सम्पादकीय

 नेपालमें गहराता राजनीतिक संकट


विजयनारायण 

नेपालमें लोकतंत्र और राजनीतिके बिखरावका संकट आज और भी गम्भीर हो गया है। कल क्या होगा कहा नहीं जा सकता। नेपालका हर सजग और सचेत नागरिक इस स्थितिसे बेचैनी महसूस कर रहा है। मीडिया लोकतन्त्रको बचानेका अभियान चला रहा है किन्तु सरकार है कि न सुधरनेका नाम ले रही है और न राजनीतिक दलोंमें बिखरावको रोकनेकी प्रक्रिया ही शुरू कर रही है। विगत तीस वर्षोंमें नेपालमें कई सरकारें बनीं, स्पष्टï बहुमतवाली और गठबन्धनवाली भी। फिर गठबन्धन टूटते रहे, नये गठबन्धन बनते रहे। लेकिन विभिन्न दलोंके नेताओंके बीचके आपसी रिश्ते बने रहे उनमें बातचीत चलती रही और वह नेपालमें आये राजनीतिक संकटका समाधान निकाल लेते रहे। इस बार विभिन्न राजनीतिक दलोंके नेताओंके बीचके रिश्ते भी खराब हुए हैं और उनमें अविश्वास भी बढ़ा है।

इस बारके राजनीतिक संकटको बढ़ानेमें नेपालकी राष्टï्रपति श्रीमती विद्या भण्डारीने अहम भूमिका निभायी है। श्रीमती विद्या भण्डारीको न केवल निष्पक्ष होना चाहिए था वरन्ï नेपालके संविधानके अनुरूप उन्हें निर्णय करना चाहिए था और अपने पदकी मर्यादाको निभाते हुए निष्पक्ष बने रहना चाहिए था। जब नेपालमें के.पी. शर्मा ओलीकी सरकार अल्पमतमें आ गयी और वह विश्वास मतमें हार गयी तो उन्हें दूसरी सरकार बनानेका मौका देना चाहिए था। नेपालके संविधानके अनुसार जैसे ही संसदमें सरकार विश्वास मत खो देती है, वैसे ही वह शून्य यानी समाप्त मान ली जाती है। लेकिन इस बीच प्रधान मंत्री ओलीने बहुमतके समर्थनके दावेके आधारपर ओलीको पुन: प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया। प्रधान मंत्री ओलीने जिन विधायकोंकी सूची दी थी उसपर विधायकोंके हस्ताक्षर नहीं थे। राष्टï्रपतिको इन विधायकोंके समर्थनकी पुष्टिï स्वयं बुलाकर करनी चाहिए थी। उन्होंने यह भी नहीं किया।

नेपालमें ऐसा झूठा समर्थन पत्र इसके पूर्व किसी भी दलके किसी भी नेताने सरकार बनानेके लिए पेश नहीं किया था। इस घटनाके कुछ ही दिन बार नेपाली कांग्रेसके नेता शेर बहादुर देडबाने प्रचंडके नेतृत्ववाली कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादी जनता पार्टीके सांसदोंके समर्थनसे राष्टï्रपति श्रीमती विद्या भण्डारीके समक्ष प्रस्तुत कर दिया। देडबाने जिन सांसदोंके समर्थनका दावा किया था, उनके हस्ताक्षर भी सौंपे थे। राष्टï्रपतिको या तो इन हस्ताक्षरोंकी पुष्टिï करानी चाहिए थी या संसदमें बहुमतकी परीक्षा करा लेनी चाहिए थी, किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। राष्टï्रपति विद्या भण्डारीने विभिन्न राजनीतिक दलोंके नेताओंसे परामर्श किये बिना संसदको भंग कर दिया और सितम्बरमें चुनावकी तारीख घोषित कर दी। नेपाली राष्टï्र, लोकतंत्र और राजनीतिके लिए यह बड़े संकटकी स्थिति थी। ऐसी सम्भावना थी कि नेपालके राजनीतिक दल संयुक्त रूपसे लोकतंत्र और संविधानकी बहालीके लिए संघर्ष करेंगे और सड़कोंपर उतरेंगे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। कुछ व्यक्तियोंने राष्टï्रपतिकी इस काररवाईको चुनौती दी तो सीधे सर्वोच्च न्यायालयमें प्रतिवेदन प्रस्तुत कर नेपालको सुप्रमी कोर्टने एक संविधान पीठका गठन किया है, जो राष्टï्रपतिके सभी आदेशोंकी, जिसमें संसद भंग करनेका आदेश भी सम्मिलित है। वैधताको चुनौतीदी है।

