सम्पादकीय

कांग्रेस संघटनात्मक कार्यशैलीमें सुधारकी जरूरत


आनन्द उपाध्याय ‘सरस’

भारतके स्वतंत्रता आन्दोलनमें कांग्रेसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। स्वतंत्रताप्राप्तिके बाद दशकोंतक इस राजनीतिक दलका केन्द्र और प्राय: अधिकांश राज्योंमें सत्तारूढ़ पार्टीके रूपमें एकछत्र आधिपत्य स्थापित रहा। हालांकि इस समयान्तरालमें पार्टी विभिन्न अंतर्विरोधोंके चलते लगभग दर्जनभर बार विभाजित भी हुई। लेकिन फिर भी १९६९ के विभाजनके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसने अपने आगेके वर्षोंमें भी कतिपय टूटका झंझावत झेलते हुए भी इन्दिरा गांधी जैसी शख्सियतके नेतृत्वमें कभी कांग्रेस (आई) और अन्तत: फिर मूल नाम हासिल कर अपनी राजनीतिक धाक जमाकर सत्तापर पकड़ बरकरार रखी। बात बीते दो दशकोंके समयान्तरालकी करें तो तस्वीरका दूसरा स्वरूप परिलक्षित होता है, जो कि अत्यंत स्याह और चिन्ताजनक कहा जा सकता है। २०१४ में हुए लोकसभा चुनावमें यही राष्ट्रीय पार्टी अनेक आरोपोंके घिरकर अपने अप्रत्याशित अधोपतनके कारण रसातलमें पहुंचकर मात्र ४४ सीटोंपर जा सिमटी। अपने भारी अंतर्विरोधों, और अतिमहत्वाकांक्षाके चलते गुटोंमें होती सिरफुटव्वलसे कोई सीख न लेकर पुन: २०१९ के लोकसभा चुनावमें पार्टीने फिर शर्मनाक हार दुहराते हुए ५२ सीटोंपर ही जीत हासिल की। सबसे लज्जाजनक स्थिति तो यह रही कि लोकसभामें नेता विपक्षका औपचारिक दर्जा हासिल करनेके लिए वांछित न्यूनतम सीट भी प्राप्त न हो पानेके कारण न तो २०१४ में और न ही २०१९ में भारतकी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी सदनमें नेता विपक्षका औपचारिक दर्जातक हासिल कर पायी।

उल्लेखनीय है कि किसी भी देशकी लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्थामें जहां पूर्ण बहुमतकी सरकार बनानेवाले दलकी महत्ता है वहीं सशक्त विपक्षी दल भी उतना ही अपरिहार्य एवं महत्वपूर्ण है। खेदका विषय है कि यह सब कुछ जानते हुए भी मौजूदा परिदृश्यमें कांग्रेसके आकाओंने किसी तरहका वैचारिक मंथन, विश्लेषण या चिन्तन कर वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण दुर्गतिसे पार्टीको उबारनेकी न तो रणनीतिक पहल ही की है और न ही पार्टीके संघटनात्मक ढांचेमें आयी कमजोरीको दुरुस्त कर मौजूदा नेताओंकी कार्यशैलीमें अपेक्षित बदलाव लानेकी ही कोई कोशिश ही की गयी है। सन्ï २००० में पार्टीके राष्ट्रीय अध्यक्षके पदके चयनके लिए चुनाव हुआ था। आज हालात यह है कि दो सालसे पार्टीका पूर्णकालिक अध्यक्ष चुना जाना लम्बित है। वरिष्ठ नेताओंने पार्टीके व्यापक हितकी बात करनेके लिए जी-२३ समूह बनाकर आलाकमानतक बात पहुंचानेकी लोकतंत्रात्मक कोशिश भी करके देख ली, परन्तु सब कुछ अब भी ढाकके तीन पात। इन अनुभवी नेताओंके रचनात्मक सुझावोंपर गौर फरमानेकी जगह पार्टीके चाटुकार समूहोंने जहां इस जी-२३ के मुखिया वरिष्ठतम नेता गुलाम नबी आजादको भाजपाका एजेंटतक पुकारनेमें कोई गुरेज नहीं किया, वहीं कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी जैसोंको भी संदिग्ध बना दिया। बीते दिनों अपनी उपेक्षासे आजिज आकर तीन पीढ़ीसे कांग्रेसी नेता देनेवाले परिवारके सदस्य रहे उत्तर प्रदेशके शाहजहांपुर निवासी जितिन प्रसाद टाटा करके भाजपामें शामिल हो गये हैं। अब जी-२३ जी-२२ रह गया है।

