सम्पादकीय

चीनमें व्यवस्थाकी सफलताका रहस्य


डा. भरत झुनझुनवाला   

राजनीतिक एवं वाणिज्यिक स्वतंत्रताओंके बीचमें भेद करना संभव नहीं होगा। ऐसा संभव नही कि लोगोंको व्यापार करनेकी स्वतंत्रता दी जाय लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता न दी जाय। जैसे कम्युनिस्ट रूस एवं कम्युनिस्ट चीनमें राजनीतिक स्वतंत्रतापर प्रतिबंध होनेके साथ व्यपारिक गतिविधियां कमजोर पड़ गयी थीं और कम्युनिज्म ध्वस्त हो गया था। पूर्वका यह आकलन आज पूरी तरह असफल हुआ दीखता है। चीनने राजनीतिक प्रत्बंधके साथ व्यपारिक स्वतंत्रताका मेल बना लिया है। इसी क्रममें आज हांगकांगमें चीन विश्व समुदायकी परवाह किये बिना तानाशाहीको थोप रहा है। कई अध्ययन बताते हैं कि चीनके लोग लोकतांत्रिक देशोंकी तुलनामें ज्यादा प्रसन्न एवं संतुष्ट हैं। एडेलमैन ट्रस्ट द्वारा २०२० में प्रकाशित किये गये अध्ययनमें लोगोंसे पूछा गया कि उनका अपनी सरकारपर कितना विशवास है। सामने आया कि अमेरिकाके ३९ प्रतिशत लोगोंको, भारतके ८१ प्रतिशत लोगोंको और इनके सामने चीनके ९० प्रतिशत लोगोंको अपनी सरकारपर विश्वास है। दूसरा प्रश्न पूछा गया कि विश्वकी चालमें पीछे छूट जानेका कितना भय है। सामने आया कि भारतके ७३ प्रतिशत लोगोंको, अमेरिकाके ५५ प्रतिशत लोगोंको और चीनके ५९ प्रतिशत लोगोंको विश्वकी चालमें पीछे छूट जानेका भय था। इन दोनों आंकड़ोंसे स्पष्ट है कि चीनकी जनताको भारत और अमेरिकाकी तुलनामें अपनी सरकारपर ज्यादा विश्वास है। देशको नयी सदीकी जरूरतोंके अनुसार चलानेमें अमेरिका और चीन दोनोंसे ही हमसे आगे हैं। अत: हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि चीनमें कोई आंतरिक विघटनकी संभावना है। ध्यान देना चाहिए कि यह रिपोर्ट २०२० में प्रकाशित हुई है इसलिए भाजपाके कार्यकालकी यह स्थिति है।

दूसरे अध्ययनमें यह बात निकली कि चीनके लोगोंको अपनी सरकारपर विश्वासमें सुधार हो रहा है। हारवर्ड सेंटर फार डेमोक्रेटिक गवर्नेंसके एक अध्ययनमें २०११ एवं २०१६ के सर्वेक्षणोंका ब्यौरा दिया गया है। चीनके लोगोंसे पूछा गया कि उनकी दृष्टिमें उनकी नौकरशाही कितनी दयावान है। २०११ में ६१ प्रतिशत लोगोंने अपनी नौकरशाहीको दयावान माना तो २०१६ में ७४ प्रतिशत लोगोंने ऐसा माना। दूसरा सवाल पूछा गया कि नौकरशाहीको आम आदमीसे कितना सरोकार है। २०११ में ४४ प्रतिशत लोगोंने स्वीकार किया तो २०१६ में ५२ प्रतिशत लोगोंने। तीसरा सवाल पूछा गया कि नौकरशाही द्वारा अमीर लोगोंके हितको ही अधिक साधा जाता है क्या। २०११ में ४५ प्रतिशत लोगोंने ऐसा तो २०१६ में केवल ४० प्रतिशत लोगोंने। चौथा सवाल पूछा गया कि नौकरशाही द्वारा गैरकानूनी घूस अथवा वसूली की जाती है या नहीं। २०११ में प्रतिशत लोगों ३२ ने वसूली की जाती है कहा तो २०१६ में केवल २३ प्रतिशतने। इन आंकड़ोंसे स्पष्ट है कि चीनकी जनताका अपनी सरकारपर विश्वासमें सुधार हो रहा है। लोकतंत्रके आभावमें जनता आक्रोशसे उबल नहीं रही है। अत: भारत और अमेरिकाकी तुलनामें चीनके लोग अपनी सरकारसे ज्यादा प्रसन्न भी है और इसमें उत्तरोत्तर सुधार भी हो रहा है।