इस बीच एक संकट नेपालके सुप्रीम कोर्टमें भी आ खड़ा हुआ। सुप्रीम कोर्टके मुख्य न्यायाधीशकी राय थी कि पांच वरिष्ठï जजोंकी संविधान पीठे मामलेकी सुनवाई करे वैसे औपचारिक रूपसे उन्होंने पीठका गठन नहीं किया था। इस बीच न्यायाधीशोंमें आपसी विवाद हो गया। कुछ न्यायाधीशोंने दो न्यायाधीशोंसे मांग की कि वह पीठसे अलग हट जायं। जैसा कि चर्चा थी कि जिन न्यायाधीशोंसे पीठसे हटनेकाक हा जा रहा था वह प्रधान मंत्री एवं सरकारी पक्षके लोगोंके सम्बन्धी या नजदीकी थे। जब ऐसे न्यायाधीश नहीं हटे तो मांग करनेवाले दो न्यायाधीश स्वयं ही पीठसे हट गये। इस स्थितिने सुप्रीम कोर्टके सामने गम्भीर संकट उत्पन्न कर दिया है और मुख्य न्यायाधीश इस संकटका हल निकालनेमें लगे हैं। किसी भी देशका राजनीतिक संकट यदि न्यायपालिकाको भी अपने संकटमें ले लेता है तो संकट लोकतंत्रका हो, संविधानका हो या संकट राजनीतिक हो स्थिति बड़ी विकट हो जाती है।

इस संकटके दौरमें नेपालके प्रधान मंत्री के.पी. शर्मा ओलीने सुप्रीम कोर्टके अन्तिम निर्णयकी प्रतीक्षा किये बिना अपने मंत्रिमण्डलका विस्तार कर दिया और नये मंत्रियोंको शपथ दिला दी, इनमें कुछ मंत्री समाजवादी जनता पार्टीसे सम्बन्धित थे। मंत्रिमण्डलके इस विस्तारको सर्वोच्च न्यायालयमें चुनौती दी गयी और सर्वोच्च न्यायालयने नये मंत्रियोंकी नियुक्तिको असंवैधानिक और अवैध घोषित कर दिया। इन मंत्रियोंने इस्तीफा भी दे दिया। ओली लगातार ऐसे फैसले कर रहे हैं, जिससे न केवल उनकी स्थिति खराब हो रही है। वरन्ï राष्टï्रपतिकी भी स्थिति खराब हो रही है। राजनीतिक विश्लेषकोंका ऐसा मानना है कि नेपालके राष्टï्रपति एवं प्रधान मंत्रीके बीच गहरी सांठ-गांठ है। इस सांठ-गांठको चीनका खुला समर्थन प्राप्त है। राष्टï्रपति विद्या भण्डारी और प्रधान मंत्री के.पी. शर्मा ओली दोनों ही कट्टïर चीन समर्थक बनाये जाते हैं।

नेपालमें चीनकी महिला राजदूत विगत कुछ वर्षोंसे नेपालकी राजनीतिक एवं सामाजिक गतिविधियोंमें काफी सक्रिय रही हैं। नेपालमें आज जो राजनीतिक संकट उत्पन्न हुआ है, उसमें उनकी भी अहम भूमिका रही है। सरकारमें आये हालके संकटके प्रारम्भमें ही वह लगातार प्रधान मंत्री ओलीके लिए समर्थन जुटा रही थी। वह पूर्व प्रधान मंत्री प्रचण्डसे भी मिली थीं और उनसे कहा था कि चीन चाहता है कि कम्युनिस्ट (एकीकृत) पार्टी और सरकारमें बनी रही। किन्तु प्रचण्डने उनकी अनसुनी कर दी और उन्होंने ही पार्टीको अलग करना और ओलीकी सरकारका गिरानेकी अगुआई कर दी। अन्य दल इस अभियानमें जुड़ते गये। सारी दुनियाकी नजर इस समय नेपालके सुप्रीम कोर्टके रुख और निर्णयपर है। भारतकी पकड़ नेपालकी राजनीति और जनतामें भी पहलेसे ही अधिक रही है। भारत सरकारने स्पष्टï कर दिया है कि वह नेपालकी जनताके साथ है यानी जो निर्णय नेपालकी जनता करेगी। भारत उसके साथ रहेगा।