सम्पादकीय

उत्तर प्रदेशमें चुनाव पूर्व बसपाकी चुप्पीका अर्थ


अजय कुमार

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावमें अब सालभरका समय बचा है। सभी राजनीतिक पार्टियां एड़ी-चोटीका जोर लगाये हुए हैं। हाल यह है कि प्रदेशकी सियासत दो हिस्सोंमें बंट गयी है। एक तरफ योगीके नेतृत्वमें बीजेपी आलाकमान अपनी सत्ताको बचाये रखनेके लिए हाथ-पैर मार रहा है तो दूसरी ओर कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी साम-दाम-दंड-भेदके तहत किसी भी तरहसे योगी सरकारको सत्तासे बेदखल कर देना चाहती हैं। इसके लिए इन दलों द्वारा प्रदेशकी जनताके बीच योगी सरकारके खिलाफ बेचैनीका माहौल पैदा करनेका प्रयास किया जा रहा है। सपा-कांग्रेस द्वारा प्रदेशमें घटनेवाली हर छोटी-बड़ी घटनाको साम्प्रदायिक और जातिवादके रंगमें रंगनेकी साजिश रची जा रही है। कभी योगी सरकारको ब्राह्मïण विरोधी तो कभी महिला, दलित विरोधी करार दिया जाता है। कांग्रेस तो पिछले तीन दशकोंसे अधिक समयसे उत्तर प्रदेशमें हाशियेपर पड़ी है। इसलिए बीजेपी नेताओंके पास उसकी सरकारके खिलाफ बोलनेको कुछ अधिक नहीं है। यह और बात है कि उत्तर प्रदेशमें जबतक कांग्रेसकी सरकार रही, तब कांग्रेस कैसे सत्ता चलाती थी, किसीसे छिपा नहीं था। कांग्रेसकी पूरी सियासत जातिवादी राजनीतिके इर्द-गिर्द घूमती रहती थी। दिल्लीमें बैठे गांधी परिवारके हाथमें उत्तर प्रदेशके मुख्य मंत्रीका रिमोट रहता था। उत्तर प्रदेशमें ३२ वर्षोंसे सत्ताके केन्द्रमें आनेके लिए संघर्षरत कांग्रेसका बुरा दौर १९८९ के बाद शुरू हो गया था। इसकी वजह थी, अयोध्याका रामजन्म भूमि विवाद, जिसको लेकर बीजेपी हिन्दुत्वको भुनानेमें जुटी हुई थी लेकिन कांग्रेसी दोनों हाथोंमें लड्डू चाहते थे। इसके चलते कांग्रेस न इधरकी रही, न उधरकी रही। इस दौरान कांग्रेसके नेताओंकी लंबी फेहरिस्त भी जातीय राजनीतिका शिकार होनेसे अपने आपको बचा नहीं पायी थी। नतीजा एकके बाद चुनाव हारते और गिरते प्रदर्शनसे उत्तर प्रदेश कांग्रेस हाशियेपर चली गयी। यदि कहा जाये कि केन्द्रमें बदलती सरकारोंके समीकरणका सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश कांग्रेसपर पड़ा तो कोई गलत नहीं होगा। जब-जब केन्द्रकी राजनीतिने करवट ली, प्रदेशकी राजनीति भी विकासके वादेसे दूर जातिवादी राजनीतिपर आकर टिक गयी।

