सम्पादकीय

नेपालमें राजनीतिक संकट


 डा. वरिंदर भाटिया 

नेपालके प्रधान मंत्री केपी शर्मा ओलीने १० अप्रैल, २०२१ को सदनका विश्वास खो दिया और पदमुक्त हो गये। पुष्पकमल दहल प्रचंडके नेतृत्वमें नेपाली कम्युनिस्ट पार्टीने ओली सरकारसे समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद उन्हें निचले सदनमें बहुमत साबित करना था। कोरोनाके बढ़ते खतरेके बीच नेपालमें १० अप्रैलको इसके लिए विशेष सत्र बुलाया गया था। प्रधान मंत्री ओलीको २७५ सदस्यीय सदनमें बहुमत साबित करनेके लिए विश्वास मत जीतना था। पुष्पकमल दहलके नेतृत्वमें नेपाली कम्युनिस्ट पार्टीने सरकारसे समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद ओली सरकार अल्पमतमें आ गयी थी। इसके बादसे ही नेपालमें राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। यहांतक कि चीनने इस मामलेमें हस्तक्षेप करनेकी कोशिश भी की। नेपाल भारतका एक ऐसा पड़ोसी देश है जिसके साथ हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध अच्छे रहे हैं। दोनों देशोंके बीच १८५० किलोमीटरसे अधिक लंबी सीमा भारतके पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल एवं सिक्किमसे लगती है। १९५० की भारत-नेपाल शांति और मित्रता संधि दोनों देशोंके बीचके मजबूत संबंधोंको आधार प्रदान करती है। इस संधिके द्वारा ही दोनों देशोंके बीच वस्तुओं एवं लोगोंकी बिना रोक-टोक आवाजाही सुनिश्चित हो पाती है। रक्षा एवं विदेश मामलोंमें भी इस संधिका प्रभाव देखा जा सकता है तथा नेपालको भारतसे हथियार खरीदनेकी भी सुविधा प्राप्त हो पाती है। नेपाल अपने व्यापारके लिए न सिर्फ कोलकाता बंदरगाहका उपयोग करता है, बल्कि भारत द्वारा बड़े निवेशका भी फायदा उठाता है।

गौरतलब है कि नेपालका वर्तमान राजनीतिक संकट पिछले साल २० दिसंबरको तब शुरू हुआ जब राष्ट्रपति भंडारीने प्रधान मंत्री ओलीकी अनुशंसापर संसदको भंग कर ३० अप्रैल और १० मईको नये सिरेसे चुनाव करानेका निर्देश दिया। ओलीने यह अनुशंसा सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टीमें सत्ताको लेकर चल रही खींचतानके बीचकी थी। चीनने नेपालकी अंदरूनी राजनीतिमें दखलअंदाजी देनेकी भरपूर कोशिश की, लेकिन ओलीके बदले तेवरोंसे साफ हो गया था कि वह चीनकी गोदमें नहीं बैठनेवाले। उन्होंने भारतको अपना सबसे करीबी सहयोगी बताकर चीनको स्पष्ट संदेश दे दिया। वैसे तो ओलीको चीन समर्थक माना जाता रहा है, लेकिन हालमें उन्होंने चीनके प्रति जिस तरहसे अपना रुख बदला है, उसकी बड़ी वजह यह भी बतायी जा रही है कि वह अब भारतसे नजदीकियां बढ़ाकर पार्टीके नाराज कैडर और वहांकी जनताका भरोसा जीतना चाहते हैं। चीनकी ओर झुकाव रखनेवाले ६९ वर्षीय ओली इससे पहले ११ अक्तूबर २०१५ से तीन अगस्त २०१६ तक नेपालके प्रधान मंत्री रहे। तब भारतके साथ नेपालके रिश्तोंमें तल्खी थी। पहले कार्यकालमें ओलीने सार्वजनिक रूपसे भारतकी आलोचना करते हुए नेपालके आंतरिक मामलोंमें हस्तक्षेप करने और उनकी सरकारको सत्तासे बेदखल करनेका आरोप लगाया था। हालांकि उन्होंने दूसरे कार्यकालमें आर्थिक समृद्धिके लिए भारतके साथ मिलकर आगे बढऩेका वादा किया था। दूसरे कार्यकालमें भी ओलीने दावा किया कि उनकी सरकार द्वारा देशके मानचित्रमें रणनीतिक रूपसे अहम भारतके हिस्सों लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुराको दिखानेके बाद उन्हें सत्तासे बेदखल करनेकी कोशिश की जा रही है। इस घटनासे दोनों देशोंके रिश्तोंमें तनाव आ गया था। सदनमें विश्वास खोनेके बाद केपी शर्मा ओलीने कैबिनेटकी बैठक की। अबतक माओवादीके साथ मिलकर गठबंधनकी सरकार चला रहे ओलीको अब नेपालके संविधानके मुताबिक सिंगल लार्जेस्ट पार्टीके नेताके रूपमें प्रधान मंत्री पदपर शपथ ग्रहण करानेकी तैयारी है।

नेपालके संविधानकी धारा ७६ की उपधारा २ के मुताबिक गठबंधनकी सरकार बनती है और यह फेल होनेके बाद संविधानकी धारा ७६ की उपधारा ३ के मुताबिक सबसे बड़ी पार्टीके नेताको सरकार बनानेका प्रावधान है। चूंकि ओलीके विपक्षमें रहे गठबंधनके पास भी बहुमतके लिए आवश्यक १३६ सांसदोंका समर्थन नहीं है, इसलिए राष्ट्रपति अब सरकार बनानेकी अगली प्रक्रियाको आगे बढ़ायंगी। इस समय नेपालकी संसदमें सबसे बड़ी पार्टी केपी शर्मा ओलीके नेतृत्ववाली पार्टी है जिसके पास कुल १२० सांसद हैं, जबकि नेपाली कांग्रेसके पास ६१, माओवादीके पास ४८ और जनता समाजवादी पार्टीके पास ३२ सांसद हैं। कांग्रेसके नेता शेर बहादुर देउवाके नेतृत्वमें गठबंधन सरकार बनानेका दावा पेश किया है, लेकिन इनके पास सिर्फ १२४ सांसद ही हैं, जबकि बहुमतके लिए १३६ सांसदोंकी जरूरत है। निचले सदनमें कुल २३२ वोट डाले गये। ९३ सांसदोंने ओलीके पक्षमें मत किया। वहीं १२४ सांसदोंने उनके खिलाफ वोट किया। १५ सांसदोंने मतदानमें हिस्सा नहीं लिया। प्रतिनिधि सभाके विशेष सत्रमें ओलीने औपचारिक रूपसे विश्वास प्रस्ताव पेश किया और सभी सदस्योंसे इसके पक्षमें मतदान करनेकी अपील की। अब नेपाली संविधानके अनुच्छेद १०० (३) के मुताबिक ओली स्वत: ही प्रधान मंत्रीके पदसे मुक्त हो गये हैं। नेपालमें नेतृत्वका संकट भारतके लिए चीनके नेपालमें बढ़ते राजनीतिक दखलको शिथिल करनेका शानदार अवसर है। भारत और नेपाल पुरातन कालसे एक नहीं, बल्कि अनेक प्रकारकी सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक सांझ रखते है, जिसे सुदृढ़ करनेका एक बार फिर राजनीतिक आधार बन रहा है।