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देश में पैदा हुई है एक नई बिरादरी, कौन हैं वो ‘आंदोलनजीवी’ -प्रधानमंत्री


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (8 फरवरी) राज्यसभा में कई विषयों पर बोले. किसानों के मुद्दों पर बोले, एमएसपी के सवाल पर स्पष्ट किया कि एमएसपी नहीं हटेगी. सिक्खों को 1984 का दंगा याद दिलाया. ममता बनर्जी को भी खूब सुनाया. लाल बहादुर शास्त्री और मनमोहन सिंह से जुडी बातें कीं. लेकिन एक बात उन्होंने हट कर कही जिसकी खूब चर्चा हो रही है.

उन्होंने कहा कि श्रमजीवी, बुद्धिजीवी जैसे शब्दों से हम परिचित हैं लेकिन अब एक नई बिरादरी पैदा हो गई है. उसका नाम है ‘आंदोलनजीवी’. सवाल है प्रधानमंत्री ऐसा बोलकर किसकी तरफ इशारा कर रहे हैं. ये आंदोलनजीवी कौन हैं? पीएम मोदी को उनका उल्लेख करना क्यों जरूरी महसूस हुआ?

कौन हैं यह ‘आंदोलनजीवी’

इसकी परिभाषा देते हुए राजनीतिक विश्लेषज्ञ भरत कुमार राउत tv9 भारतवर्ष डिजिटल से बात करते हुए कहते हैं कि ये आंदोलनजीवी लोग वही हैं जो एक आंदोलन के बाद दूसरा आंदोलन क्या किया जाए…दूसरे आंदोलन के बाद तीसरे किसी आंदोलन में कैसे घुसपैठ की जाए, इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं. वे मिसाल के तौर पर मेधा पाटकर, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव जैसे आंदोलनकारियों का नाम लेते हैं. उनके मुताबिक आंदोलन चाहे अन्ना का हो, पर्यावरण का हो, सीएए का हो, किसानों का हो, ऐसे हर आंदोलन में इन लोगों का नाम सामने आता है. इनका फुल टाइम धंधा ही आंदोलन करना है और आंदोलन से ही इनका निर्वाह होता है.

लेकिन वरिष्ठ पत्रकार राही भिडे की राय इनसे अलग है. राही भिडे tv9 भारतवर्ष डिजिटल से बात करते हुए कहती हैं कि मुद्दे की बात पीएम क्यों नहीं करते? शब्द जाल में क्यों उलझाते हैं? अब तक किसानों से बात नहीं की. किसानों का आंदोलन नैशनल ही नहीं इंटरनेशनल मुद्दा हो गया. पीएम उनसे बातें नहीं करते, बस इधर-उधर की बातें करते हैं. अगर ये आंदोलनजीवी लोग चाहे जो भी हों, किसानों का साथ दे रहे हैं तो हर्ज ही क्या है? अगर अलग-अलग बिरादरी के लोग इकट्ठे हुए हैं तो एक मकसद से इकट्ठे हुए हैं. पीएम को आपत्ति क्यों है? आप आंदोलनजीवी बिरादरी की मन सुनिए, किसान बिरादरी की तो सुनिए.

आंदेलनजीवी बिरादरी की पृष्ठभूमि क्या है?

यह प्रजाति अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती है. इनमें से कोई वकील होता है, कोई चुनाव विश्लेषज्ञ होता है, कोई कुछ नहीं होता है सिर्फ आंदोलन ही करता है. लेकिन कोई कुछ भी हो बाकी काम उनका पार्ट टाइम जॉब है. आंदोलन ही उनका फुल टाइम जॉब होता है. मिसाल के तौर पर मेधा पाटकर 25 -30 सालों से बस आंदोलन ही करती आ रही हैं. पहले इन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन में हिस्सा लिया, फिर कई अन्य आंदोलनों से होते हुए अन्ना आंदोलन में हिस्सा लिया अब किसान आंदोलन में हिस्सेदार हैं.

उसी तरह योगेंद्र यादव का पार्ट टाइम चुनाव विश्लेषण करना है लेकिन मुख्यत: वे आंदोलनों से जुड़े रहे हैं. अन्ना आंदोलन का हिस्सा बने, सीएए के खिलाफ आंदोलन का हिस्सा बने, अब किसान आंदोलन के हिस्सेदार हैं. उसी तरह प्रशांत भूषण पहले अन्ना आंदोलन के हिस्सा थे फिर सीएए आंदोलन के हिस्सेदार बने यानी ऐसा लगता है कि मछली जिस तरह से जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, उसी तरह इन आंदोलनजीवियों के लिए आंदोलन ही कुल जमा जोड़ है और जीवन की अनमिट कहानी है.

आंदोलनजीवियों का मकसद क्या है?

दरअसल 2014 के चुनाव से पहले या और पीछे जाएं तो अन्ना आंदोलन से पहले इन आंदोलनजीवियों का कोई मतलब नहीं था, इसलिए इनके आंदोलन करने का कोई मकसद भी नहीं था. क्योंकि इन्हें ना कोई सुनता था, ना इन्हें कोई जानता था. अन्ना मूवमेंट ने और बाद में 2014 के चुनाव में बीजेपी ने सोशल मीडिया की अहमियत को समझा और उसका खूब इस्तेमाल किया. इन आंदोलनजीवियों को भी सोशल मीडिया से ही ऑक्सिजन मिलने लगा. जिनका कोई मास बेस नहीं था उनका मीडिया बेस तैयार हो गया.

बस फिर क्या आंदोलन का चस्का लागा रे लागा, आंदोलनजीवियों का पूरा हुजूम सब छोड़-छाड़ कर इसके पीछे भागा रे भागा. ये तब तक आंदोलन के पीछे भागते हैं जब तक आंदोलन इन्हें पहचान देता है, सम्मान देता है, साथ में करियर को भी नया आयाम देता है. अब अरविंद केजरीवाल को ही देखिए. पहले वे आंदोलनकारी थे. अब गाना गाते चल रहे हैं, साला मैं तो सीएम बन गया…सीएम बन कर कैसा तन गया. कई आंदोलनजीवियों के लिए वे इन्सपिरेशन बन बैठे हैं, जबकि अन्ना बेचारे रालेगणसिद्धि में बैठे हैं.

आंदेलनजीवियों से आंदोलन को क्या मिलता है?

किसान आंदोलन में कई खबरें ऐसी आईं जिनसे पता चला कि लाल किले पर उपद्रव करने वाले किसानों को सोशल मीडिया के माध्यम से भड़काया गया था. ये किसान मासूम हैं. इन्हें लगता है कि इनकी बातें कोई जाना-पहचाना नाम उठाएगा तो इनके आंदोलन को बल मिल जाएगा. होता बिलकुल उल्टा है.

आंदोलनजीवियों की घुसपैठ से आंदोलन शंका की वजह बन जाता है, पॉलिटिकल मान लिया जाता है. और फिर मकसद और माहौल सब बदल जाता है. बातें तो इंटरनैशनल लेवल पर होती हैं क्योंकि ट्विटर है, फेसबुक है लेकिन लोकल लेवल पर यह संदेहास्पद भूमिका तैयार करने लगता है. इसलिए आंदोलनकारियों को अगर कोई नेता नहीं मिले तो बिना नेता के ही आंदोलन कर लेना चाहिए लेकिन ऐसे उधार के आंदोलनजीवियों को अपनी मंडली में जगह नहीं देनी चाहिए. पीएम मोदी शायद इसी तरफ इशारा कर रहे हैं.