सम्पादकीय

विराट चिन्तनमें जीवनपद्धति


डा. अजय खेमरिया
वामपंथी विचारधारासे प्रभावित प्रोफेसर ज्योतिर्मय शर्माने अपनी पुस्तकमें दावा किया है कि विवेकानन्दका चिंतन अतिशय हिंदुत्वपर अबलंबित है जबकि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंसके जीवनमें कहीं भी यह शब्द सुनायी नहीं देता है। लेखकने अपने विवेचनमें इस बातको लेकर भी विवेकानन्दकी आलोचनाके स्वर मुखर किये है कि उन्होंने हिन्दुत्वको वैश्विक उपासना पद्धतिके तौरपर सुस्थापित करनेका प्रयास किया है। असलमें विवेकानन्दको लेकर वामपंथी बुद्धिजीवियोंका दावा नये भारतमें पिट रहा है। कुछ समय पूर्वतक तमाम सेक्यूलरों द्वारा दावा किया जाता था कि विवेकानन्दके विचार साम्प्रदायिकताके विरुद्ध थे और संघ परिवारपर उनका दावा ठीक गांधी और पटेलकी तरह खोखला है। सवाल है कि क्या विवेकानन्द हिन्दुत्वके विरुद्ध थे। इसका उत्तर विवेकानन्दको लेकर वामपंथियोंकी अलग-अलग धारणाओंसे हमें समझनेकी कोशिश करनी चाहिए। इस दौरान यह भी ध्यानमें रखा जाना चाहिए कि जिस तरह नकली और मनगढ़न्त प्रस्थापनाओंके जरिये आजाद भारतकी विमर्श नवीसीमें ब्राह्मïणवाद, मनुवाद, फुले-अम्बेडकरवाद, बहुलतावाद और दलित-वनवासी अलगावके सिद्धांत खड़े किये गये है ठीक वैसा ही विवेकानन्दको लेकर भी किया गया है। इस्लाम और मुगलिया संस्कृतिके प्रति उनके कतिपय विचारोंको एकतरफा ढंगसे व्याख्यायित करनेके शातिराना प्रयास खतरनाक है। सबसे पहले यह समझना होगा कि इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्कसे उनका मूल आशय क्या था। १० जून, १८९८ को स्वामी जीने मुहम्मद सरफराजको लिखे पत्रमें कहा कि भारत भूमि जो हमारी मातृभूमि है, के लिए इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्ककी आवश्यकता है।
आगे वह लिखते है कि मुसलमान समानताके भावका अंश रूपमें पालन करते हैं परन्तु वह इसके समग्र रूप भावसे अनजान है, हिन्दू इसे स्पष्ट रूपसे समझते हैं। परन्तु आचरणमें जातिगत रूढिय़ों और अन्य कुरीतियोंके चलते पूरी तरहसे पालना नहीं कर पा रहे हैं। इस कथनका सीधा आशय यह भी है कि विवेकानन्दकी नजरमें इस्लामी तत्वज्ञान हिंदुत्वसे कमतर ही है। लेकिन सेक्यूलर इसे साम्प्रदायिकता विरोधी बताकर स्थापित करनेका प्रयास करते रहे हैं। विवेकानन्दके विचारोंको गहराईसे देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि वेदांतको वह दुनियावी धर्म बनानेके लिए पक्के आग्रही थे। रामकृष्ण परमहंसके चिंतनसे उलट उनके संबोधनमें हिन्दू शब्दपर आपत्ति करनेवाले लेखक यह भूल जाते हैं कि विवेकानन्दका फलक वैश्विक था और वह अपने अनुयायियोंको मठमें नही विदेशोंमें संबोधित करते हैं। जाहिर है भारतसे बाहर वह वेदांत या उपनिषदोंकी बात करते हैं तो इसके लिए उन्हें हिन्दू धर्म ही बोलना होगा क्योंकि यह इसी विराट चिंतन और जीवन पद्धतिका हिस्सा है। विवेकानन्द किसी अलग उपमतके प्रवर्तक नहीं थे वह हिन्दू धर्मकी तत्कालीन बुराइयोंपर चोट भी कर रहे थे लेकिन समानान्तर रूपसे वह हिन्दुत्वकी मौलिक पुनस्र्थापनाके प्रबल समर्थक थे। रामकृष्ण परमहंसके देवलोकगमन पश्चात वह भारत भ्रमणपर विशुद्ध हिन्दू सन्यासीके भेषमें दंड और कमंडल लेकर निकले हैं उनका स्थायी भेष विशुद्ध भगवा था। यही भगवा भेष आज उनकी स्थायी पहचान है, हिन्दू शब्द और भगवा भेष भारतके वामपंथियोंके लिए