सम्पादकीय

कार्बन उत्सर्जनपर रोकथाम जरूरी


अरविंद जयतिलक

जहां एक ओर दुनियाके अधिकांश देश कार्बन उत्सर्जनमें कमी लानेमें कोताही बरत रहे हैं वहीं भारत पहले ही कार्बन उत्सर्जनमें ३५ फीसदी कमी लानेका संकल्प जता चुका है। इस सम्मेलनकी अच्छी बात यह रही कि अमेरिकाने भी २०३० तक ग्रीनहाउस उत्सर्जनमें ५० फीसदीकी कटौतीका ऐलान किया है। भारत और अमेरिकाने पेरिस समझौतेके लक्ष्योंको पूरा करनेके लिए एक नया उच्चस्तरीय यूएस-इंडिया क्लाइमेट एंड ग्रीन एनर्जी एजेंडा २०३० साझेदारी शुरू की है। भारतने २०३० तक ४५० गीगावॉट अक्षय ऊर्जाका लक्ष्य हासिल करनेका महत्वकांक्षी लक्ष्य रख दुनियाके सामने मानक तय कर दिया है। गौरतलब है कि इस डिजिटल सम्मेलनमें ४० देशोंके राष्ट्राध्यक्षोंने हिस्सा लिया और इस बातपर सहमति बनी कि जलवायु परिवर्तनकी चुनौतीसे निबटनेके लिए सभी देश मिलकर काम करेंगे। दिलचस्प होगा कि यह सम्मेलन अपने लक्ष्योंकी कसौटीपर कितना खरा उतरता है। यह आशंका इसलिए कि गत वर्ष मेड्रिडमें संपन्न जलवायुके मुद्देपर चली मैराथन वार्ता बेनतीजा रही।

कार्बन उत्सर्जनपर कोई समझौता हुए बिना ही वार्ता समाप्त हो गयी। जबकि इस सम्मेलनमें दो सौ देशोंके प्रतिनिधियोंने हरसंभव प्रयास किया कि २०१५ के पेरिस समझौतेकी शर्तोंको मूर्त रूप देकर कार्बन उत्सर्जनमें कटौतीके महत्वाकांक्षी लक्ष्यको साध लिया जाय। लेकिन बात नहीं बनी। वैज्ञानिकोंकी मानें तो इस वर्ष कार्बन डाईऑक्साइडके उत्सर्जनमें और अधिक तेजी आनेकी उम्मीद है। इसकी बड़ी वजह एशिया और विशेष रूपसे चीनमें कोयलेका भारी इस्तेमाल माना जा रहा है। हालमें अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी यानी आईईईएने अपनी रिपोर्टमें २०२१ में ऊर्जा खपतमें १.५ अरब टन कार्बन उत्सर्जनका अनुमान जताया है। यदि सरकारें तेजीसे कार्बन उत्सर्जनमें कटौती नहीं करेंगी तो २०२२ में हमें ज्यादा खराब स्थितिका सामना करना पड़ सकता है। आंकड़ेंके मुताबिक अबतक वायुमण्डलमें ३६ लाख टन कार्बन डाइ आक्साइडकी वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डलसे २४ लाख टन आक्सीजन समाप्त हो चुकी है। यदि यही स्थिति रही तो २०५० तक पृथ्वीके तापक्रममें लगभग चार डिग्री सेल्सियसकी वृद्धि तय है। वैज्ञानिकोंकी मानें तो बढ़ते तापमानके लिए मुख्यत: ग्लोबल वार्मिंग है और इससे निबटनेकी त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आनेवाले वर्षोंमें धरतीका खौलते कुंडमें परिवर्तित होना तय है। अमेरिकी वैज्ञानिकोंकी मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालोंमें अपने उच्चतम स्तरपर है। औद्योगीकरणकी शुरुआतसे लेकर अबतक तापमानमें १.२५ डिग्री सेल्सियसकी वृद्धि हो चुकी है। आंकड़ोंके मुताबिक ४५ वर्षोंसे हर दशकमें तापमानमें ०.१८ डिग्री सेल्सियसका इजाफा हुआ है। आईपीसीसीके आकलनके मुताबिक २१वीं सदीमें पृथ्वीके सतहके औसत तापमानमें १.१ से २.९ डिग्री सेल्सियसकी वृद्धि होनेकी आशंका है। अमेरिकी वैज्ञानिकोंने वायुमें मौजूद आक्सीजन और कार्बन डाई आक्साइडके अनुपातपर एक शोधमें पाया है कि बढ़ते तापमानके कारण वातावरणसे आक्सीजनकी मात्रा तेजीसे कम हो रही है।