एक ओर गुलाम बनी आजाद जैसे वरिष्ठ नेता और २२ अन्य अलग-थलग कर दिये गये महत्वपूर्ण नेताओंको अनसुना कर निस्पृभावी कर दिया गया है, वहीं विस्मयकारी परिदृश्य तो यह परिलक्षित होता है कि अपने विवादास्पद, आपत्तिजनक और राष्ट्रकी अखंडता, सम्प्रभुता एवं छविको देश ही नहीं वरन् अंतरराष्ट्रीय स्तरपर नुकसान पहुंचानेवाली अनवरत् बयानबाजीके लिए कुख्यात रहे बड़बोले नेताओंको पार्टीने खुला लाइसेंस जारी कर रखा है। यही नहीं शाहीनबागके धरने, दिल्लीमें हुए भयावह दंगे जेएनयूमें भारत तेरे टुकड़े होंगे नारा लगानेवाले गैंगके बीच जाकर राष्ट्रविरोधी और घिनोनी हरकतोंका समर्थक बननेकी होड़, कोरोना जैसी वैश्विक भयावह महामारीमें रचनात्मक भागीदारी निभाकर सरकारका सहयोग करनेकी जगह फर्जी प्रोपेगण्डा फैलाने और तो और कोरोनाके दूसरी लहरको इंडियन वैरिएण्ट संबोधित करते हुए मोदी वैरिएण्ट बताने जैसी निहायत निकृष्टतावाली घटिया राजनीति भी कांग्रेस जैसी पार्टीकी साखमें बट्टा लगानेमें सहायक सिद्ध हुई है। शर्मनाक बात तो यह है कि देशकी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टीका दम्भ भरनेवाली पार्टीके किसी भी प्रवक्ताने संसदके दोनों सदनोंमें बाकायदा विमर्शके बाद ५ अगस्त २०१९ को ६७ के मुकाबले ३६७ मतोंके अभूतपूर्व समर्थनसे पारित जम्मू-कश्मीरमें २६ जनवरी १९५७ से लागू विशेष संविधानके अस्थायी रूपसे प्रभावी अनुच्छेद ३७० (अनुच्छेद ३५-ए समाहित) के संबंधमें दिये गये दिग्विजय सिंहके बयानका औपचारिक खंडनतक करनेकी जरूरत नहीं समझी गयी। उल्टा न्यूज चैनलोंपर पार्टीके प्रवक्ताओंने लीपापोती कर दिग्विजयके बयानका आशय समझानेकी कोशिश कर देशकी आम जनता ही नहीं वरन् राष्ट्रवादी कांग्रेसियोंको भी शर्मसार करनेका ही काम किया। कभी मणिशंकर अय्यर पाकिस्तानकी धरतीपर मोदीविरोधी एजेण्डा चलानेके लिए सरकारको अपदस्थ करनेमें पाकिस्तानी मददकी सार्वजनिक गुहार लगानेवाले बयान देते दीखते हैं तो राहुल गांधी खुद आगे आकर भारतीय सैनिकोंकी गौरवशाली सर्जिकल स्ट्राइकको फर्जिकल स्ट्राइक कहकर कांग्रेसकी सार्वजनिक थू-थू करानेमें कोई कसर नहीं छोड़ते। खेदका विषय यह भी है कि ३७० अनुच्छेद हटाने संबंधित राहुल गांधीके दर्ज ट्विटर कमेण्टको संयुक्त राष्ट्र संघमें पाकिस्तानी प्रधान मंत्री इमरान खानने उद्धृत कर ढालके रूपमें इस्तेमाल कर भारतकी किरकिरी करानेका निन्दनीय कार्य किया। दिग्विजय, कमलनाथ, चिदंबरम, थरूर, मणिशंकर जैसे बयान वीरोंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसको रसातलमें ले जानेके लिए कमर कस ली है। जिनपर ऐसे विषवमन करनेवाली चौकड़ीपर नकेल लगानेकी जिम्मेदारी है, वह राहुल गांधी स्वयं अति मुखर होकर पार्टीकी जड़ोंमें म_ा डालनेका काम खुद भी करते नजर आते हैं। अपने पूर्वाग्रहसे ग्रसित बयानबाजी देनेवाले नेताओंपर पार्टीकी चुप्पीके निहितार्थका ताल्लुक कदाचित मुस्लिम वोटबैंकपर यदि अवलम्बित है तो यह सोच मौजूदा परिदृश्यमें कांग्रेसको महंगी ही पड़ती नजर आती है। इसके उलट पार्टीकी यह आत्मघाती नीति समर्पित कैडर और समर्थकोंमें हताशाको बढ़ावा देनेके लिए उत्तरदायी है। जितिन प्रसादके भारतीय जनता पार्टी ज्वॉइन करनेके अवसरपर दी गयी टिप्पणीपर पार्टीके वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइलीका तंज काबिलेगौर है, उन्होंने कहा कि यदि कोई व्यक्ति काबिल नहीं होगा तो उसे कोई भी जन-नेता नहीं बना सकता। मोइलीने कहा कि पार्टीको सिर्फ विरासतपर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि नेताओंको जिम्मेदारी देते हुए वैचारिक प्रतिबद्धताको प्राथमिकता देनी चाहिए। बीते साल जी-२३ के नेताओंने भी सुप्रीमों सोनिया गांधीको चि_ी लिखकर पार्टीमें हर स्तरपर बदलावकी जरूरत बतायी थी। अहंकारी सोच और वर्चस्वकी जंगके सार्वजनिक प्रदर्शनने भीतर ही भीतर संघटनात्मक ढांचेको खोखला बनानेका ही काम किया है।

