राजेश माहेश्वरी
पिछले एक महीनेका घटनाक्रम याद करते ही शरीरमें सिरहन-सी दौड़ जाती है। जब कोरोनासे बचनेके लिए दवाओं, इंजेक्शन और आक्सीजनकी मारामारी देशभरमें मची थी। श्मशानमें दाह संस्कार करनेके लिए परिजनोंको घंटों ही नहीं, अपितु कई दिनोंतक इन्तजार करना पड़ा। निश्चित रूपसे वह एक अप्रत्याशित और अभूतपूर्व संकट था। इस लहरमें सरकारी और प्राईवेट सभी स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह हिल गयीं। यह बात साफ हो गयी कि पिछले सत्तर सालोंमें स्वास्थ्यके क्षेत्रमें जो कुछ होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। सभी सरकारोंने अपनी जिम्मेदारीसे मुंह चुराया। मोदी सरकारने पिछले सात सालके कार्यकालमें स्वास्थ्यके क्षेत्रमें कई सुधारात्मक कदम उठाये हैं लेकिन विशाल आबादीके सामने वर्तमान व्यवस्थाएं काफी कम और कमजोर हैं। वर्ष २०२० में कोरोनाका प्रभाव झेलनेके बाद इस वर्षके बजटमें मोदी सरकारने स्वास्थ्यके बजटको बढ़ाया था। केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमणने बजट २०२१-२२ पेश करते हुए कहा था कि देशके स्वास्थ्य क्षेत्रमें कोरोना वैश्विक महामारीका गहरा प्रभाव साफ तौरपर दिखाई दिया। कोरोनाके खिलाफ देशकी लड़ाई और केन्द्र सरकार द्वारा समयपर उचित कदम उठानेके नारेके साथ अपना बजट भाषण शुरू करते हुए वित्तमंत्रीने जोर देकर कहा कि आत्मनिर्भर भारतके छह प्रमुख स्तंभोंमें स्वास्थ्य और देखभाल प्रमुख स्तंभ है। अन्य क्षेत्रोंके साथ स्वस्थ भारत राष्टï्र प्रथमके संकल्पको और मजबूत करेगा। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रका देशमें महत्वपूर्ण स्थान है। इस क्षेत्रके लिए पिछले वर्षके ९४,४५२ करोड़ रुपयेकी अपेक्षा २०२१-२२ के बजट अनुमानमें २,२३,८४६ करोड़ रुपयेकी वृद्धि की गयी है। इस क्षेत्रमें १३७ प्रतिशतकी यह वृद्धि है। इस वित्त वर्षके बजटमें स्वास्थ्य क्षेत्रके लिए महत्वपूर्ण तीन क्षेत्रोंमें विशेष ध्यान दिया गया है- रोकथाम, उपचार और देखभाल।
नेशनल हेल्थप्रोफाइल-२०१९ द्वारा जारी किये गये आंकड़ोंके अनुसार भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (२०१७-१८) का केवल १.२८ प्रतिशत स्वास्थ्यपर सार्वजनिक रूपसे खर्च करता है। प्रति व्यक्तिके हिसाबसे स्वास्थ्य सेवाओंपर मात्र १,६५७ रुपये खर्च करता है। एनएचपीमें उपलब्ध तुलनात्मक आंकड़ोंके अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्रके दस देशोंमेंसे भारत केवल बंगलादेशसे ऊपर है। भारतके पड़ोसी देश, जैसे श्रीलंका, इंडोनेशिया, नेपाल और म्यांमार स्वास्थ्य सेवाओंपर भारतकी तुलनामें कहीं अधिक खर्च कर रहे हैं। ओईसीडी देशों और विकसित राष्टï्रों जैसे अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस या जापानसे भारतकी तो तुलना ही नहीं की जा सकती। डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित प्रत्येक एक हजार लोगोंके लिए एक डाक्टरके विपरीत भारतमें ११,५०० से अधिक लोगोंके लिए केवल एक सरकारी डाक्टर है। निजी क्षेत्रमें अधिक बेड और अधिक डाक्टर (कर्मचारी) हो सकते हैं परंतु सार्वजनिक स्वास्थ्यके प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है और भारतकी ज्यादातर आबादी इन स्वास्थ्य सेवाओंका लाभ लेनेके लिए भी आर्थिक रूपसे सक्षम नहीं है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओंके संबंधमें ग्रामीण-शहरी विभाजन बहुत महत्वपूर्ण है। उदाहरणके लिए ७३ फीसदी ‘पब्लिक हॉस्पिटल बेड्सÓ शहरी क्षेत्रोंमें विद्यमान हैं, जबकि भारतकी ६९ फीसदी जनसंख्या ग्रामीण इलाकोंमें निवास करती हैं। इस बातमें कोई दो राय नहीं है कि सरकारके सारे साधन-संसाधन झोंकनेके बाद भी १३८ करोड़की आबादीके हिसाबसे हमारे देशमें चिकित्सा प्रबंध बहुत ही नगण्य हैं। देशके बहुत बड़े हिस्सेमें चिकित्सा नामकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। गत दिवस प्रधान मन्त्रीने मनकी बातमें यह जानकारी दी कि कोरोनाकी दूसरी लहरमें आक्सीजनकी कमी देखते हुए अस्पतालोंमें प्रयुक्त होनेवाली आक्सीजनका उत्पादन दस गुना बढ़ा। निश्चित रूपसे यह संतोषका विषय है। कोरोना देखभाल केन्द्रोंकी शक्लमें साधारण संक्रमणवाले मरीजोंके इलाजकी भी काफी व्यवस्था सरकार और निजी सेवाभावी संस्थाओं द्वारा की गयी है। लेकिन यह सब होते-होते कोरोनाकी दूसरी लहर ढलानपर आ गयी और १ जूनसे देशके बड़े हिस्सेमें तालाबंदी वापस लेकर व्यापारिक संस्थान और कार्यालय कतिपय बंदिशोंके साथ खुलने जा रहे हैं। उद्देश्य व्यापार और उद्योगको गति देकर अर्थव्यवस्थाको संबल देना है।
कोरोनाकी दूसरी लहर जब उफानपर थी तब देशभरमें मरीजोंकी संख्यामें भारी इजाफा हुआ। लेकिन देशमें डाक्टरोंकी संख्या सीमित ही है, ऐसी स्थितिमें टेलीमेडिसिन ही एक कारगर उपाय बनकर सामने आयी। जिसे ग्रामीण स्तरतक ले जानेकी जरूरत है। पिछले दिनों ही भारत सरकारकी राष्टï्रीय टेलीमेडिसिन सेवा ई-संजीवनीने ३० लाखसे अधिक परामर्श उपलब्ध कराकर एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। मौजूदा समयमें, राष्टï्रीय टेलीमेडिसिन सेवा ३१ राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशोंमें संचालित है और प्रतिदिन देशके ३५ हजारसे भी अधिक मरीज स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करनेके लिए इस नवाचारी डिजिटल माध्यमका उपयोग कर रहे हैं। इसके लिए राष्टï्रीय स्तरपर ३१ हजारसे अधिक डाक्टरों और पैरामेडिक्सको प्रशिक्षित करके ई-संजीवनीमें शामिल किया गया है। ई-संजीवनीको शीघ्र और व्यापक तौरपर अपनाना यह दर्शाता है कि कोरोना कालमें रोगियोंको दूरसे ही प्रभावी ढंगसे प्रबंध किया जा सकता है। जिन रोगियोंको अत्यावश्यक चिकित्साकी जरूरत नहीं है, वह अधिकसे अधिक टेलीमेडिसिनका उपयोग कर रहे हैं और चिकित्साकी गुणवत्तासे समझौता किये बिना ही कोरोनासे संक्रमित होनेके जोखिमसे भी अपना बचाव कर पा रहे हैं। पिछले लाकडाउनके दौरान विश्व स्वास्थ्य संघटनने भी अधिकसे अधिक टेलीमेडिसिन माडलको अपनानेकी ही सलाह दी थी। कोरोना वायरस लम्बे समयतक बना रहेगा। ऐसेमें टेलीमेडिसिन कारगर साबित होगी।
चिकित्सा जगत इस बातको लेकर आशंकित है कि कोरोना अथवा इस जैसी दूसरी संक्रामक बीमारीका हमला भविष्यमें हो सकता है। ब्रिटेन और वियतनामसे जो खबरें आ रही हैं उनके अनुसार कोरोनासे मिलता-जुलता नया संक्रमण देखनेको मिला है। छोटे देशोंमें जनसंख्या कम होनेसे अस्पताल, चिकित्सक और दवाओंकी जरूरत भी कम होती है लेकिन भारत जैसे विशाल आबादीवाले देशकी जरूरत तो अमेरिका और यूरोपके अनेक बड़े देशोंको मिलाकर भी ज्यादा है। ऐसेमें केंद्र और राज्य सरकारोंको चाहिए कि वह कोरोनाकी दोनों लहरोंसे मिले सबकको भुलानेकी बजाय चिकित्सा तंत्रको इतना मजबूत करें जिससे किसीको अस्पतालमें बिस्तर और आक्सीजनके लिए भटकना न पड़े। इसके अलावा देशमें दवा उत्पादनके क्षेत्रमें भी बड़े सुधारकी जरूरत है। विकसित और समृद्ध राष्टï्र बननेके लिए आर्थिक विकासके साथ सार्वजनिक स्वास्थ्यको उच्च प्राथमिकता देना आवश्यक है। भारतको भी विकसित और समृद्ध राष्टï्र बननेके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओंपर न केवल सकल घरेलू उत्पादका बड़ा हिस्सा खर्च करनेकी आवश्यकता है, बल्कि दूरगामी नीति-निर्धारण करने और उनका पारदर्शिताके साथ उत्तरदायित्वपूर्ण क्रियान्वयन कर उनके सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।