पिछले आठ सालोंमें वातारवरणसे आक्सीजन काफी रफ्तारसे घटी है। वैज्ञानिकोंका कहना है कि पृथ्वीका तापमान जिस तेजीसे बढ़ रहा है उसपर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदीमें तापमान ६० डिग्री सेल्सियसतक पहुंच सकता है। वैज्ञानिकोंके मुताबिक यदि पृथ्वीके तापमानमें मात्र ३.६ डिग्री सेल्सियसतक वृद्धि होती है तो आर्कटिकके साथ अण्टाकर्टिकाके विशाल हिमखण्ड पिघल जायेंगे। देखा भी जा रहा है कि बढ़ते तापमानके कारण उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रवकी बर्फ चिंताजनक रूपसे पिघल रही है। वर्ष २००७ की इंटरगवर्नमेंटल पैनलकी रिपोर्टके मुताबिक बढ़ते तापमानके कारण दुनियाभरके करीब ३० पर्वतीय ग्लेशियरोंकी मोटाई अब आधे मीटरसे कम रह गयी है। हिमालय क्षेत्रमें पिछले पांच दशकोंमें माउंट एवरेस्टके ग्लेशियर दोसे पांच किलोमीटर सिकुड़ गये हैं। ७६ फीसदी ग्लेशियर चिंताजनक गतिसे सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपालके बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजीसे सिकुड़ रहा है। अनुमानित भूमंडलीय तापनसे जीवोंका भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है। कई जातियां धीरे-धीरे धु्रवीय दिशा या उच्च पर्वतोंकी ओर विस्थापित हो जायंगी। जातियोंके वितरणमें इन परिवर्तनोंका जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादिपर गहरा असर पड़ेगा। पर्यावरणविदोंकी मानें तो बढ़ते तापमानके लिए मुख्यत: ग्रीन हाउस गैस, वनोंकी कटाई और जीवाश्म ईंधनका दहन है। तापमानमें कमी तभी आयगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जनमें कमी होगी। कार्बन उत्सर्जनके लिए सर्वाधिक रूपसे कोयला जिम्मेदार है। हालांकि ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्टकी रिपोर्टपर गौर करें तो अमेरिकाने कोयलेपर अपनी निर्भरता काफी कम कर दी है। इसके स्थानपर वह तेल और गैसका इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन भारतकी बात करें तो उसकी कुल आबादीका एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयलेपर निर्भर है। अच्छी बात यह है कि भारतने गत वर्ष पहले पेरिस जलवायु समझौतेको अंगीकार करनेके बाद क्योटो प्रोटाकालके दूसरे लक्ष्यको अंगीकार करनेकी मंजूरी दे दी है। इसके तहत देशोंको १९९० की तुलनामें ग्रीन हाउस गैसोंके उत्सर्जनको १८ फीसदीतक घटाना होगा। माना जा रहा है कि भारतके इस कदमसे अन्य देश भी इसे अंगीकार करनेके लिए आगे आयेंगे। पेरिस जलवायु समझौतेपर भी भारतने दुनियाको राह दिखायी। उल्लेखनीय है कि २०२० से कार्बन उत्सर्जनको घटाने संबंधित प्रयास शुरू करनेके लिए दिसंबर, २०१५ को यह संधि हुई। इस संधिपर १९२ देशोंने हस्ताक्षर किये। १२६ देश इसे अंगीकार कर चुके हैं। भारतने २ अक्तूबर, २०१६ को इसे अंगीकार करके अन्य देशोंको भी अंगीकार करनेकी राह दिखायी। फिर कुछ अन्य देशों द्वारा इसे अंगीकार किये जानेपर ४ नवंबर, २०१६ को यह प्रभावी हुआ। इसके तहत बढ़ते वैश्विक औसत तापमानको दो डिग्री सेल्सियसपर ही रोकनेका लक्ष्य तय है।

पृथ्वीके तापमानको स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जनके प्रभावको कम करनेके लिए कंक्रीटके जंगलका विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहनपर लगाम कसना होगा। जंगल और वृक्षोंका दायरा बढ़ाना होगा। पेड़ और हरियाली ही धरतीपर जीवनके मूलाधार हैं। वनोंको धरतीका फेफड़ा कहा जाता है। वृक्षों और जंगलोंका विस्तार होनेसे धरतीके तापमानमें कमी आयगी। लेकिन विडंबना है कि वृक्षों और जंगलोंका ध्यान नहीं रखा जा रहा है। संयुक्त राष्ट्रकी ‘ग्लोबल फॅारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंटÓ (जीएफआरए) की रिपोर्टमें कहा गया है कि १९९० से २०१५ के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसदी घटा है और १०२,००० लाख एकड़से अधिकका क्षेत्र ९८,८१० लाख एकड़तक सिमट गया है। यानी ३,१९० लाख एकड़ वनक्षेत्रमें कमी आयी है। यह क्षेत्र दक्षिण अफ्रीकाके आकारके बराबर है। रिपोर्टमें कहा गया है कि प्राकृतिक वन क्षेत्रमें कुल वैश्विक क्षेत्रकी दोगुनी अर्थात छह फीसदीकी कमी आयी है। वनोंके विनाशसे वातावरण जहरीला हुआ है और प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइ आक्साइड वायुमण्डलमें घुल-मिल रहा है। बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय बढ़ते तापमानसे निबटनेके लिए कार्बन डाईआक्साइडके उत्सर्जनपर नियंत्रण लगायें।