डा. भरत झुनझुनवाला
हांगकांगमें लोकतंत्रकी हत्या, ऊईघुर मुसलमानोंपर अत्याचार एवं हांगकांगके मीडिया मुजल जैक माको हिरासतमें लिये जानेको लेकर चीनकी भत्र्सना की जा रही है। कहा जा रहा है कि चीन अंतरराष्ट्रीय कानूनोंके उल्लंघनमें अपनी जनताके मानवाधिकारोंका हनन कर रहा है। इस संदर्भमें १९४८ में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्रकी धाराओंपर पुनर्विचार करना चाहिए। घोषणापत्रकी धारा २९ में व्यक्तिके अधिकारोंको प्राथमिक बताया गया है यद्यपि यह भी कहा गया है कि व्यक्तिके अधिकारोंको समाजके हितमें सीमित किया जा सकता है। लेकिन प्राथमिकता व्यक्तिके अधिकारोंकी ही बनी रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति विशेष समाजके हितोंके विपरीत तबतक काम कर सकता है जबतक सरकार उसके अधिकारोंको सीमित न करें। जैसे छात्रोंको सिखाया जाय कि चोरी तबतक की जा सकती है जबतक पुलिस न पकड़े। यह न सिखाया जाय कि चोरी करना गलत है। इसी प्रकार घोषणापत्र कहता है कि व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितोंको तबतक बढ़ा सकता है जबतक समाज उसे न रोके। चाणक्यने कहा था कि व्यक्तिको परिवारके लिए, परिवारको गांवके लिए और गांवको देशके लिए त्याग देना चाहिए। मानवाधिकार घोषणापत्र इसके ठीक विपरीत है। व्यक्तिको प्राथमिक रखा गया है जबकि चाणक्यके अनुसार गांव और देशको प्राथमिक रखा जाना चाहिए। इसलिए इस धारापर पुनर्विचार करनेकी जरूरत है।
घोषणापत्रकी धारा २९-१ में कहा गया है कि व्यक्तिका समाजके प्रति दायित्व है लेकिन इस दायित्वका निर्वाह करना व्यक्तिके लिए अनिवार्य नहीं है। इसलिए व्यक्ति द्वारा समाजके प्रति अपने दायित्वका निर्वाह न भी किया जाय तो भी वह अपने व्यक्तिगत अधिकारोंकी मांग कर सकता है जैसा कि आतंकवादी करते हैं। इसका परिणाम यह है कि जो व्यक्ति समाजके विपरीत काम करते हैं उनके अधिकारोंकी रक्षा की जाती है और उनके समाजके विपरीत कार्योंको पर्देके पीछे छिपा दिया जाता है।
घोषणापत्रकी धारा २९-३ में कहा गया कि संयुक्त राष्ट्रीयके सिद्धांतोंके विरुद्ध कोई व्यक्ति कार्य नहीं करेगा। अब विचार कीजिये कि संयुक्त राष्ट्रके सिद्धांतोंमें एक प्रमुख सिद्धांत यह है कि सुरक्षा परिषदमें पांच स्थायी सदस्य होंगे जिनके पास वीटो पावर होगा। शेष दो सौ देशोंको नीचा दर्जा दिया गया है। इसलिए इस असमानताके विरुद्ध आवाज उठाना मानवाधिकार घोषणापत्रके विपरीत है। एक तरफ घोषणापत्र संपूर्ण विश्वके नागरिकोंके समान अधिकारकी बात करता है और वही घोषणापत्र दूसरी तरफ कुछ विशेष देशोंके विशेष अधिकारोंको सुरक्षित करता है और संपूर्ण विश्वको इस असमानताके प्रति आवाज उठानेसे भी मना करता है।
