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नालंदा विश्वविद्यालय का ग्रीन कैंपस जीरो कार्बन उत्सर्जन की ओर अग्रसर


सुनैना सिंह। कोविड महामारी के वैश्विक संकट के दौरान जब पूरा विश्व चिकित्सा आपातकाल की निराशा में डूबा हुआ था, उस दौर में ऐसे हालात से जूझ रहे अन्य देशों को राहत सामग्री, दवा और टीके भेजकर भारत, ‘वसुधैव-कुटुंबकम’ के अपने आदर्श पर खरा उतरा। ‘वंदे भारत मिशन’ के तहत विदेश से अपने लोगों को लाना और करोड़ों लोगों को सुरक्षित करने के लिए सफल टीकाकरण अभियान चलाना, हमारे देश के सुशासन और अपार क्षमता का बेजोड़ उदाहरण है। वर्तमान में पारंपरिक जीवन सिद्धांत से सीखने से ज्यादा जरूरी इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। इस मनोवृत्ति को आकार देने और पीड़ितों को तनावमुक्त कराने में मदद मिल सकती है। मानवता के लिए बिना बदलाव लाए कोई उम्मीद नहीं है।

कुछ दिनों पहले नालंदा विश्वविद्यालय में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में विद्वानों ने विचार किया कि कोविड उपरांत विश्व व्यवस्था में धर्म-धम्म परंपराओं से क्या योगदान दिया जा सकता है। धर्म सांप्रदायिक नहीं है और न ही केवल ‘धर्म’ है, बल्कि ये धर्म का एक उद्देश्य है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना, इसलिए ‘धारयति इति धर्म:’ के अनुसार धर्म विश्व को बनाए और धारण किए हुए है। ‘धारणात् धर्म इत्याहु: धर्मो धारयति प्रजा:, य: स्यात् धारणसंयुक्त: स धर्म इति निश्चय:’, अर्थात जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘धर्म’ कहते हैं। यह हमारा धारणीय मंत्र है जो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य को भी दर्शाता है।