मऊ

घोसी में नया दौर:आज कहीं ठौर,कल कहीं और … अनारक्षित सीट पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार, फिर छले गये सवर्ण अस्तित्व की खोज में/रिपोर्ट: ऋषिकेश पांडेय


(ऋषिकेश पांडेय)

ऊ।घोसी विधानसभा के उपचुनाव में सपा को छोड़कर प्रायः सभी दलों ने अनारक्षित सीट पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को उतारकर सवर्णों को एक बार फिर छला है। जिससे नाराज़ सवर्ण अगर सत्ताधारी पार्टी की नैया में छेद कर दिए तो घोसी की तस्वीर बदल जाएगी। कहने को तो घोसी की सीट अनारक्षित है। लेकिन, अनारक्षित सीट पर भी जब आरक्षित वर्ग के ही उम्मीदवार उतारे जाएंगे तो भला सवर्णों की हसरतें कहां पूरी होंगी?यह ग़लती कोई भूल या मजबूरी नहीं कही जा सकती। क्यों कि ग़लती एक बार हो सकती है,दो बार हो सकती है,तीन बार हो सकती है।बार-बार नहीं हो सकती। मगर,जब बार-बार यही ग़लती की जा रही है तो यह कोई ग़लती नहीं, बल्कि सवर्णों को एक तरह से चुनौती ही दी जा रही है।अभी हाल ही के नगर पालिका चुनाव में भाजपा ने नगर पालिका परिषद की अनारक्षित सीट पर एक अनुसूचित जाति का उम्मीदवार उतार दिया।वह भी उसे जो चुनाव के पूर्व बसपा में था और बसपा सरकार में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री भी था। नतीजा यह हुआ कि सवर्ण मतदाताओं ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की और आधा दर्जन मंत्रियों के डेरा डालने के बावजूद भाजपा उम्मीदवार को बम्पर वोटों से हरा दिया।अभी वह दर्द भाजपा के सवर्ण मतदाता भूल भी नहीं पाये थे कि बेवजह विधानसभा से इस्तीफा देकर दलबदल करने वाले आरक्षित वर्ग के एक माननीय को सत्ताधारी पार्टी ने अनारक्षित सीट पर टिकट देकर एक बार फिर सवर्णों की नाराज़गी मुफ्त में मोल ले ली। जिससे पार्टी के सवर्ण मतदाता अपना अस्तित्व सुरक्षित करने के लिए भविष्य तलाशने लगे हैं। सत्ताधारी पार्टी में घोसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने वाले सामान्य वर्ग के मतदाताओं की एक लम्बी फेहरिस्त होने के बावजूद उनको दरकिनार कर उनके हिस्से की मलाई को आरक्षित वर्ग के बीच बांटकर जो राजनीति का नया दौर पैदा किया गया है।वह आज कहीं और,कल कहीं और की परिपाटी को मजबूत कर रहा है। अनारक्षित सीट पर सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों का हक छीनकर आरक्षित वर्ग को तवज्जो देने का प्रयोग सफल होगा या नहीं?यह तो आठ सितंबर को पता चलेगा। लेकिन,इस नये प्रयोग ने घोसी विधानसभा के उप चुनाव में फिलहाल पिछड़ों और अगड़ों के बीच नफरत की दीवार खड़ी कर दिया है।इसका अंजाम क्या होगा?यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन, सत्ताधारी पार्टी ने उस दौर में जब लोग बाग जागरूक हो चले हैं। सोशल मीडिया ने घर, परिवार और समाज पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। कोई बात छिप नहीं पा रही है।ऐसे में ऐसा आगाज़ कहीं नये प्रयोग के लिए अभिशाप न बन जाए और घोसी की फिजाओं में जहर न घुल जाए।इसको लेकर बुद्धिजीवी वर्ग कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आ रहा है।