घोषणापत्रकी एक प्रमुख विसंगति आर्थिक असमानताको पुष्ट करनेकी है। धारा १३ में कहा गया कि किसी भी व्यक्तिको अपने देशकी सीमामें यात्राका अधिकार होगा। धारा २१-२ में कहा गया कि देशकी सीमाओंमें व्यक्तिको सार्वजनिक सुविधाओंके उपयोगका अधिकार होगा। धारा २२ में कहा गया कि हर व्यक्तिको देशकी सीमामें सामाजिक सुरक्षा जैसे रोटी, कपड़ा और मकानका अधिकार होगा। प्रश्न यह है यदि संपूर्ण विश्व एक ही है तो इन आर्थिक अधिकारोंको देशकी सीमामें क्यों बांध दिया गया। यानी राजनीतिक अधिकारोंमें संपूर्ण विश्व एक है। अमेरिका अथवा चीन मांग कर सकता है कि भारत द्वारा कश्मीरमें मानव अधिकारोंको बहाल किया जाय लेकिन भारतके नागरिकको चीनमें यात्रा करनेका अधिकार नहीं होगा, चीनमें सामाजिक सुरक्षाका अधिकार नहीं होगा इत्यादि। विषय महत्वपूर्ण है क्योंकि राजनीतिक अधिकारोंको अंतरराष्ट्रीय बनानेसे अमीर देशोंको गरीब देशोंमें दखल करनेका अवसर मिल जाता है जबकि आर्थिक अधिकारोंको सीमाके अंदर बांध देनेसे अमीर देश अपनी अमीरीको सुरक्षित रख सकते हैं।
इस पृष्ठभूमिमें हमें चीन द्वारा मानवाधिकारोंके हननको समझना चाहिए। चीनकी सरकार अपने नागरिकोंके प्रति उदार दिखती है। नागरिकोंके मानवाधिकारोंका हनन और जनहित वहां साथ चलता दीखता है। अमेरिकाके एडलमैन ट्रस्ट द्वारा २०१९ के एक अध्ययनमें पाया गया कि चीनके ९० प्रतिशत नागरिक अपनी सरकारमें विश्वास रखते हैं तुलनामें अमेरिकाके केवल ३९ प्रतिशत नागरिक अपनी सरकारमें विश्वास रखते हैं। हावर्ड यूनिवर्सिटीके ऐश सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंसने २०११ एवं २०१६ में चीनके नागरिकोंका सर्वेक्षण किया था और पाया गया कि २०११ में ६१ प्रतिशत लोग स्थानीय सरकारको जनताकी समस्याओंके प्रति संवेदनशील मानते थे, २०१६ में यह बढ़कर ७४ प्रतिशत हो गया। २०११ में ४५ प्रतिशत नागरिक मानते थे कि स्थानीय अधिकारी अमीरोंके लिए काम करते हैं, २०१६ में यह घटकर ४० प्रतिशत हो गया। २०११ में ३२ प्रतिशत लोग मानते थे कि स्थानीय अधिकारियों द्वारा नाजायज वसूली की जाती है, २०१६ में यह घटकर २३ प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ोंसे स्पष्ट है कि चीनकी जनता अपनी सरकारसे संतुष्ट तो है ही, बल्कि संतुष्टिका स्तर बढ़ रहा है। इसलिए यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता कि चीन अपनी जनताके मानव अधिकारोंका उल्लंघन कर रहा है क्योंकि किसी भी अधिकार या कानूनका अंतिम उद्देश्य जनताका सुख है। यदि चीनकी जनता अपनी सरकारके प्रति सकारात्मक एवं आशान्वित है तो चीनकी सरकार द्वारा अपनी जनताके मानव अधिकारोंके उल्लंघनपर हमें पुनर्विचार करना चाहिए। फिर भी यह सही है कि चीन द्वारा अपनी जनताके मानव अधिकारोंका हनन किया जा रहा है जैसा हांगकांगमें। लेकिन साथ ही चीन द्वारा अपनी जनताके सुखपर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसलिए हमें संभवत: मानवाधिकारोंको सरकारके चरित्रके आधारपर देखना चाहिए। जिन देशोंकी जनताको अपनी सरकारपर भरोसा नहीं है जैसे अमेरिकाकी जनताको उन देशोंमें मानवाधिकारोंको सख्तीसे लागू करना चाहिए। लेकिन जहां देशकी सरकार अपनी जनताके प्रति संवेदनशील है और उनके सुखका ध्यान रखती है वहां मानवाधिकारोंका उपयोग जनताके सुखके हननके लिए भी किया जा सकता है। अत: अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्रको मूलत: उन देशोंपर लागू किया जाना चाहिए जिनकी जनता अपनी सरकारके प्रति नकारात्मक है जैसे अमेरिकामें केवल ३९ प्रतिशत लोग अपनी सरकारपर विश्वास रखते हैं।