सम्पादकीय

विपक्षके उकसावेसे उलझन


विकेश कुमार बडोला
यदि भारतकी राजनीतिके बारेमें बात करें तो ज्ञात होता है कि गत सात वर्षीय राजनीति और उससे पूर्वकी दशकोंकी राजनीतिमें भू-नभका अंतर है। गत सात वर्षमें भारतीय राजनीति अति परिशुद्धताके समयसे गुजरी है। जो सज्जन लोग राजनीतिके कलंकसे अति व्यथित होकर राजनीतिसे ही मुंह फेर चुके थे, वे भी गत सात वर्षीय राजनीतिके साथ नये सकारात्मक भावों-विचारोंसे जुड़ चुके हैं। मोदी शासनने राष्ट्रके सम्मुख सुशासनका विशाल उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनका नागरिक कल्याण आग्रह प्रशंसनीय है। वंचितों, शोषितों, पीडि़तों, उपेक्षितों और शासनकी मुख्यधारासे कटे हुए करोड़ों लोगोंको गौरवपूर्ण जीवनसे जोडऩेका जो कार्य मोदी शासनमें हुआ है, प्रामाणिकताके साथ सिद्ध है कि भारतमें ऐसे पहले कभी नहीं हुआ। मोदी सुशासनमें करोड़ोंकी संख्यामें लोग पुन: राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, संविधान, नियम-कानून और मानवीयताकी धारणाके साथ विश्वासपूर्वक जुड़े हैं। विस्तृत भूखण्ड और अति जनसंख्यावाले राष्ट्रमें ऐसे होना। घटना किसी चमत्कारसे कम नहीं है। जब दशकोंके कुशासनसे पूरा राष्ट्र ही व्यक्तियोंके रूपमें खण्डित-विखण्डित होकर अराजकता, भ्रष्टाचार, आतंक, लोकतंत्रके नामपर लूटकी दूकानमें बदल चुका था, चमत्कारसे भी ऊंची स्थिति है। भीतर ही भीतर अति गुप्त तरीकेसे अपने पाले-पोसे गये मीडियाको अपने खटकर्मोंके बारेमें चुप रखकर कांग्रेस द्वारा खोखले किये गये भारत देशकी स्थिति २०१४ में आर्थिक रूपमें दिवालिया होनेकी स्थिति थी। यदि शासन संभालते ही मोदी कांग्रेस द्वारा किये गये बैंक घोटालोंके बारेमें देशके सम्मुख यह सच कह देते कि भारतीय स्टेट बैंक सहित भारतके सभी बैंक दिवालिया होनेकी स्थितिमें हैं और खाताधारकोंका बैंकमें जमा रुपया वास्तवमें प्रतीकात्मक रुपया ही है तो भारतमें न चाहते हुए भी विकट गृहयुद्ध छिड़ जाता। लेकिन मोदी शासनने इस बातको देशके सम्मुख, लोगोंके सामने नहीं रखा। नवशासक चाहते तो कांग्रेसके इस काले-कारनामेका एक खुलासा करते ही गृहयुद्धमें बदलती देशकी परिस्थितियोंमें मनमर्जीका शासन चला सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने लोकतंत्रके विश्वासको सर्वप्रथम स्वयंके भीतर बैठाया। २०१४ से लेकर २०१७ तक बैंकोंकी स्थितिको संभाला। बैंकोंके एनपीए बोझको कम किया। बैंक घोटालोंके प्रत्यक्ष कर्ताधर्ताओं सहित उनके राजनीतिक और शासकीय-प्रशासकीय संरक्षकोंपर कानूनी नकेल डाली। इसी उद्देश्यसे नोटबंदी हुई। नोटबंदीसे होनेवाली संभावित आर्थिक हानिसे बचनेके लिए जीएसटी कानून लागू हुआ। नोटबंदी और जीएसटीका परिणाम यह रहा कि अब कोरोनाके उत्तरकालमें भी भारतकी अर्थव्यवस्था स्थिर बनी हुई है।
मोदी सुशासन द्वारा देशको राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूपसे क्षति पहुंचानेवाली लाखों अवैध कम्पनियोंको बंद किया गया। आतंकके लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करानेवाले कई गैर-सरकारी संघटनों यानी एनजीओपर ताले लटकवाये। अनेक पुराने बेकार कानूनोंको समाप्त किया गया। नये समय, नयी जीवन स्थितियोंके अनुसार लोकतंत्र एवं जनहितैषी नये कानून बनाये गये। आतंकके प्रायोजक, पालक और पोषक पाकिस्तान एवं उसके संरक्षक चीनको एकाधिक अवसरोंपर अपने विध्वंशजन्य निर्णयोंसे पीछे हटनेको विवश किया। