछ देवता प्रत्यक्ष हैं और कुछ अप्रत्यक्ष। अथर्ववेदमें ज्ञानी, अच्छे कारीगर एवं मन के शुद्ध भाव भी देवता कहे गये हैं। अथर्ववेदके अनुसार प्रारंभमें कुल दस देवता थे। इसके अनुसार प्राण, अपान, आंख, सूंघनेकी शक्ति, ज्ञान, उदान, वाणी, मन और क्षय-अक्षय होनेवाली शक्तियां देवता है। अथर्ववेदके देवता मनुष्यके शरीरकी प्रभावकारी शक्तियां हैं। इस प्रकार मनुष्यका शरीर भी देवताओंका निवास है।

देवताओंकी संख्यापर भी यहां विवाद भी रहा है। भारतके लोक-जीवनमें ३३ करोड़ देवता कहे जाते हैं। शतपथ ब्राह्मïणमें ३३ देवताओंकी सूची है। इस सूचीमें आठ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, इंद्र और प्रजापति हैं। कुल मिलाकर ३३ हैं। फिर ११ रुद्रोंका अलग विवरण भी है। दस प्राण इन्द्रियां और ग्यारहवां आत्म-मन मिलाकर ११ रुद्र हैं। यह सब मनुष्यकी कायाके भीतर हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय- ०३) में रुद्र की स्तुति है। बताते हैं- ‘जो सबको प्रभावमें रखनेवाले उत्पत्ति और वृद्धिका कारण हैं, विश्वके अधिपति हैं, ज्ञानी हैं, वह रुद्र हमको शुभ बुद्धिसे जोड़ें।‘ यहां रुद्रका मानवीयकरण है। जो रुद्र है, वही शिव हैं। भारतमें सभी देवताओंके रूप अलग-अलग हैं। लेकिन वास्तविक अनुभूतिमें सभी देवता मिलाकर एक हैं। इसका सबसे सुंदर उदाहरण ऋग्वेदमें एक विराट पुरुषका वर्णन हैं। पुरुष सहस्त्र शीर्षा है। हजारों सिरवाला, हजारों आंखोंवाला, हजारों पैरोंवाला है। समस्त जगतको आच्छादित करता है।‘ यहां पुरुष नामका देवता सबको आच्छादित करता है। आगे कहते हैं कि जो अबतक हो चुका है और होनेवाला है वह सब पुरुष ही है।Ó यही बात श्वेताश्वतर उपनिषद्में भी कही गयी है। बताते हैं-‘उसके हाथ-पैर सब जगह है। उसकी आंख सिर और मुख, कान सर्वत्र है। वह सबको घेरकर स्थित है।‘ यहां विराट पुरुषका रूपक है। पुरुष एक देवता है। इससे भिन्न कुछ न लेकिन कुल मिलाकर देवताओंकी अराधना अपने-अपने ढंगसे की जाती है।

कुछ लोग देवोंकी उपासना करते हैं, कुछ लोग नहीं करते। कुछ उन्हें मनुष्यकी तरह मिठाई और पान भी खिलाते हैं। ऐसी पूजाके लाभ-हानिपर घण्टों बहस हो सकती है। लेकिन देवोंकी अनुभूति सहज ही अनुभव की जा सकती है। यहां रूप विधान हैं, देवताके रूपका वर्णन किया गया है। वहां शब्द रूपायनसे देवताको समझनेका प्रयास किया जा सकता है। लेकिन उपनिषदोंमें उस एकको अंतत: रूप-रंग और शरीर रहित बताया गया है। अधिकांश प्राचीन साहित्यमें सत्य और ईश्वर पर्यायवाची है। सत्य भी देवता है। ऐसी श्रद्धाके साथ चिंतन करनेसे जीवन मार्ग सुगम हो जाता है।Ó ऋग्वेद और कई उपनिषदोंमें एक सुंदर मंत्र आया है कि अक्षर-अविनाशी परम आकाशमें मंत्र अक्षर रहते हैं। यहीं परम आकाशमें ही समस्त देवता भी रहते हैं। जो यह बात नहीं जानते, उनके लिए वेद पढऩा व्यर्थ है और जो यह बात जानते हैं, वे सम्यक् रूपमें उसीमें स्थिर हो जाते हैं। परम व्योम देव निवास है। वैदिक पूर्वजोंने अलग-अलग रूपवाले देवोंकी उपासना की। सबका अलग-अलग व्यक्तित्व भी गढ़ा। इंद्र प्रत्यक्ष देवता नहीं हैं। वैदिक साहित्यमें वह पराक्रमी, ज्ञानी और श्रेष्ठ देवता हैं। मनुष्यकी तरह मूंछ भी रखते हैं। इसी प्रकार रुद्र और शिव हैं। पुराणोंमें उनका नया रूप प्रचारित हुआ। अग्नि भी प्रकृतिकी प्रत्यक्ष शक्ति है। उनका मानवीयकरण भी वेदोंमें ही है। वह भी वैदिक कालसे प्रतिष्ठित देवता हैं।

