सम्पादकीय

जम्मू-कश्मीरमें आतंकका नया रूप


डा. दीपकुमार शुक्ल    

जम्मूके एयरफोर्स स्टेशनपर ड्रोन द्वारा हुए हमलेसे आतंकवादका एक नया रूप सामने आया है। उसके अगले दिन सेनाके कैम्पपर भी ड्रोनसे हमला करनेकी नाकाम कोशिश हुई। आगे भी ऐसे ही हमलोंकी आशंका व्यक्त की जा रही है। विशेषज्ञोंके अनुसार इन वारदातोंको सीमा पारसे नहीं, बल्कि घटनास्थलके आसपाससे ही अंजाम दिया गया है। क्योंकि सीमा पारसे इतनी लम्बी दूरीतक ड्रोन भेजना सम्भव नहीं है। इसका सीधा अर्थ है कि जम्मू-कश्मीरके अन्दर आतंकवादियोंको प्रश्रय देनेवाले पहलेकी ही तरह सक्रिय हैं। जम्मू और कश्मीर ५ अगस्त २०१९ तक भारतका एक राज्य था, जो अब जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख दो केन्द्रशासित प्रदेशोंके रूपमें परिवर्तित हो चुका है। आजादीसे पूर्व यह जम्मू-कश्मीर नामकी रियासत थी, जिसके अन्तिम राजा हरी सिंह थे। हिमालय पर्वतके सबसे ऊंचे हिस्सेमें बसा यह राज्य अपनी विशिष्ट संस्कृति, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं संसाधनोंके लिए जाना जाता है। कश्मीरी इतिहासकार कल्हण द्वारा सन्ï ११४८ से ११५० के मध्य संस्कृत भाषामें रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ राजतरंगिणीके अनुसार प्राचीन कालमें कश्मीर नामकी यहां एक विशाल झील थी। जिसे कश्यप ऋषिने बारामूलाकी निकटवर्ती पहाडिय़ोंको काटकर बनाया था।

इसी कारण कश्मीरका पूर्ववर्ती नाम कश्यपमेरु था। भूगर्भवेत्ताओंके अनुसार भूगर्भीय परिवर्तनके कारण उक्त झीलका सारा पानी बह गया और कश्मीर घाटी अस्तित्वमें आ गयी। इस क्षेत्रमें किसी समय नागा, खासा, गान्धारी तथा द्रादी जातिके लोग निवास करते थे। कश्मीरको खासा जातिसे भी जोड़कर देखा जाता है। खासासे खसमीर और फिर कश्मीर। राजतरंगिणीमें आठ तरंग (अध्याय) और ७८२६ श्लोक हैं। राजतरंगिणीका शाब्दिक अर्थ राजाओंकी नदी बताया गया है। जिसका भवार्थ राजाओंका इतिहास या समयका प्रवाह होता है। इस ग्रन्थके प्रथम तरंगमें बताया गया कि पांडु पुत्र सहदेवने सर्वप्रथम कश्मीरमें राज्यकी स्थापना की थी। तबसे लेकर २७३ ईसा पूर्वतक यहां विशुद्ध रूपसे वैदिक धर्म स्थापित रहा। उसके बाद बौद्ध धर्मका आगमन हुआ। कवि कल्हणने राजतरंगिणीमें महाभारत कालसे लेकर अपने समकालीन राजा जय सिंहतक राजाओंका क्रमबद्ध वर्णन किया है। जय सिंहसे आगेकी पीढ़ीमें सहदेव सिंह कश्मीरके राजा बने। सहदेव सिंहके बाद उनके सेनापति रामचन्द्रको और फिर रामचन्द्रकी बेटी कोटा रानीको कश्मीरकी गद्दीपर प्रतिष्ठित किया गया था। सन्ï १३४४ में कोटा रानीकी मृत्युके बाद १५८९ तक यह राज्य सुल्तानोंके और फिर अकबरके अधीन रहा। मुगल साम्राज्यके कमजोर होते ही सन्ï १७५६ में पठानोंने कश्मीरपर अधिकार कर लिया। वर्ष १८१४ में पंजाबके शासक महाराजा रणजीत सिंहने पठानोंको पराजित करके कश्मीरको अपने राज्यमें मिला लिया। उसके पूर्व वह जम्मूके राजा रंजीत देवकी सत्तापर भी कब्जा जमा चुके थे। सन्ï १८४६ में अंग्रेजोंने सिखोंको पराजित करके इस क्षेत्रको अपने अधीन कर लिया। इस बीच महाराजा रणजीत सिंहने जम्मूकी सत्ता गुलाब सिंहको सौंप दी थी। गुलाब सिंह जम्मूके राजपरिवारसे सम्बन्धित थे और एक समय महाराजा रणजीत सिंहकी सेनामें पैदल सैनिकके रूपमें भर्ती हुए थे। अपने शौर्य एवं रण कौशलके बलपर वह रणजीत सिंहके विशेष कृपापात्र बन गये थे। जम्मूके पूर्व राजा रंजीत देव तथा अंग्रेजोंने भी गुलाब सिंहको जम्मूका राजा मान लिया था। गुलाब सिंहने बादमें ७५ लाख नानकशाही रुपयेमें अंग्रेजोंसे कश्मीर घाटी खरीदकर जम्मू-कश्मीर राज्यकी स्थापना की। इसीलिए डोंगरा राजवंशीय महाराजा गुलाब सिंह जम्मू-कश्मीर रियासतके संस्थापक तथा प्रथम नरेश माने जाते हैं। सन्ï १८५७ में महाराजा गुलाब सिंहकी मृत्युके बाद उनके पुत्र रणबीर सिंह जम्मू-कश्मीरके राजा बने। तबसे अगले नब्बे वर्षोंतक यहां शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध शासन व्यवस्था रही। रणवीर सिंहके बाद उनके पुत्र प्रताप सिंहने कश्मीरकी गद्दी सम्भाली थी। सन्ï १९२५ में प्रताप सिंहके मरणोपरान्त उनके भाई राजा अमर सिंहके पुत्र हरी सिंहको कश्मीरका राज्य प्राप्त हुआ।

