सम्पादकीय

आन्दोलनसे गायब वास्तविक मुद्दे


अवधेश कुमार
आठवें दौरकी बातचीतमें सरकारकी ओरसे स्पष्ट कर दिया गया है कि कानून वापस नहीं होगा। सरकारकी ओरसे वार्तामें शामिल ४० संघटनोंके नेताओंसे तीन बातें कहीं गयी। एक, आपलोग कृषि कानूनके विरोधमें है लेकिन काफी लोग समर्थनमें हैं। दो, आप देशहितका ध्यान रखकर निर्णय करें और तीसरी यह कि आपके पास कानूनोंकी वापसीका कोई वैकल्पिक प्रस्ताव हो तो उसे लेकर आइये, जिसपर बातचीत की जा सके। यदि आप इन तीनों बिन्दुओंका गहराईसे विश्लेषण करें तो बातचीतमें सरकारकी ओरसे कुछ बातें पहली बार साफ कही गयी है। देशमें कृषि कानूनोंका समर्थन है और आप देशहितका ध्यान रखते हुए निर्णय करें, इसका मतलब है कि आपका विरोध देशहितमें नहीं है। दूसरे, आपका विरोध क्षेत्रीय स्तरपर है और हमें पूरे देशका ध्यान रखना है। यानी देशमें इसका समर्थन है इसलिए हम कृषि कानूनको वापस नहीं ले सकते। बातचीतके बाद कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमरने कहा भी कि हमने उनसे वैकल्पिक प्रस्तावकी बात की थी। कोई वैकल्पिक प्रस्ताव आया नहीं इसलिए चर्चा हुई नहीं। आन्दोलनरत लोग साफ कह रहे हैं कि उन्हें कृषि कानूनोंकी वापसीके अलावा कुछ भी स्वीकार नहीं। वार्तामें ही एक प्रतिनिधिने जीतेंगे या मरेंगेका प्लेकार्ड उठा लिया।
देखा जाय तो सरकार और आन्दोलनकारी इस मामलेपर पहले दिनसे ही दो धु्रवोंपर हैं। आन्दोलनकी शुरुआतके साथ ही सरकारने साफ कर दिया था कि वह कृषि कानूनोंको वापस नहीं लेगी। हालांकि उनका रुख यही था कि यदि इसमें कहीं संशोधनकी जरूरत है, कुछ नयी बातें डालनी है तो उसके लिए तैयार हैं। कानूनके परे भी यदि वाजिब मांगें हैं तो उनपर बातचीत कर रास्ता निकालनेके लिए तैयार है। इन्हीं आधारोंपर ९ दिसम्बरका प्रस्ताव भी सरकारने दिया। किन्तु इसके समानान्तर भाजपाके प्रवक्ता और कुछ मंत्रियोंने इस आन्दोलनमें हिंसक नक्सली अराजक तत्वों आदिकी पैठकी बात करके सरकार और सत्तारूढ़ दलकी मंशा स्पष्ट कर दिया था। वैसे देशमें एक बड़े वर्गका मानना है कि यह किसानोंका आन्दोलन नहीं है। इसमें किसान जरूर हैं लेकिन उनको भ्रमित कर भड़काया गया है। आन्दोलन ऐसे लोगोंके हाथों आ गया है जो किसी सूरतमें समझौता होने नहीं देंगे। जब हम किसी बातचीतमें शामिल होते हैं तो लोकतांत्रिकताका तकाजा है कि उसमें जिद, आग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह आदि नहीं होना चाहिए। दुर्भाग्यसे इसमें यह सारे नकारात्मक तत्व शामिल हैं। तीनों कृषि कानून एक दिनमें पैदा नहीं हुए। यदि कृषि कानूनोंमें दोष या कमी है तो उनमें परिवर्तन, संशोधनकी बात समझमें आती है। लेकिन यह जिद कि जबतक आप कानून वापस नहीं करेंगे हम अपना आन्दोलन जारी रखेंगे, वास्तवमें आर-पारके युद्धका स्वर देता है। यह लोकतंत्रकी भाषा नहीं है। यह कहना उचित नहीं होगा कि सरकारकी ओरसे आन्दोलनरत संघटनोंको मनानेकी कोशिश नहीं की गयी। आन्दोलनमें दोनों पक्ष पीछे हटते हैं तभी समझौता होता है।
