सम्पादकीय

अमेरिकी सहयोगके प्रति आश्वस्त


अवधेश कुमार

राष्ट्रपति जो बाइडेनने स्पष्ट कहा कि कठिन समयमें भारतने अमेरिकाकी मदद की थी और अब अमेरिकाकी बारी है। बाइडेनने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीसे हुई बातचीतका भी जिक्र किया। अमेरिकाके वर्तमान रुखको देखते हुए यह माननेमें कोई समस्या नहीं है कि भारतको आवश्यकतानुसार महामारीसे लडऩेमें वह अभी त्वरित गतिसे हरसंभव सहयोग करेगा। उसकी घोषणा है कि भारतकी मददके लिए वह २४ घंटे काम कर रहा है। यह अमेरिकाका ऐसा परिवर्तित रूप है जिसकी कल्पना एक सप्ताह पूर्व नहीं थी। उसके विदेश विभागके प्रवक्ताने टीका निर्माण सामग्रियोंके निर्यातके प्रश्नपर कहा था कि हम पहले अमेरिकियोंकी जानकी रक्षाके लिए प्रतिबद्ध हैं। अमेरिकाने घोषित कर दिया था कि वह तत्काल न टीकेकी आपूर्ति करेगा और न इसके निर्माणमें काम आनेवाले चीजों की। जैसा हम जानते हैं अमेरिकाने इसके लिए उस कानूनको लागू कर दिया था जो १९५० के कोरिया युद्धके दिनोंमें बना था और जिसका लक्ष्य था युद्धमें उपयोग होनेवाले साजो-सामानकी आपूर्तिकी दिक्कतें दूर करना। अमेरिकामें इस कानूनको नेशनल इमरजेंसी यानी राष्ट्रीय आपातकालकी स्थितिमें भी लागू करनेकी स्वीकृति मिली थी। जो बाइडेनके नेतृत्वमें अमेरिकाने कोविडको राष्ट्रीय आपातकाल मानकर इसे लागू कर टीकामें काम आनेवाली ३७ सामग्रियोंका निर्यात रोक दिया।

इस दृष्टिसे देखें तो अमेरिका आज स्वयं अपनी ही कसौटियोंपर १८० डिग्री मुड़ चुका है। निश्चय ही यह प्रश्न हम सबके अंदर उठ रहा है कि उसके व्यवहारमें बदलावके मूल कारण क्या हैं। इसीमें यह प्रश्न भी निहित है कि वर्तमान अनुभवके बाद अमेरिकाके साथ द्विपक्षीय-अंतरराष्ट्रीय संबंधोंमें भारतका व्यवहार कैसे होना चाहिए। अमेरिका द्वारा कोविड संबंधी सामग्रियोंके निर्यातपर रोकके लिए कानूनका उपयोग केवल भारतके लिए नहीं, पूरी दुनियाके लिए था। यह संयोग है कि इस समय भारत अप्रत्याशित रूपसे कोरोनाके अभूतपूर्व संकटका ग्रास बन गया। इसलिए यह मान लेना बिल्कुल गलत होगा कि अमेरिकाने जानबूझकर भारतको निशाना बनाया। निस्संदेह विश्व स्तरपर नेतृत्वकी भूमिका निभानेवाले महाशक्तिका यह अमानवीय आचरण उसके वैश्विक दृष्टिकोणपर बड़ा प्रश्नचिह्नï खड़ा करनेवाला है और इसका संदेश बिल्कुल नकारात्मक गया है। किसी न किसी रूपमें प्रतिध्वनि कोविडोत्तर विश्व व्यवस्थामें सुनाई देगी। यह अमेरिकाके लिए एक चुनौती होगी। इस दौरान अमेरिकाके नकारात्मक रवैयेके विपरीत विश्व समुदाय भारतके साथ हर तरहसे सहयोगके लिए आगे आया। स्वयं अमेरिकामें और बाइडेनकी सत्तारुड़ डेमोक्रेटिक पार्टीके अन्दर भी इसे लेकर एक राय नहीं थी। डेमोक्रेटिक पार्टीके अनेक सांसदों नेताओंने भी कच्चे मालके निर्यातपर प्रतिबंध हटाकर कोरोना आपदासे जूझ रहे भारतकी हर प्रकारसे मदद करनेकी मांग की। अमेरिकी मीडियामें भी इसपर खूब बहस हुई और वहांके नेताओं तथा अग्रणी भूमिका निभानेवाले व्यक्तित्वोंने भी भारतके साथ खड़ा होनेकी आवाज उठायी। इस तरह यह माननेमें कोई हर्ज नहीं है कि विश्वभरमें भारतके पक्षमें निर्मित माहौल तथा स्वयं अमेरिकाके अन्दर उठी मांगोंने बाइडेन प्रशासनको कोविड महाआपदासे जूझते भारतके बारेमें अपने व्यवहारपर पुनर्विचारके लिए प्रेरित किया। जब यूरोपीय संघ और यूरोपके प्रमुख देशोंसे लेकर, आस्ट्रेलिया, जापान, रूस, कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, इसरायल, दक्षिण-पूर्व एशियातकके देश भारतका सहयोग करनेके लिए आगे आ गय तो फिर अमेरिका जैसे देशके सामने पीछे रहनेका विकल्प बचा ही नहीं था।

