सम्पादकीय

परिवारोंपर आर्थिक बोझ


कोरोना संकट कालमें एक वर्षके दौरान देशमें परिवारोंकी आर्थिक स्थिति भी गम्भीर रूपसे प्रभावित हुई है। लोगोंपर कर्जका बोझ बढ़ा है, बचत घटी है और क्रयशक्ति भी कमजोर हुई है। भारतीय रिजर्व बैंककी ताजा रिपोर्टमें भारतीय परिवारोंकी आर्थिक स्थितिका जो चित्रण किया गया है, वह काफी चिन्ताजनक है। चालू वित्त वर्षकी दूसरी तिमाहीमें परिवारोंका कर्ज बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के ३७.१ प्रतिशतके स्तरपर पहुंच गया है। इसी दौरान परिवारोंकी बचत घटकर १०.४ प्रतिशतके निचले स्तरपर आ गयी है। कोरोना महामारीके कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गये हैं। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्यामें लोगोंके वेतनमें भी कटौती की गयी। परिवारका खर्च चलानेके लिए दो रास्ते अपनाये गये, एक ओर जहां बैंकोंमें जमा राशि निकाली गयी वहीं दूसरी ओर कर्जका भी सहारा लिया गया। आंकड़ोंके अनुसार दूसरी तिमाहीमें ऋण बाजारमें परिवारोंकी हिस्सेदारी १.३० प्रतिशत बढ़कर ५१.५ प्रतिशतपर पहुंच गयी। मार्चमें जारी बुलेटिनके अनुसार महामारीके प्रारम्भिक कालमें झुकाव बचतकी ओर था। इसके चलते बचत जीडीपीके २१ प्रतिशतके स्तरपर पहुंच गयी लेकिन दूसरी तिमाहीमें इसे काफी झटका लगा और यह १०.४ प्रतिशतपर रह गयी। यह स्थिति अत्यन्त ही गम्भीर है। रिजर्व बैंकका यह भी मानना है कि देशमें ऐसी स्थिति वर्ष २००८-०९ के वैश्विक वित्तीय संकटके दौरान देखनेको मिली थी। उस समय परिवारोंकी बचत जीडीपीके १.७० प्रतिशत बढ़ी थी। बादमें अर्थव्यवस्थामें सुधारके साथ ही बचत भी घटने लगी। परिवारोंकी आर्थिक स्थितिको बिगाडऩेमें महंगीकी विशेष भूमिका है। पेट्रोल-डीजलके अतिरिक्त दैनिक जीवनमें उपयोगमें आनेवाली आवश्यक वस्तुओंके बढ़ते मूल्यसे परिवारोंका बजट असन्तुलित हो गया। परिवारोंकी आर्थिक स्थितिमें अभी सुधारके लक्षण नहीं दिख रहे हैं, जबकि देशकी आर्थिक स्थिति पटरीपर आने लगी है। परिवारोंकी कमजोर आर्थिक स्थितिका देशकी अर्थव्यवस्थापर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। क्रयशक्ति कमजोर होनेसे मांग नहीं बढ़ रही है जिसका दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए परिवारोंकी आर्थिक बेहतरीके लिए विशेष प्रयास करनेकी जरूरत है। जबतक परिवारोंपर कर्जका बोझ रहेगी तबतक बाजारमें मांग नहीं बढ़ेगी। परिवारोंकी बिगड़ती आर्थिक स्थिति देशकी अर्थव्यवस्थाके लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तनका विषय है। इस दिशामें अर्थशास्त्रियोंको भी गम्भीरतासे सोचने और रणनीति बनानेकी आवश्यकता है।

जलसंरक्षण जरूरी

जल ही जीवन है, बावजूद इसके संरक्षणके प्रति लोगोंमें जितनी संकीर्णता है उससे कहीं अधिक इसके बर्बादीके प्रति उदारता दिख रही है। विश्व जल दिवसपर हर साल जल संरक्षणकी बात होती है लेकिन जमीनी हकीकत जो बयां कर रही है वह आनेवाले समयकी बहुत भयावह तस्वीर है। मानवीय आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए जिस तरह निरन्तर भूगर्भ जलका दोहन किया जा रहा है उससे पृथ्वीके जीवधारियोंके अस्तित्वपर ही संकट मंडराने लगा है। भूगर्भ विभागके अनुसार सालमें तकरीबन एक मीटर पानी पातालकी ओर जा रहा है, जो गम्भीर चिन्ताकी बात है। भारतीय केन्द्रीय जल आयोगके जारी आंकड़े चौंकानेवाले हैं। देशके बड़े-बड़े जलाशयोंका जलस्तर तेजीसे घट रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो २०२५ तक भारत जल-संकटवाला देश बन जायगा। लोग बूंद-बूंद पानीके लिए तरस जायंगे। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश और उत्तराखण्ड समेत देशके लगभग सभी हिस्सोंमें लगातार गिरता भूगर्भ जलस्तर दैवी आपदाका संकेत है। उत्तराखण्डके हलद्वानीकी लाइफ लाइन गौला नदीका जलस्तर अंधाधुंध खननसे रसातलसे नीचे पहुंच चुका है। नदीके घटे जलस्तरने १२ सालोंका रिकार्ड तोड़ दिया है। भूगर्भ जल दोहनके कई कारण हैं जिनका समाधान सरकारकी प्राथमिकता होनी चाहिए। शहरी क्षेत्रोंमें जहां कल-कारखानोंकी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए भूगर्भ जलका अति दोहन किया जा रहा है वहीं दूषित पेय जलकी आपूर्तिके कारण पानीके अवैध कारोबारको बढ़ावा मिला है। ग्रामीण क्षेत्रोंमें नहरोंके अभावमें भूगर्भ जलसे ही सिंचाई की जा रही है। केन्द्र और राज्य सरकारोंको इस दिशामें ठोस और सकारात्मक कदम उठानेकी जरूरत है। नदियों, तालाबोंपर अतिक्रमणकी बढ़ती प्रवृत्तिने जल संरक्षणको प्रभावित किया है। इसपर रोक लगानेकी जरूरत है। जल संरक्षणके प्रति जागरूकता पैदा करनेके लिए जनान्दोलन चलानेकी जरूरत है। जलकी बर्बादी रोकी जानी चाहिए। रेनवाटर हार्वेस्टिंगकी व्यवस्था समयकी मांग है। जीवनको सुरक्षित रखनेके लिए जलको सुरक्षित रखना आवश्यक है।