सम्पादकीय

प्रवासी श्रमिकोंकी बढ़ती मुश्किलें


डा. वरिंदर भाटिया

प्रधान मंत्रीने राष्ट्रको संबोधित करते हुए कहा था कि राज्य प्रवासी मजदूरोंका भरोसा जगाये रखें और उनसे आग्रह करें कि वह जहां हैं, वहीं रहें। लेकिन जमीनी वास्तविकता यह है कि देशमें कोरोनाके बढ़ते कहर और लाकडाउनकी आशंकासे परेशान प्रवासी मजदूर एक बार सामाजिक सुरक्षाकी कमजोरीके कारण फिर पलायन कर रहे हैं। पिछले लाकडाउनकी तरह भले ही इस बार सड़कोंपर उतनी भीड़ नहीं दिखाई दे रही है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पलायन कम हो रहा है। प्रवासी मजदूरोंकी सामाजिक सुरक्षाको लेकर देशके अनेक राज्योंमें शिथिलता दिखाई जा रही है। श्रम मंत्रालयने प्रवासी मजदूरोंकी मददके लिए राज्योंसे सोशल सिक्योरिटीसे जुड़े नियम जल्द जारी करनेको कहा है। कोरोना महामारीको एक सालसे ज्यादा होनेके बाद भी प्रवासी मजदूरोंके लिए बनी पॉलिसी लागू नहीं हो सकी है। कोरोना मामलोंमें वृद्धिके बीच एक बार फिर प्रवासी मजदूरोंकी मुश्किलें बढ़ी हैं। महामारीके एक साल बाद भी पालिसीका फायदा नहीं मिला। इस मामलेमें बताया जा रहा है कि केंद्रके सामाजिक सुरक्षा नियम तैयार हैं, परंतु राज्योंने अबतक इसे जारी नहीं किया है। राज्यों द्वारा इसपर स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए। प्रवासी श्रमिकोंकी सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य अधिकारोंपर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगकी ओरसे किये गये शोधके मुताबिक प्रवासी श्रमिकोंको बुनियादी सुविधाएं भी आसानीसे नहीं मिल रही हैं। इतना ही नहीं, उन्हें बाहरी और दूसरे दर्जेके नागरिकके तौरपर समझा और देखा जाता है। यह शोध ऐसे समयमें सामने आया है जब पूरा भारत कोरोनाकी दूसरी लहरका दंश झेल रहा है और प्रवासी श्रमिक अपने-अपने राज्योंमें लौटने लगे हैं। एनएचआरसी द्वारा कमीशन और केरल डेवलपमेंट सोसायटी द्वारा किये गये इस अध्ययनमें रिसर्चर्सने लगभग ४४०० प्रवासी श्रमिकों, स्थानीय श्रमिकों, राज्य सरकारके अधिकारियों, चुने गये प्रतिनिधियों, स्कॉलर्स, एक्सपट्र्स, एनजीओके प्रतिनिधियों, व्यापार संघोंसे साक्षात्कार किया।

दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणामें कामकाजके उद्देश्यसे आनेवाले अधिकतर प्रवासी श्रमिक कम सैलरीपर ज्यादा जोखिमभरे क्षेत्रों, जैसे कंस्ट्रक्शन वर्क, हैवी इंडस्ट्रीज, ट्रांसपोर्ट सर्विसिज और कृषि क्षेत्रमें काम करते हैं। इस अध्ययनकी सबसे ज्यादा चौंकानेवाली बात यह है कि इन प्रवासी श्रमिकोंको स्वास्थ्य सेवाएं, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, रहनेके लिए घर, भोजन, पानी और अन्य जरूरी सुविधाएं भी ठीकसे नहीं मिलती। स्टडीके मुताबिक सभी प्रवासी श्रमिकोंमेंसे लगभग ८४ फीसदी श्रमिकोंने कहा कि उनके पास रहनेके लिए घरतक नहीं है और वह खराब घरमें रहनेपर मजबूर हैं। अध्ययनमें कहा गया है कि केवल दिल्लीमें श्रमिकोंको अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिल रही हैं, क्योंकि वहां मोहल्ला क्लीनिक इन श्रमिकोंके लिए मददगार साबित हो रहे हैं। परन्तु अन्य राज्योंमें प्रवासी श्रमिकोंके लिए हालात बेहद खराब हैं। अध्ययनमें कहा गया कि महिला प्रवासी श्रमिक पोषण संबंधी परेशानियोंका सामना कर रही हैं और स्थानीय मजदूरोंकी तुलनामें उन्हें खराब प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं मिल रही हैं। इस सर्वेमें शामिल ६८ प्रतिशत महिलाओंने कहा कि उनके पास शौचालयकी भी सुविधा नहीं है, क्योंकि वह झुग्गी-झोपड़ी या बस्तियोंमें रहती हैं। मुंबईमें लगभग ६२ प्रतिशत प्रवासी श्रमिक झुग्गियोंमें रहते हैं। अध्ययनमें दावा किया गया है कि दिल्लीमें हर महीने ४३ अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों, गुजरातमें ३५ श्रमिकों, हरियाणामें ४१ श्रमिकों और महाराष्ट्रमें ३८ श्रमिकोंकी कंस्ट्रक्शन जगहोंपर दुर्घटनाओंमें, पेटसे संबंधित बीमारियों, दिलकी बीमारियोंके चलते मौत हो जाती है। कुछ श्रमिक मजबूरन किसी कारणसे आत्महत्या कर लेते हैं।

