सम्पादकीय

विश्वसनीयता जरूरी


सरकारी सेवाओंके लिए भर्ती प्रक्रियामें विश्वासका पक्ष अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है और इसके लिए यह भी आवश्यक है कि भर्ती प्रक्रियाके सभी स्तरोंपर पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी बरती जाय। विडम्बना यह है कि भर्ती प्रक्रियाके विभिन्न स्तरोंपर इसका अभाव है। लिखित परीक्षाओंमें प्रश्नपत्रोंका लीक होना आम बात हो गयी है कभी-कभी ऐसी गड़बडिय़ोंके कारण परीक्षाएं रद भी कर दी जाती हैं। इससे अभ्यर्थियों और उनके परिजनोंको काफी परेशानी उठानी पड़ती है और उनमें आक्रोश तथा निराशाकी भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। इस सन्दर्भमें सर्वोच्च न्यायालयने बुधवारको भर्ती प्रक्रियाके बारेमें महत्वपूर्ण टिप्पणी की है और कहा है कि भर्ती प्रक्रियामें लोगोंका विश्वास बने रहना चाहिए। जिनकी भर्ती की जाती है उनका इरादा सरकारके कामकाजसे जुड़े सार्वजनिक कार्योंको पूरा करना होता है। न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति ए.आर. शाहकी पीठने दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्डके एक ऐसे प्रकरणकी सुनवाईके दौरान यह टिप्पणी की, जिसमें गड़बड़ीके कारण भर्ती परीक्षाएं रद कर दी गयी थीं। पीठने कहा है कि जहां पूरी प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण पायी जाती है, इसके रद होनेसे निश्चित रूपसे कुछ लोगोंको कठिनाई हो सकती है, जो गड़बड़ीमें शामिल नहीं हो। पीठने दिल्ली सरकारके १५ मार्च, २०१६ के अध्यादेशको बरकरार रखा है जिसके तहत प्रधान लीपिक पदके लिए आयोजित परीक्षाएं रद की गयी थीं। शीर्ष न्यायालयकी टिप्पणी और व्यवस्था न्यायसंगत है लेकिन इसपर भी विशेष ध्यान देनेकी जरूरत है कि परीक्षाओंमें गड़बड़ी और भर्ती प्रक्रियामें अनियमितताओंपर कैसे अंकुश लगाया जाय। परीक्षाओंमें शुचिता  जरूरी है। इस शुचिताको बनाये रखनेकी पूरी जिम्मेदारी सम्बन्धित प्रशासनिक तंत्रपर है। किसी प्रकारकी गड़बड़ीके लिए जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। ऐसी कोई नौबत आनी ही नहीं चाहिए जिससे परीक्षाओंको रद करना पड़े। परीक्षाओंको उत्तीर्ण करनेके बाद जहां साक्षात्कारकी व्यवस्था है वहांपर भी पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता आवश्यक है। यह ध्यान रखना होगा कि सुपात्र और योग्य अभ्यर्थियोंका ही चयन हो। ऐसा करनेपर ही भर्ती प्रक्रियाके प्रति लोगोंका विश्वास बढ़ेगा। शीर्ष न्यायालयकी भी ऐसी ही मंशा है। इसके अनुरूप व्यवस्था सुनिश्चित करनेका पूरा दायित्व सम्बन्धित विभाग या परीक्षाओंका आयोजन करनेवाली एजेंसीका है।

न्यायिक विडम्बना

इसे न्यायिक विडम्बना ही कहा जायगा कि चार व्यक्तियोंको ऐसे गुनाहकी सजा भुगतनी पड़ी जिसे उन्होंने किया ही नहीं था। यह पुलिसकी विवेचनापर गम्भीर सवाल तो खड़ा करता ही है साथ ही हमारे न्यायिक भरोसेको भी कम करनेवाला है। उत्तर प्रदेशके भदोही जिलेमें हुई इस घटनाने पुलिसकी कार्यशैली और न्यायिक व्यवस्थाको कटघरेमें खड़ा कर दिया है। १३ साल पूर्व जिसके अपहरण और हत्यामें चार लोगोंको पांच-पांच सालकी सजा हुई वह व्यक्ति जिन्दा मिला। गोपीगंजके चकनिरंजन निवासी बेचन तिवारीने ३१ अक्तूबर, २००८ को गोपीगंज थानेमें छोटे भाई जोखन तिवारीका अपहरण कर हत्याके बाद शवको गायब करनेका मामला दर्ज कराया था और पड़ोसी काशीनाथ, दूधनाथ तिवारी, वंशनाथ एवं छोटनको नामजद किया था, जिसपर पुलिसने उन चारोंको गिरफ्तार कर लिया था। २००९ में जिला न्यायालयने पांच-पांच सालकी सजा सुनायी थी। लगभग पौने तीन सालतक जेलमें रहनेके बाद उन्हें हाईकोर्टसे जमानत मिली थी। मामला अब भी विचाराधीन है, जबकि जोखनने ही अपने अपहरण और कथित हत्याकी साजिश रची थी और पड़ोसियोंको फंसानेके लिए वह गायब हो गया था। उसकी पत्नी भी पांच सालसे गायब थी। पांच वर्ष बाद वह जब घर लौटी तो उसके दो बच्चोंको देख पीडि़त परिवारको शक हुआ और उन्होंने छानबीन की तो जोखन जिन्दा मिला। उन्होंने इसकी सूचना पुलिसको दी जिसपर पुलिसने उसे गिरफ्तार कर लिया लेकिन सवाल उठता है कि झूठे आरोपोंमें सजा काट चुके लोगोंकी क्षतिपूर्ति क्या होगी। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठïाको जहां गहरा धक्का लगा है वहीं उन्हें भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी है। इसका मुआवजा क्या होगा। इसलिए हमारी न्यायिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें इस तरहकी विडम्बनाओंका कोई स्थान न हो। साथ ही पुलिस प्रशासनको भी यह तय करना होगा कि किसी निर्दोषको सजा न हो।