सन्ï १९४७ में जब धार्मिक आधारपर भारतका बंटवारा हुआ तब जाति और सम्प्रदायके हिसाबसे इस अति विविध जनसंख्यावाले क्षेत्रके सम्मिलनमें अनिर्णयकी स्थितिको देखते हुए महाराजा हरी सिंहने स्वतन्त्र रहनेका निर्णय लिया। उस समय शेख अब्दुल्लाके नेतृत्ववाली मुस्लिम कांफ्रेंस कश्मीरमें एक बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही थी। इससे जुड़े ज्यादातर मुसलमान तथा कश्मीरी पण्डित भारतकी धर्मनिरपेक्ष विचारधारासे प्रभावित होकर जम्मू-कश्मीरका भारतमें विलय चाहते थे। जो पाकिस्तानको पसन्द नहीं था। गिलगित और बल्तिस्तानके कुछ मुस्लिम कबीले पाकिस्तानके बहकावेमें आकर राजा हरी सिंहके निर्णय तथा जम्मू-कश्मीरके भारतमें विलय दोनोंके खिलाफ हो गये। पाकिस्तानने कबाइलियोंके साथ अपनी छद्म सेना भेजकर कश्मीरपर आक्रमण करवा दिया। तब प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरूने मुहम्मद अली जिन्नासे इस विवादको जनमत संग्रहसे सुलझानेकी पेशकश की, जिसे जिन्नाने सिरेसे खारिज कर दिया। उसकी छद्म सेना कत्लेआम करते हुए कश्मीरपर कब्जा करनेके लिए निरन्तर आगे बढ़ रही थी। महाराजा हरी सिंह इस आक्रमणको रोकनेमें कतई सक्षम नहीं थे। अन्तत: उन्होंने शेख अब्दुल्लाके सहयोगसे कुछ शर्तोंके साथ २६ अक्तूबर, १९४७ को भारतके साथ विलय-पत्रपर हस्ताक्षर कर दिया। अब जम्मू-कश्मीर भारतका अविभाज्य अंग बन चुका था। भारतकी सेनाने कश्मीर पहुंचकर पाकिस्तानियोंको वहांसे खदेड़ा तो परन्तु पूरा कश्मीर खाली नहीं करा पायी, क्योंकि तबतक पाकिस्तान खुलकर सामने आ चुका था और दोनों देशोंके बीच युद्ध शुरू हो गया। युद्धविरामकी घोषणा होनेतक कश्मीरके एक बड़े भू-भागपर पाकिस्तानका कब्जा हो चुका था। जो आजतक बरकरार है। विलय-पत्रके अनुसार उसे यह कब्जा न छोडऩा पड़े, इसलिए वह कश्मीरी युवकोंको आजादीका सपना दिखाते हुए आतंककी राहपर सदैव ढकेलता रहता है। आतंकवादसे परेशान होकर चार लाखसे भी अधिक कश्मीरी पण्डित अपना घर छोड़कर पिछले तीन दशकसे अपने ही देशमें शरणार्थियोंका जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस उम्मीदके साथ कि एक न एक दिन जम्मू-कश्मीरके दिन अवश्य बहुरेंगे।