भारतीय देवतंत्रमें अनेकके साथ एकत्व है। पहले अलग-अलग उपासना फिर सभी देवताओंको एक ही परम सत्यके भीतर प्रतिष्ठित करना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेदके एक मंत्रमें कहते हैं-‘इंद्र वरुण आदि देवताओंको भिन्न-भिन्न नामोंसे जाने जाते हैं, लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नामसे बुलाते हैं। भारतीय देव-तंत्रका सतत् विकास हुआ है। दुनियाके किसी भी देशमें देवोंके रूप-स्वरूपका विकास भारत जैसा हजारों वर्ष लंबा नहीं है। दुनियाकी सभी प्राचीन संस्कृतियोंमें देवताओंकी उपस्थिति है और उनकी उपासना भी होती है लेकिन भारतकी बात दूसरी है। यहां श्रीराम, श्रीकृष्ण भी उपास्य देवता है कुछ यूरोपीय विद्वानोंने भारतके वैदिक देवताओंको अविकसित बताया है। कहा है यूनानी देवताओंकी आकृतियां सुव्यवस्थ्ति हैं और भारतीय देवोंकी अविकसित। वैदिक पूर्वजोंने अस्तित्वको अखण्ड और अविभाज्य पाया था। भारत सहित दुनियाके सभी देवताओंके रूप ससीम हैं। लेकिन भारत ससीम रूप और नामके बावजूद उनकी उपस्थिति असीम है। वे रूप-नामके कारण सीमाबद्ध हैं और अपनी व्याप्तिके कारण अनंत। अग्नि भी सर्वव्यापी है। अथर्ववेदमें अग्निके सर्वव्यापी रूपका उल्लेख है कि अग्नि दिव्यलोकमें सूर्य है। अंतरिक्षमें विद्युत है। वनस्पतिमें पोषक-तत्व है। कठोपनिषदमें यमने नचिकेताको बताया- ‘एक ही अग्नि समस्त ब्रह्मïाण्डके रूपमें रूप-रूप प्रतिरूप है। ऋग्वेदमें यही बात इन्द्रके लिए कही गयी है कि एक ही इन्द्र ब्रह्मïाण्डके सभी रूपोंमें रूप-रूप प्रतिरूप हैं। वरुण देवता भी सब जगह व्याप्त है।

वैदिक देव-उपासनाका इतिहास ऋग्वेदके रचना कालसे भी पुराना है और किसी न किसी रूपमें आधुनिक कालमें भी जारी है। ड्राइवर गाड़ी चलानेके पहले स्टीयरिंगको नमस्कार करते हैं, देवताकी तरह। गायको नमस्कार करते हैं। मंदिरको नमस्कार करते हैं। धरतीको नमस्कार करते हैं और नदी, पर्वतोंको भी। देव-उपासना आत्मविश्वास बढ़ाती है। उपासनामें तमाम कर्मकाण्ड भी है। कर्मकाण्डसे होनेवाले लाभ-हानिपर बहसें होती रहती हैं। उपासना और कर्मकाण्ड एक नहीं है। उपासना वस्तुत: उप-आसन है। इसका अर्थ निकट बैठना है। आस्थामें ईश्वर या देवके निकट होना है। उपनिषद्का भाव भी यही है-सत्यके निकट बैठना या अनुभव करना है। ऐसे अनुभव चित्तको आनन्दसे भरते हैं।