अस्पृश्य और घृणाके विषय रहे हैं। जैसे-जैसे विवेकानन्दके चिंतनका तत्व बहुसंख्यक भारतीय जनमानसमें स्थायी हो रहा है वामपंथियों द्वारा अपनी सिद्धहस्त कारीगरीसे स्वामीजीको सेक्यूलर उपकरणोंसे लांछित करनेकी कोशिशें भी हो रही है। जेएनयूमें विवेकानन्दकी प्रतिमाके साथ अनावरणसे पहले ही किया गया बर्ताव यह बतानेके लिए पर्याप्त है कि विवेकानन्दके प्रति वामपंथियोंकी सोच क्या है। ध्यानसे देखें तो विवेकानन्दने इस्लाम और ईसाइयत दोनोंका खंडन किया है, विश्वधर्मका आदर्श व्याख्यानमें वह कहते हैं कि मुसलमान वैश्विक भाईचारेका दावा करते हैं लेकिन जो मुस्लिम नहीं है उनके प्रति इस्लामका रवैया अनुदार और खारिज करने जैसा ही है इसी तरह ईसाई मिशनरियोंकी निन्दाके साथ वह ईसाई तत्वज्ञानको संकुचित बताते हैं उन्होंने कहाकि गैर-ईसाइयोंको नरकका अधिकारी बताया जाना मानवीयताके विरुद्ध है। जाहिर है स्वामीजी वेदांतके जरिये जिस दुनियावी धर्मकी बात कह रहे थे वह धरतीका सर्वाधिक समावेशी है। जातिवादी और अतिशय हिन्दू आग्रहको लेकर आलोचना करनेवाले बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि जिस विमर्शकी जमीनपर वह खड़े हैं वह बहुत ही अल्पकालिक और पूर्वाग्रही है औपनिवेशिक मानसिकता उसपर हावी रही है। वह बहुत्वमें एकत्वकी बात थोप नही रहे थे, बल्कि जगतके मूल तत्वको उद्ïघाटित कर रहे थे। वैदिक विमर्श या उपनिषदोंके सार गीतामें यदि हिन्दू शब्द नहीं है तो इसके मूलको समझना होगा कि उस दौरमें न इस्लाम था, न ईसाइयत। तब हिन्दुत्वका प्रश्न कहांसे आता। इसलिए अपने समकालीन विमर्शमें स्वामी जीने हिन्दू और हिन्दुत्वके रूपकसे वैदिक भावको पुनप्र्रतिष्ठित किया है तो यह स्वाभाविक ही है।
स्वामी विवेकानन्द सच्चे समाज सुधारक और सामाजिक न्यायके अद्वितीय अधिष्ठाता भी थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि भारतका भविष्य कमजोर जातियोंके हाथोंमें होगा। वह अक्सर कहते थे कि मैं पुरातनपंथी और परम्परानिष्ठ हिन्दू नहीं हूं। वे कहते रहे कि कुछ लोगोंको स्नातक बनानेसे राष्ट्रकी भित्ति खड़ी नहीं होगी। उसके लिए जन-साधारणको शिक्षित करना होगा। उन्होंने कहा कि वह जिस आध्यात्मिकताकी बात कर रहे हैं वह भूखे पेट या निरक्षरताके अंधकारमें संभव नहीं है। वह पश्चिम जैसी शक्तिशाली भौतिक प्रगति और वेदांती चेतनाके पैरोकार थे। असलमें विवेकानन्द भारतीय राष्ट्रवादके आदि सिद्धांतकार है उन्होंने जिस भविष्यको रेखांकित किया था वह आज भारतमें आकार ले रहा है। सामाजिक न्याय और कमजोर जातियोंके प्रभुत्वको आज हम संघकी अहर्निश कार्यनीतिमें खूबसूरतीके साथ समायोजित होते देख रहे हैं। लेकिन वामपंथी लेखक अक्सर यही प्रचार करते हैं कि दोनोंको मिशनने अपने यहां शामिल नहीं किया जबकि मिशनने आजतक इस दावेका खंडन नहीं किया है। आज संघके सतत प्रयासोंसे दुनियांमें हिन्दुत्वका विचार स्वीकार्यता पा रहा है, भारतकी बहुसंख्यक चेतनामें हिन्दुत्वका स्वत्व और गौरवभाव सुस्थापित हो रहा है तब एक प्रायोजित अभियान स्वामीजीके विरुद्ध खड़ा करनेका प्रयास भी नजर आ रहा है। खास तौरसे भारतकी विविधता और बहुलताके मध्य एकत्वकी धारणा मजबूत हुई है। यह एकत्व हिन्दुत्व ही है जो सबको अपनी अंत:करणकी आजादीके साथ उस एकत्व भावकी ओर उन्मुख करता है जिसका अंत सत्यकी खोजपर जाता है। सत्य ही वेदांतका गन्तव्य है।