सम्पादकीय

गांवोंमें ब्राडबैण्ड


भारत गांवोंका देश है, जहां देशकी सर्वाधिक आबादी रहती है लेकिन उन्हें अपेक्षित सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। देशकी अर्थव्यवस्थाका मूल आधार ग्रामीण भारत ही है। भारतमें कुल छह लाख ४९ हजार ४८१ गांव हैं, जिनमें सबसे अधिक एक लाख सात हजार ७५३ गांव उत्तर प्रदेशमें है जबकि सबसे कम १३ गांव चण्डीगढ़में हैं। बिहारमें गांवोंकी कुल संख्या ४५०७३, उत्तराखण्डमें १६९१९ और झारखण्डमें ३२६२३ है। केन्द्र सरकारने १६ राज्योंके हर गांवमें इण्टरनेटकी सुविधा उपलब्ध करानेका प्रशंसनीय कार्य किया है, क्योंकि संचारके युगमें इण्टरनेट आवश्यक आवश्यकता बन गया है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीकी अध्यक्षतामें बुधवारको हुई केन्द्रीय मंत्रिमण्डलकी बैठकमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक सहित १६ राज्योंके तीन लाख ६१ हजार गांवोंमें ब्राडबैण्ड इण्टरनेट पहुंचानेका कार्य शीघ्र प्रारम्भ करनेका महत्वपूर्ण निर्णय किया गया है। इसके लिए १९,०४१ करोड़ रुपयेकी स्वीकृति भी प्रदान की गयी है। इस धनराशिका उपयोग वायबिलटी गैप फण्डिंग (बीजीएफ) के रूपमें होगा। सरकार सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) माडलसे इस महत्वाकांक्षी कार्यको पूरा करायेगी। निजी कम्पनियां गांवोंमें ब्राण्डबैण्ड इण्टरनेट पहुंचानेके साथ ही उनके रखरखाव और सम्बन्धित अन्य जरूरी कार्योंको भी करेंगी। वैश्विक बोलीके आधारपर कम्पनियोंका चयन होगा। दूरसंचारमंत्री रविशंकरका कहना है कि एक लाख ५६ हजार गांवोंको ब्राडबैण्ड सेवाओंसे जोड़ा जा चुका है। निश्चित रूपसे गांवोंमें ब्राडबैण्ड सेवाओंकी उपलब्धता समयकी मांग है। लेकिन इसके साथ ही यह  जरूरी है कि यह सेवा गुणवत्ताकी कसौटीपर खरी उतरनी चाहिए। इण्टरनेट और मोबाइलसे सम्बन्धित सेवाएं गुणवत्तापरक नहीं हैं। कालड्राप और कनेक्टिविटीकी समस्याएं सदैव बनी रहती हैं। सर्वर डाउन रहना आम बात है। इससे उपभोक्ताओंको काफी परेशानी उठानी पड़ती है और कामकाज भी बाधित होता है। आवश्यकताके अनुरूप आधुनिक समुन्नत तकनीक अपनाना जरूरी हो गया है तभी इण्टरनेट सेवाओंका लाभ मिल सकेगा। १६ राज्योंके अतिरिक्त देशके अन्य राज्योंके गांवोंमें भी ऐसी सेवाएं उपलब्ध होनी चाहिए। इसके लिए चरणबद्ध ढंगसे कार्य करनेकी जरूरत है तभी पूरे देशको यह आवश्यक सेवा उपलब्ध हो पायगी।

वकीलोंको नसीहत

गलत सलाह देकर मुवक्किलोंको गुमराह करनेवाले वकीलोंके खिलाफ सख्त रुख अपना कर सर्वोच्च न्यायालयने वादियों और प्रतिवादियोंके हितमें बड़ा कदम उठाया है। न्यायालयने कहा है कि मुवक्किलोंके शोषणकी प्रवृत्तिपर रोक लगानेके लिए ऐसे वकीलोंके खिलाफ सख्त काररवाई की जानी चाहिए। यह पहला मौका है जब सर्वोच्च न्यायालयने वकीलोंके खिलाफ ऐसी टिप्पणी की है। यह उचित भी है, क्योंकि वकीलकी गलत सलाहसे मुवक्किल तो परेशान होता ही है साथ ही न्याय भी प्रभावित होता है। याचिका लगाना या फिर अदालतमें मामला दायर करनेकी जानकारी होना आजकी सामाजिक और कानूनी जरूरत है। देशकी अदालतोंमें मामले तेजीसे बढ़ते जा रहे हैं। छोटेसे छोटे मामलोंमें वकीलकी जरूरत पड़ती है। ऐसेमें मामला या याचिका दायर करनेवालेको यह मालूम होना चाहिए कि उसके क्या अधिकार हैं लेकिन अधिकांश अपने वकीलके झांसेमें आकर अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। अकसर देखा जाता है कि वकील अदालती लड़ाईको अनावश्यक रूपसे लम्बा खींचते रहते हैं। कई बार दोनों पक्ष मामलेका हल चाहते हैं, लेकिन वकील मामलेको आगे बढ़ानेके लिए जोर देकर उन्हें गुमराह करते हैं, यह प्रवृत्ति न्यायकी अवधारणाके विपरीत है। ऐसेमें सर्वोच्च न्यायालयने वकीलोंको जो नसीहत दी है, वह न्यायके हितमें है। इस सम्बन्धमें अधिवक्ता संघटनोंको इसपर विशेष रूपसे ध्यान देना होगा जिससे मुवक्किलोंका शोषण रोका जा सके। इसके साथ ही मुवक्किलोंको भी साहसका परिचय देते हुए शोषण करनेवाले अधिवक्ताओंके खिलाफ मुखर होना होगा, तभी ऐसी प्रवृत्तिपर अंकुश लगाया जा सकेगा। न्यायको पारदर्शी बनानेके लिए विशेष उपाय किये जाने चाहिए। ऐसेमें सर्वोच्च न्यायालयकी टिप्पणीपर अमल किये जानेकी जरूरत है। मुवक्किलोंको गुमराह कर उन्हें अदालतका चक्कर लगानेके लिए मजबूर करनेवाले वकीलोंके खिलाफ काररवाई वादी और प्रतिवादी दोनोंके हितमें है।