चीन कि इस उत्तम स्थितिका रहस्य उनकी नौकरशाही है। न्यूयार्क टाइम्सके एक लेखमें बताया गया है कि चीनमें नौकरशाहोंकी अंकके अनुसार पदोन्नति की जाती है। पूर्वमें यह देखा जाता था कि किसी नौकरशाहने अपने क्षेत्रमें आर्थिक विकासको कितना बढ़ाया। अब शी जिनपिंगने इन अंकोंमें सामजिक समरसता, पर्यावरणकी रक्षा, जनताकी सेवा और जन प्रसन्नताके अंक जोड़ दिये हैं। इन सब अंकोंके आधारपर ही किसी नौकरशाहकी पदोन्नति की जाती है। इस व्यवस्थाका प्रभाव है कि चीनकी नौकरशाही मूल रूपसे जनताके प्रति सौहार्द रखती है और वसूली कम करती है। यही कारण दिखता है कि चीनकी जनता पार्टीवादी व्यवस्थामें प्रसन्न है और आर्थिक विकास भी हो रहा है। उसे अपने लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक अधिकारोंकी जरूरत ही नहीं है क्योंकि लोकतान्त्रिक अधिकारोंकी जरूरत तब विशेषत: पड़ती है जब सरकार शोषक एवं आतताई हो जाय। जब सरकार मूल रूपसे जनसेवा कर रही हो तो लोगोंके लिए लोकतांत्रिक अधिकारकी मांग गौण हो जाती है। भारतमें लोकतांत्रिक अधिकारोंके बावजूद हम आर्थिक विकासमें पीछे हैं और हमारी जनता भी असंतुष्ट है। यह कड़वा सत्य है।

मूल बात है कि सरकार एवं नौकरशाही जनसेवा करे। लोकतंत्रमें व्यवस्था है कि यदि कोई सरकार एवं उसकी नौकरशाही जनसेवा नहीं करती है तो चार, पांच या छह वर्षों बाद बदल दिया जाता है। लेकिन इसमें पेंच यह है कि नयी सरकार भी उसी नौकरशाहीके आधारपर उसी प्रकारका जन-विरोधी व्यवहार करती है जैसा कि अपने देशमें देखा जाता है। यही कारण है कि एडेलमैन ट्रस्टके आंकड़ोंके अनुसार भारतके लोग अपनी सरकारपर चीनकी तुलनामें कम विश्वास रखते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि अपने देशमें एकाधिकार लागू होनेसे सब ठीक हो जायेगा। यदि लोकतंत्रको छोड़ कर एकाधिकारकी सरकार लागू की जाय तो दो परिस्थितियां बनती है। यदि एकाधिकारी सरकार जनसेवा करती है तो यह हर प्रकारसे सही बैठता है जैसा कि चीनमें देखा जाता है। लेकिन यदि एकाधिकारी सरकार जनविरोधी हो जाती है तब लोकतंत्र लाभप्रद और जरूरी दिखता है जैसा कि युगांडाके ईडी अमीन, फीलिपींसके मार्कोस आदि एकाधिकारी सरकारोंके समय देखा गया है। अत: लोकतंत्रकी जरूरत इसलिए है कि नौकरशाहीको जनहितकारी दिशामें मोड़ा जा सके। लेकिन लोकतंत्र गहरे जनविरोधी आचरणको रोकने मात्रमें सफल है। नौकरशाहीके जनविरोधी चरित्रको जनसेवामें बदलनेमें लोकतंत्र असफल है जैसा कि भारतमें देखा जाता है। इसलिए हमें हांगकांग आदिमें लोकतंत्रको लेकर चीनकी भत्र्सना करनेके स्थानपर अपनी नौकरशाहीके जनविरोधी चरित्र और चीनकी नौकरशाहीके जनहितकारी चरित्रपर चर्चा करनी चाहिए। यह सोचकर नहीं चलना चाहिए कि चीनमें लोकतंत्रके अभावमें वह देश पिछड़ जायगा।