दिल्लीमें लगभग ९२.५ प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों, महाराष्ट्रमें ९०.५ प्रतिशत, गुजरातमें ८७ प्रतिशत और हरियाणामें ८६ प्रतिशत मजदूरोंके साथ स्थानीय लोग बाहरी राज्यका होनेकी वजहसे भेदभाव करते हैं। यहांतक कि स्थानीय श्रमिकोंको प्रवासी श्रमिकोंकी तुलनामें ज्यादा वेतन दिया जाता है। निचोड़में अब हमारे सामने दो अहम कारण उभर रहे हैं जिनके चलते प्रवासी मजदूर पलायनकी तरफ अग्रसर हैं। पहला, कोरोना वायरसका संक्रमण अनियंत्रित तरीकेसे बढ़ रहा है। आनेवाले समयमें यदि हालात ज्यादा खराब हुए तो लाकडाउनकी सीमा बढ़ायी जा सकती है। एक बार फिर प्रवासी मजदूर यहां फंस गये तो परिवार चलाना मुश्किल साबित हो सकता है। दूसरा, भीड़की वजहसे कोरोना संक्रमण बढऩेको लेकर प्रवासी मजदूरोंका किसीपर अब भरोसा नहीं है। कुल मिलाकर प्रवासी मजदूरोंकी हालत चिंताजनक है। यह लोग रोजगारकी खोजमें अपने गांवोंको छोड़कर शहर जानेको मजबूर हुए थे और फिर अब लाकडाउनकी आशंकाके कारण घर वापस जा रहे हैं। वैसे भी प्रवासी मजदूरोंका यह संकट अब उनके जीवनका एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुका है। हालांकि अभी सिर्फ लौटनेवाले प्रवासियोंकी ही चिंता नहीं करनी है, बल्कि यह भी सोचना है कि न केवल भारतमें बल्कि दुनियाभरमें रोजगार एवं उत्पादनके भविष्यपर इसका क्या असर होगा। तुच्छ एवं सस्ता श्रम समझे जानेवाले इन मजदूरोंके कामकी असली कीमत समझानेकी जरूरत है। यह मजदूर निहायत ही खराब परिस्थितियोंमें अपना जीवन व्यतीत करते हैं। यह फैक्टरियोंमें ही सोते एवं खाते हैं। कारखानोंका काम है उत्पादन करना और मजदूरोंका काम है इन कठिन परिस्थितियोंमें जीवित रहना।

राज्योंको इनके घरोंके पास कामकाजके इंतजाम करने होंगे। यह ग्रामीण व्यवस्थाको सुदृढ़ करनेसे मुमकिन हो सकेगा। वर्तमान प्रवासी मजदूर पलायनने उनके लिए रोजगारकी परिकल्पना नये सिरेसे किये जानेकी जरूरतकी ओर इशारा किया है। जिन इलाकोंमें प्रवासी मजदूर लौटते हैं, वहां ग्रामीण अर्थव्यवस्थाको नवीनीकृत करने और उन्हें लचीला बनानेका शानदार अवसर है। १९७० के दशकमें महाराष्ट्रमें बड़ा अकाल पड़ा था और ग्रामीण पलायनके कारण शहरोंमें बड़े पैमानेपर अशांतिकी आशंका थी, तब वीएस पगे, जो कि एक गांधीवादी रहे हैं, ने लोगोंको उनके निवास स्थानके पास ही रोजगार प्रदान करनेकी योजना बनायी थी। प्रवासी मजदूरोंके लिए राज्योंमें सामाजिक सुरक्षाके उपाय और मजबूत करनेकी जरूरत है। इसके लिए उनके गृह राज्य ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने उनके रोटी-पानीके लिए लोकल अर्थव्यवस्थाको विकसित करनेमें लापरवाही दिखाई है। अब भी हमारे आसपास और दूर-दूर ऐसा कुछ काबिल-ए-तारीफ नहीं हो रहा है। प्रवासी मजदूरोंके लिए नयी और परिपक्व दिशामें नतीजा युक्त धारदार नेतृत्वकी जरूरत है।