यह सच है कि उत्तर प्रदेशमें कांग्रेसको खड़ा करनेके लिए दिल्ली कांग्रेस नेतृत्वने प्रदेशको कई कैडरके नेता दिये, इसमें महावीर प्रसाद, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, निर्मल खत्री, राज बब्बर जैसे नाम शामिल थे। लेकिन स्थानीय और क्षेत्रीय समीकरणोंमें फिट न बैठ पानेकी वजहसे एकके बाद एक कांग्रेस अध्यक्ष पार्टीकी दशा सुधारनेकी बजाय बारी-बारीसे अध्यक्षकी कुर्सीको शोभायमान कर चले गये। कांग्रेसका प्रदर्शन लगातार गिरता चला गया। यहांतक कि उत्तर प्रदेशमें प्रियंका वाड्रासे पूर्व तीन बार उत्तर प्रदेश कांग्रेसके प्रभारीकी जिम्मेदारी संभाल चुके गुलाम नबी आजाद भी कोई कमाल न दिखा सके और उन्हें भी वापस जाना पड़ा। प्रदेशमें एनडी तिवारी कांग्रेसके अंतिम मुख्य मंत्री साबित हुए थे। उसके बाद समाजवादी जनता दलसे मुलायम सिंह यादवकी प्रदेशमें सरकार बनी थी। इस बारेमें राजनीतिके जानकार कहते हैं कि देशमें क्षेत्रीय क्षत्रपोंके पनपनेके बाद देश हो या प्रदेश, हर जगह जातिवादी राजनीतिका बोलबाला बढऩे लगा। उत्तर प्रदेशके परिप्रेक्ष्यमें यदि देखें तो यहां मुलायम और मायावती जैसे नेताओंने जाति आधारित राजनीतिको काफी तेजीसे आगे बढ़ाया। इसी वजहसे कांग्रेसका दलित वोटर मायावतीके साथ और पिछड़ा एवं मुस्लिम वोटर समाजवादी खेमेमें चला गया। बनिया-ब्राह्मïणों तथा अन्य अगड़ी जातियोंने बीजेपीका दामन थाम लिया, तभीसे कांग्रेसका ग्राफ गिरता गया। १९८९ के बादके समीकरणोंको गौरसे देखें तो अलग-अलग नेताओंके अलग-अलग जातिका प्रतिनिधित्व करनेसे केन्द्र एवं प्रदेश दोनोंकी राजनीति प्रभावित हुई। गौरसे देखें तो जातिवादी राजनीतिमें खास जातिका प्रभुत्व सरकारका प्रतिनिधित्व करता नजर आयेगा। इस लहरमें कांग्रेसके लीडर एकके बाद एक धराशायी हो गये। न पहले सोनिया गांधी इस गिरावटको रोक पायीं, न अब राहुल-प्रियंका कुछ कर पा रहे हैं।

बात समाजवादी पार्टीकी की जाय तो पिछले दो चुनावों (२०१४ के लोकसभा और २०१७ के विधानसभा चुनाव) में उसका भी हाल बुरा ही रहा। बात सपा की की जाय तो २०१३ में उसके राजमें हुए मुजफ्फरनगर दंगोंने २०१४ के लोकसभा चुनावमें बीजेपीको बढ़त बनानेका मौका दिया तो २०१७ में सत्ता विरोधी लहर और प्रदेशमें जंगलराज जैसे हालातके चलते अखिलेशको सत्तासे बेदखल होना पड़ गया। फिर भी २०२२ के विधानसभा चुनावको लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादवके हौसले बुलंद हैं तो इसका कारण उपचुनावोंमें समाजवादी पार्टीका अच्छा प्रदर्शन है। क्योंकि उपचुनावोंमें समाजवादी पार्टीको जीतका स्वाद भले कम मिला हो, लेकिन समाजवादी पार्टीके प्रत्याशी ही भारतीय जनता पार्टीके प्रत्याशियोंको टक्कर देते नजर आये। इतना ही नहीं, अखिलेशके कार्यक्रमोंमें भीड़ भी जुट रही है। इससे भी अखिलेश गद्गद् हैं।

बात बसपा सुप्रीमो मायावतीकी की जाय तो अगले वर्ष होनेवाले विधानसभा चुनावको लेकर उनकी सुस्ती किसीके समझमें नहीं आ रही है। लम्बे समयसे वह कहीं दिखाई नहीं दे रही हैं। योगी सरकारको घेरनेके लिए भी वह ज्यादा रूचि नहीं दिखाती हैं। हां जनवरीमें अपने ६५वें जन्मदिनपर जरूर उन्होंने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंडमें अकेले चुनाव लडऩेका ऐलान कर सबको चौंका दिया था। वैसे भी मायावतीका यही मानना है कि हमें गठबंधनसे नुकसान होता है। मायावतीने दावा भी किया था कि आगामी चुनावमें बहुजन समाज पार्टीकी जीत तय है, लेकिन जो हालात नजर आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मायावती विधानसभा चुनावको लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं। बसपाने अभीतक तमाम विधानसभा सीटोंके लिए प्रभारीतक नहीं नियुक्त किये हैं। उल्लेखनीय है कि २०१९ के लोकसभा चुनावमें सपा और बसपाने हाथ मिलाया था। २०१४ के चुनावमें एक भी सीट नहीं जीतनेवाली बसपाने तब दस सीटोंपर जीत दर्ज की थी, वहीं सपा २०१४ की ही तरह २०१९ में भी पांच सीटपर सिमटकर रह गयी थी। आश्चर्यकी बात यह है कि मायावती कभी बीजेपीको चुनौती देती नजर आती हैं तो कभी वह बीजेपीके कामोंकी तारीफ करने लगती हैं या फिर तमाम मौकोंपर चुप्पी साध लेती हैं। इसीके चलते राजनीतिक पंडित भी मायावतीकी भविष्यकी राजनीतिको समझ नहीं पा रहे हैं।