सम्पादकीय

निष्पक्षताकी जीत


नये कृषि कानूनोंके खिलाफ किसानोंके आन्दोलनके ४८वें दिन सर्वोच्च न्यायालयने मंगलवारको एक बड़ा कदम उठाते हुए तीनों कानूनोंपर अगले आदेशतक रोक लगानेके साथ ही इन कानूनोंपर नये सिरेसे चर्चाके लिए एक समिति बनानेकी भी घोषणा की है, जो न केवल स्वागतयोग्य है अपितु समाधानकी ओर बढऩेका एक सकारात्मक कदम भी है। शीर्ष न्यायालयने सख्ती दिखाते हुए यह भी कहा है कि कोई भी ताकत हमें कृषि कानूनोंके गुण-दोषके मूल्यांकनके लिए समिति गठित करनेसे नहीं रोक सकती है। यह न्यायिक प्रक्रियाका हिस्सा होगी। समिति यह बतायेगी कि किन प्रावधानोंको हटाया जाना चाहिए, फिर वह कानूनोंसे निबटेगा। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबड़े, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति बी. रामसुब्रमïण्यमकी पीठके इस आदेशपर शीर्ष न्यायालयका यह भी कहना है न्यायालयका यह निर्णय किसी पक्षकी जीत नहीं, सिर्फ निष्पक्षताकी जीत है। न्यायमूर्ति बोबड़ेने कहा कि हम समस्याका समाधान चाहते हैं और इसके लिए समितिका गठन जरूरी है। जो लोग वास्तवमें हल चाहते हैं वे समितिके पास जा सकते हैं। समिति हमें रिपोर्ट देगी। हम कानूनको सस्पेण्ड करना चाहते हैं लेकिन सशर्त। यह अनिश्चितताके लिए नहीं है। प्रधान न्यायाधीशने कहा है कि कल किसानोंके वकीलने आश्वस्त किया है कि किसान २६ जनवरीको ट्रैक्टर रैली नहीं निकालेंगे। शीर्ष न्यायालयने सोमवारको ही अपने नये आदेशके सन्दर्भमें संकेत कर दिया था लेकिन किसान नेताओंने कहा था कि वे समितिके पक्षमें नहीं हैं। इसपर न्यायालयका यह कहना भी सही है कि यदि किसान सरकारके समक्ष जा सकते हैं तो फिर समितिके समक्ष क्यों नहीं। अब किसान नेताओंको अपने रवैयेमें परिवर्तन करते हुए न्यायालयके आदेशोंका सम्मान करना चाहिए जिससे कि किसी स्वीकार्य निर्णयतक पहुंचा जा सके। कड़ाकेकी ठण्ड और कोरोना संकटके दौरान अब आन्दोलनको लम्बे समयतक खींचना उचित प्रतीत नहीं होता है। कानूनोंको रद करनेकी मांगपर अड़े रहनेसे समाधानतक नहीं पहुंचा जा सकता है। न्यायालयने कहा है कि हम समस्याको सबसे अच्छे तरीकेसे हल करनेकी कोशिश कर रहे हैं। न्यायालयके नये आदेश और समितिके गठनसे समस्याकी वास्तविकता तक पहुंचने और उसके अनुरूप समाधान निकालनेमें काफी सहायता मिलेगी। शीर्ष न्यायालय सोमवारको ही केन्द्र सरकारके रवैयेपर अपनी नाराजगी जता चुका है और किसान संघटनोंको भी हिदायतें दी थी। मंगलवारके न्यायालयके आदेश सार्थक दिशामें हैं और इससे समाधानतक पहुंचनेकी उम्मीद की जा सकती है।
ट्रम्पपर संकट
अमेरिकी संसदपर हमलेको लेकर राष्टï्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जहां पूरी तरह घिर गये हैं, वहीं उनके खिलाफ अमेरिकी सदनमें महाभियोगकी काररवाई शुरू किये जानेसे उनका राजनीतिक संकट और गहरा हो गया है। हालांकि खुदको माफी देनेके बारेमें अपने समर्थकों और कानूनी विशेषज्ञोंसे मंत्रणा कर रहे हैं, लेकिन इसका कितना फायदा उनको मिलेगा, यह कहना काफी मुश्किल होगा, क्योंकि अब डेमोक्रेट सांसदोंके साथ रिपब्लिकन सांसद भी मुखर होने लगे हैं। ट्रम्पके कार्यकालका यह दूसरा महाभियोग प्रस्ताव है। सत्ताके दुरुपयोगके आरोपमें ट्रम्पके खिलाफ प्रतिनिधि सभामें महाभियोग प्रस्ताव पारित हुआ था। हालांकि दो सप्ताहतक चली सुनवाईके बाद सीनेटने उन्हें बरी कर दिया था। अमेरिकी इतिहासमें अबतक सिर्फ दो राष्टï्रपतियोंके खिलाफ महाभियोगकी काररवाई हुई है। १९६८ में एंड्रयू जानसन एवं १९९८ में बिल क्लिंटनके खिलाफ महाभियोग चलाया गया था। हालांकि इन दोनों राष्टï्रपतियोंको जांचके बाद बख्श दिया गया था। १९७४ में वाटरटगेट कांडमें रिचर्ड निक्सनके खिलाफ भी महाभियोग लाया जानेवाला था लेकिन उन्होंने पहले ही इस्तीफा दे दिया था। अमेरिकाकी राजनीतिमें लोकतंत्रको शर्मसार करनेवाली घटनोंको लेकर ट्रम्पकी चहुंओर आलोचना हो रही है और अमेरिकी सदनका मानना है कि राष्टï्रपति ट्रम्पके पदपर बने रहना लोकतंत्र और संविधानके लिए खतरा है। अमेरिकी राजनयिकोंने इस घटनाकी तुलना नाजियोसे कर ट्रम्पको एक नाकाम नेता बताया है। इससे दुनियामें लोकतांत्रिक मूल्योंको बढ़ावा देने और उनकी हिफाजत करनेकी अमेरिकी प्रतिष्ठïाको गहरा धक्का लगा है। हालांकि ट्रम्प शान्तिपूर्ण तरीकेसे सत्ता हस्तान्तरणके लिए तैयार हैं लेकिन महाभियोगकी प्रक्रिया तेज होनेके साथ ट्रम्पपर अपने कार्यकालके पहले ही पद छोडऩेका दबाव बढ़ गया है। इससे उनकी मुश्किलें और बढ़ती जा रही हैं। उचित तो यह होगा कि ट्रम्प अपने समर्थकोंके कुकृत्योंपर राष्टï्रसे सार्वजनिक रूपसे माफी मांगें और अपने पदसे इस्तीफा दें।