भारत अमेरिकी संबंधोंपर नजर रखनेवाले तथा साउथ ब्लॉकमें अमेरिकाके साथ संबंधोंकी नीतियां बनानेवाले इस दायरेमें सीमित होकर अपना निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। ऐसा लगता है कि जो बाइडेन और उनके रणनीतिकारोंने भारतके पक्षमें बने वैश्विक माहौलके साथ भारत द्वारा संकट कालमें विश्वके लिए किये गये कार्यों, पिछले दो दशकोंमें नये मुकामपर पहुंच चुके बहुआयामी द्विपक्षीय संबंध और साझेदारी तथा भविष्यमें दोनोंकी संयुक्त अंततराष्ट्रीय भूमिकाका भी विचार किया है। पिछले कुछ समयसे अमेरिकी मीडियामें ऐसी कई टिप्पणियां आयी हैं। जो बाइडेनकी जिस प्रेस ब्रीफिंगकी हमने आरंभमें चर्चा की उसमें भारतसे संबंधित प्रश्न तब किया गया जब वह अपनी पूरी कर पोडियम छोड़ चुके थे। भारतकी सहायताका प्रश्न सुनते ही वह वापस लौटे और कहा कि इस प्रश्नका उत्तर मैं अवश्य देना चाहूंगा। इसके बाद उन्होंने जिस तरहका बयान दिया उसकी मूल ध्वनि यही थी कि हमारी सहायता तो भारतके कर्जको केवल चुकता करनाभर है। वैसे भी कई मुद्दोंपर वैचारिक मतभेदोंके बावजूद राष्ट्रपतिके रूपमें बाइडेनके भारत संबंधी वक्तव्योंमें अभीतक नकारात्मकताकी झलक नहीं मिली है। मानवाधिकार, पर्यावरण आदिपर कट्टर रुख रखनेवाले बाइडेन प्रशासनकी सोच यही है कि भारतके साथ साझेदारी तथा उसकी प्रभावी भूमिकासे ही वर्तमान विश्वमें उभरती चुनौतियोंका सफलतापूर्वक सामना किया जा सकता है।

अमेरिकाकी आरंभिक निस्पृहतासे आम भारतीयके अन्दर उसके विरुद्ध नाराजगी पैदा हुई। कई विशेषज्ञोंने यह आवाज भी उठायी कि अमेरिकाके साथ राजनीतिक एवं आर्थिक ही नहीं रक्षा क्षेत्रमें तेजीसे विस्तारित होते संबंधोंपर थोड़ा ठहरकर पुनर्विचार करना चाहिए। क्या ऐसा करना चाहिए। इसका उत्तर है, नहीं। भारतको ऐसे किसी उतावलेपनसे बचना होगा। कुछ विशेषज्ञोंका यह मत उचित है कि यदि बाइडेनने मोदीको स्वयं फोन कर बातचीत की तो उसे सकारात्मक दृष्टिसे देखा जाना चाहिए। कोविड हमारे लिए इस समय सबसे भीषण चुनौती अवश्य है, परन्तु अन्य चुनौतियां और स्वयं भारतके राष्ट्रीय और वैश्विक लक्ष्योंका दायरा काफी विस्तृत है। एक परिपक्व देशके नाते हमें भारत-अमेरिकी द्विपक्षीय-अंतरराष्ट्रीय संबंधोंपर समग्रतामें विचार करना चाहिए। प्रधान मंत्री मोदीने ही संसदके पिछले सत्रमें कोविड कालके बादकी आकार लेनेवाली विश्व व्यवस्थाकी चर्चा की थी।

विश्वभरमें इसपर चर्चा चल रही है। हम किसी देशके विरुद्ध नहीं, लेकिन यह तो सच है कि चीन केवल हमारे लिए सीमापर ही चुनौतियां नहीं खड़ी कर रहा, विश्व व्यवस्थामें भी अपने लिए प्रभुत्वकारी जगह बनानेकी रणनीतिपर काम कर रहा है। उसकी आपूर्ति श्रृंखलाका विस्तार भी विश्वके ज्यादातर हिस्सेमें हो चुका है। उस आपूर्ति श्रृंखलामें भारतके लिए कोई स्थान नहीं तो अपने लिए अनुकूल आपूर्ति श्रृंखलाकी तलाश भारतको करनी है। भारतका लक्ष्य अपने भौगोलिक क्षेत्रमें सुरक्षित और सक्षम रहते हुए नयी विश्व व्यवस्थाको ज्यादा मानवीय, परस्पर सहयोगी, किसी देशकी आपदाको विश्व आपदा मानकर व्यवहार करनेवाला, प्रकृतिके अनुकूल तथा प्राकृतिक संसाधनों एवं विकसित तकनीकोंतक सबकी पहुंच कायम करनेवाला बनाना है। अमेरिका जैसे देशोंसे किसी तरहकी कटुता तथा दूरी भारतके अपने ही लक्ष्यके विरुद्ध होगा। हां, इसमें भविष्यके लिए अमेरिकी सहयोगके प्रति आश्वस्त रहनेकी जगह सतर्क होनेकी सीख अवश्य है। समय आनेपर अमेरिकाको बताना होगा कि आपका आचरण एक मित्र देशके अनुकूल नहीं रहा तथा विश्व स्तरपर भी इसका संदेश अच्छा नहीं गया है।