सम्पादकीय

जनसंख्या नियंत्रणपर कारगर पहल जरूरी


अनूप भटनागर
केन्द्र सरकार भले ही देशवासियोंपर जबरन परिवार नियोजन थोपनेका विरोध कर रही है लेकिन देशकी तेजीसे बढ़ती आबादी और इस वजहसे घटते संसाधन सरकारको देर-सवेर जनसंख्या नियंत्रणके लिये प्रभावी कदम उठानेपर मजबूर कर देंगे। केन्द्र सरकारने हालमें सर्वोच्च न्यायालयको सूचित किया है कि परिवारमें बच्चोंकी संख्याके बारेमें पति-पत्नीको ही निर्णय लेना होगा और सरकार नागरिकोंको निश्चित संख्यामें ही संतानोत्पत्तिके लिए बाध्य नहीं करेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयने एक जनहित याचिकाके जवाबमें दाखिल हलफनामेमें कहा है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य राज्यके अधिकारका विषय है और लोगोंको स्वास्थ्य संबंधी परेशानियोंसे बचानेके लिए राज्य सरकारोंको इस क्षेत्रमें सुधारकी प्रक्रिया शुरू करनी होगी। जनसंख्या नियंत्रणके सवालपर केन्द्र सरकारका यह हलफनामा आपातकालके दौरान जबरन नसबंदीकी घटनाओंसे उत्पन्न स्थितिके मद्देनजर उसकी विवशता बयां कर रहा है।
सरकारका यह दृष्टिकोण पहली नजरमें तो बहुत मानवीय और सराहनीय लगता है लेकिन सवाल यह है कि यदि सरकार जनसंख्या नियंत्रणके लिए सकारात्मक और कारगर कदम नहीं उठायेगी तो देशमें बढ़ती आबादीपर नियंत्रण कैसे पाया जायेगा। सरकारके इस दृष्टिकोणसे संविधानमें प्रदत्त समानताके अधिकार और संसाधनोंके समान वितरणको लेकर एक नयी बहसका रास्ता खुल सकता है। देशमें पहलेसे ही सीमित प्राकृतिक संसाधनोंके तार्किक तरीकेसे वितरणको लेकर आवाजें उठ रही हैं। आनेवाले समयमें यह सवाल भी उठ सकता है कि जनसंख्या नियंत्रण नहीं होनेकी वजहसे सभी परिवारोंमें सरकारी योजनाओं और संसाधनोंका समान वितरण नहीं हो रहा है क्योंकि ज्यादा बच्चोंवाले परिवारोंको इनका अधिक लाभ मिल रहा है। कुछ समय पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंदने बढ़ती जनसंख्याकी वजहसे कोरोना महामारीके संक्रमणसे निबटनेमें आ रही दिक्कतोंका जिक्र किया था। राष्ट्रपतिका विचार था कि जनसंख्या वृद्धिपर अंकुश लगानेके लिए कारगर कदम उठानेकी आवश्यकता है और ऐसा नहीं होनेकी स्थितिमें हमारे देशमें कोरोना जैसी आपदाओंके भीषण परिणाम हो सकते हैं।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि बढ़ती आबादीका मुद्दा किसी समुदाय विशेषसे जुड़ी समस्या नहीं है। जनसंख्याकी स्थितिका यदि अध्ययन किया जाये तो पता चलेगा कि शिक्षित वर्ग, भले ही वह किसी भी समुदायका हो, लंबे समयसे सीमित परिवारके सिद्धांतका पालन करता आ रहा है लेकिन दुर्भाग्यसे जनसंख्या नियंत्रणका सवाल उठते ही राजनीतिक स्वार्थोंकी खातिर इसे सांप्रदायिक रंग देनेका प्रयास होने लगता है। केन्द्र सरकारका कहना कि यह पति-पत्नीपर निर्भर करता है, वास्तवमें जनसंख्या नियंत्रणके मामलेमें अपनी जिम्मेदारीसे भागनेका संकेत देते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देशमें सत्तरके दशकसे बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इसपर नियंत्रण पानेके इरादेसे ही हम दो हमारे दो और छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे कार्यक्रम शुरू किये गये थे लेकिन आपातकालके दौरान जबरन नसबंदीकी घटनाओंकी वजहसे इनके अपेक्षित नतीजे नहीं निकले।
फिर एक विचार यह आया कि जनसंख्या नियंत्रणके बारेमें जनताके बीच सकारात्मक संदेश पहुंचानेके लिए निर्वाचन प्रक्रियासे इसकी शुरुआत की जाय। अत: पंचायत स्तरके चुनावोंमें दो संतानोंका फार्मूला लागू किया गया। इस समय हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा सहित कई राज्योंमें पंचायत चुनावोंके लिए यह फार्मूला लागू है। इस फार्मूलेपर सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी मुहर लगा चुका है। यही नहीं, असम सरकारने अक्तूबर, २०१९ में एक नीतिगत निर्णय लिया कि असममें एक जनवरी, २०२१ से दोसे अधिक संतानवालोंको सरकारी नौकरियां नहीं दी जायेंगी।
१८वीं लोकसभाका गठन होनेपर सत्तारूढ़ गठबंधनकी ओरसे देशमें बढ़ती आबादीका मुद्दा उठाया गया था लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा। इसके बाद, राज्यसभामें कांग्रेसके सदस्य डा. अभिषेक मनु सिंघवीने जनसंख्या नियंत्रणके लिए एक निजी विधेयक पेश करनेकी घोषणा करके सबको चौंका दिया। इसमें दोसे अधिक संतानवाले दंपतिको संसद, विधान मंडल और पंचायत चुनाव लडऩे या इसमें निर्वाचनके अयोग्य बनानेका प्रस्ताव है। खैर, सर्वोच्च न्यायालयमें लंबित भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्यायकी जनहित याचिकापर देर सवेर फैसला आ जायेगा, उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार और राजनीतिक दल जनसंख्यापर नियंत्रणके लिए प्रभावी कदम उठानेमें सहयोग करेंगे।