सरकारने अपने प्रस्तावोंमें कई मांगोंको संशोधनमें शामिल करनेकी बात कहकर पीछे हटनेका संकेत दिया। यह भी प्रस्ताव दिया कि विशेषज्ञों सहित किसान संघटनों एवं अन्योंकी समिति बना दी जाय। आरंभिक सुनवाईमें सर्वोच्च न्यायालयने भी यही कहा था कि यदि बातचीत सफल नहीं होता है तो एक समिति बनायी जा सकती है, जिसमें विशेषज्ञ, किसान संघटनोंके लोग तथा सरकारके प्रतिनिधि भी शामिल हों और वह जो अनुशंसा करें उसको सरकार स्वीकार करें। आन्दोलनकारी कह रहे हैं कि हमको समिति नहीं चाहिए तो क्या चाहिए। ऐसा लगता है कि इस आन्दोलनमें प्रकट और परोक्ष रूपसे जो गैर-कृषि शक्तियां राजनीतिक मंसूबोंके साथ भूमिका निभा रही हैं। इससे पहले शाहीनबाग धरनाके मामलेमें सर्वोच्च न्यायालयने अत्यंत ही कड़ा रुख अख्तियार किया था। यद्यपि इस आन्दोलनके प्रति न्यायालयका रुख अब भी नरम है। आप कानूनोंमें संशोधनोंसे मानेंगे नहीं, समितिका गठन आपको स्वीकार नहीं तो फिर आप चाहते क्या हैं। यहींपर आन्दोलनको लेकर उठायी जा रही आशंकाएं बलवती होती हैं। इसमें दो राय नहीं कि वामपंथी दल, कांग्रेस, राकांपा, अकाली दल, सपा आदि विरोधी दल तथा मोदी और भाजपा विरोधसे भरे गैर-दलीय संघटन एवं एक्टिविस्ट आन्दोलनको मोदी विरोधी राजनीतिके बलवती होनेका अवसर मानकर हरसम्भव भूमिका निभा रहे हैं।
आन्दोलनरत संघटनोंका स्टैंड तो यही है कि हमें किसी राजनीतिक दलका साथ नहीं चाहिए लेकिन प्रच्छन्न रूपमें सब कुछ चल रहा है। रिपोर्टोंमें वास्तविकता लगातार सामने आयी है। सरकारके भी अपने खुफिया सूत्र हैं। यदि उसे मालूम है कि कृषि कानूनोंको हथियार बनाकर हमारे विरोधी हमको दबावमें लाने तथा अशांति और अस्थिरता पैदा करनेकी रणनीतिपर काम कर रहे हैं तो वह इनके सामने क्यों झुकेगी। दुर्भाग्य है कि कृषि और किसानोंसे संबंधित अनेक मुद्दोंको लेकर रचना और संघर्ष दोनों स्तरोंपर काम करनेकी जरूरत है। आप धरातलपर कृषि सुधारोंके लिए निर्माणका सकारात्मक अभियान चलायें और जहां-जहां सरकारी बाधाएं हैं उनके लिए संघर्ष करें। इस आन्दोलनमें वह वास्तविक मुद्दे गायब हैं। इनमें कई संघटन ऐसे हैं, जिन्होंने कानून सामने आनेपर समर्थन किया था। योजनापूर्वक ऐसा माहौल बनाया गया कि वह सब दबावमें आकर विरोध करने लगे। आन्दोलन आगे बढऩेके साथ ही कई संघटनोंको लगा कि सामने भले चेहरा उनका है पीछेसे हथियार चलानेवाले ऐसे दूसरे भी हैं जो इसमें सरकारके साथ समझौता नहीं होने दे रहे। लेकिन दबाव ऐसा है जिसमें यदि वह पीछे हटे तो वह हाशियेमें फेंक दिये जायंगे।
ऐसी स्थितिमें न किसीकी मध्यस्थता संभव है और न ही बीच का रास्ता। दुखद यह भी है कि इन सबकी जिदके कारण अनेक व्यक्तियोंकी मृत्यु हो गयी। कायदेसेे सड़क घेरनेके विरुद्ध काररवाई होनी चाहिए। आन्दोलनके लिए उनको निरंकारी मैदान दिया गया था। इनके खिलाफ काररवाई नहीं हुई जिसका कुछ अर्थ तो हैै। यानी सरकार नहीं चाहती कि इनके खिलाफ बल प्रयोग करके विरोधियोंकी आग लगानेकी चाहतको पूरा करनेका अवसर दे। दूसरी ओर विरोधियोंकी रणनीतिसे साफ है कि वह ऐसे हालात पैदा करना चाहते हैं जिसमें अंतत: प्रशासनको मजबूर होकर बल प्रयोग करना पड़े, हिंसामें कुछ लोग हताहत हों और फिर मोदी सरकारके विरुद्ध माहौलकी जमीन तैयार हो।
यह खतरनाक मंसूबा है जिसका हर व्यक्तिको विरोध करना चाहिए। कुछ लोगोंने इसमें कट्टर मजहबी भावनाएं भी भरनेकी कोशिश की है। पंजाबमें हिंसक और अराजक तत्वोंने मोबाइल टावरोंसे लेकर कुछ सार्वजनिक संपत्तियोंको नुकसान पहुंचाकर अपना इरादा भी स्पष्ट कर दिया। कैप्टन अमरिंदर सिंहकी सरकार जिस ढंगसे मूकदर्शक बनी रही वह राज्यकी विफलताका प्रमाण था। यह बात अलग है कि कुछ उद्योगों और कारोबारियों द्वारा पंजाब छोडऩेकी घोषणाके बाद सरकार चेती और अब तोडफ़ोड़ बंद है। इसमें आन्दोलनरत संघटनों और किसान नेताओंमें जो भी दल निरपेक्ष हैं उनको साहसके साथ आगे आना चाहिए। वास्तविक किसान संघटन सरकारके अंध विरोधियोंका साथ छोड़ें तो रास्ता निकल जायगा।