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, इसरायल, सऊदी अरब और अनेक देशोंसे संबंधोंको गहन किया। सेना और किसानोंके लिए सर्वाधिक नीतियां, योजनाएं, परियोजनाएं और कार्य सम्पन्न किये गये। अंतरिक्ष, समुद्र, थल सीमाओं, आकाशमें भारतकी शक्तिसंपन्नता अनेक विकसित देशोंसे भी अधिक व्यापक हो चुकी है। स्वदेशी, आत्मनिर्भर भारत, स्थानीयताके लिए अभिरुचि अर्थात् स्वदेशी उत्पादोंके प्रति अधिसंख्य भारतीय नागरिकोंकी मनइच्छा बढ़ानेके अतिशय प्रयास हुए हैं। इनका क्रियात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर भी होने लगा है। चीनी मालकी बिक्री और खपत कम होने लगी है। स्वदेशी उत्पादोंकी बिक्री बढऩे लगी है। स्वदेशी उद्योग चमकने लगे हैं। बैंकोंको आम लोगोंके रोजगार, व्यापार, मुद्रा और अन्य पूंजीगत विनिमयके लिए सुकर-सरल बनाया गया है।
यहांतक कि गत एक वर्षारंभसे कोरोना महामारीसे ग्रस्त दुनियाकी ध्वस्त आर्थिक स्थितियोंमें भी भारतकी आर्थिकी इतनी बुरी स्थितिमें नहीं पहुंची कि हमें सहायताके लिए किसी दूसरे देशकी ओर देखना पड़े, बल्कि ऐसा पहली बार हुआ है कि वैश्विक आपदा कोरोना महामारीमें भारत १५० से अधिक देशोंके लिए औषधीय सहायताकर्ता देशके रूपमें प्रतिष्ठापित हुआ। अपने इस पराक्रमसे हमने विश्वमें अपनी स्थिति सशक्त की है। आज ऐसे देशोंकी संख्या अधिक है जो मोदी सुशासनसे कुछ न कुछ, कोई न कोई राजनीति-रीति सीख रहे हैं। अब भारत दूसरे देशोंसे सीखने-मांगनेकी स्थितिमें नहीं है। इतना कुछ होनेके बाद भी विपक्षके रूपमें देशज विरोधी सुशासनके विरोधमें खड़े हैं। विपक्ष को इस विरोधमें निश्चित रूपमें पाकिस्तान-चीन आदि देशोंका साथ भी मिल रहा है। किसान आंदोलनके रूपमें जो नवावरोध सुशासनके सामने खड़ा किया गया है, कितना दुखद है कि किसानोंकी आड़ लेकर किसानोंके नामपर खड़ा किया गया है।
आंदोलनकी समयावधि एक माहकी होनेवाली है परन्तु उनकी मांगोंके संबंधमें शासनके साथ समाधानजन्य वार्ता नहीं हो पा रही है तो इसका एकमात्र मूल कारण विरोधके लिए विरोधकी घृणित एवं देशविरोधी राजनीति ही है। इस राजनीतिमें मोदी विरोधी तमाम देशी-विदेशी नेता, शत्रु, लोग, आतंकवादी, नक्सली और मीडियाकर्मी खड़े हैं। इनकी मंशा किसी तरह मोदी सुशासनका विरोधी आधार तय करना और उस आधारपर हर चुनावमें मतोंका ध्रुवीकरण करना है। लेकिन सुशासनके पक्ष-समर्थकोंकी बड़ी जनसंख्याके सामने इनका विरोधजन्य हो-हल्ला अधिक समयतक नहीं टिक पायेगा। अब समय आ गया है, जब मोदी शासनको तथाकथित किसान आंदोलनके संबंधमें कठोर काररवाई करनी ही होगी। क्योंकि किसानगण आंदोलनके विषयगत संदर्भके प्रति उतने गंभीर नहीं दिखायी देते, जितने राजधानी दिल्लीकी चहुंदिश बंदी करके विरोधके लिए मोदी-विरोधमें आंदोलन-पिकनिक मनाते नजर आ रहे हैं। हठसे किंचित बात नहीं बनेगी या तो आंदोलनरत् कृषकगण कृषि कानूनोंके संबंधमें शासनके साथ समाधानकी दिशामें आगे बढ़ें अथवा आत्ममंथन करें कि क्या वास्तवमें उनके विरोधका कोयी भी राष्ट्रहितैषी औचित्य है अथवा नहीं। यदि वह इस संबंधमें निरंतर आत्ममंथन करेंगे और मोदी विरोधियोंके उकसावेमें नहीं आयेंगे तो निश्चित रूपमें उनकी उचित समस्याओंका यथोचित समाधान शीघ्र निकल आयेगा।