ज्ञातव्य है कि दशकोंतक विपक्षमें रही भारतीय जनसंघ पार्टी और कालांतरमें भाजपाने जहां विपक्षकी दमदार भूमिकाका सतत् निर्वहन किया, वहीं राष्ट्रीय महत्वके मसलोंपर आगे बढ़कर एक स्वरमें सत्तारूढ़ रही कांग्रेसका साथ भी दिया। १९७१ में भारत पाकिस्तान युद्ध, बंगलादेश निर्माण, श्रीलंकाके मामलों, आपरेशन ब्लू स्टार, पूर्वोत्तर राज्योंके प्रकरणों आदिपर रचनात्मक विरोधी दलकी भूमिका प्रस्तुत की। यही कारण रहा कि संसदमें कभी मात्र दो एमपीवाली भाजपा आज दो आम चुनावोंमें ऐतिहासिक मेजोरिटीके साथ केन्द्रीय सरकार बनानेमें कामयाब हुई है, अपितु देशके अधिकांश राज्योंमें सत्तारूढ़ हो पायी है। यही नहीं, पूर्वोत्तर राज्यों सहित सुदूरवर्ती स्थानपर भी अपनी जड़ोंको फैलानेमें सफल हो पायी है। दूसरी ओर २०१४ में मोदीके नेतृत्वमें भाजपा सरकार बनने और पुन: २०१९ में इसी सरकारकी पुनरावृत्तिको निजी खुन्नस मान कांग्रेस विरोधवाली नीतिपर उतर आयी है कि मोदी सरकारके हर कामको नकारात्मक सोचका मुलम्मा चढ़ाकर मिथ्यामंडनका डंका पीटने लगती है। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है जब आम जनताको लगता है कि यह सब जानबूझकर निहित एजेण्डेके तहत ही किया जा रहा है। आज समयकी मांग है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके आकाओंको उदारवादी दृष्टिकोण दिखाते हुए सुसुप्त हो चुके संघटनात्मक ढांचेको सुदृढ़ करनेके लिए सबकी बातें सुननेकी लोकतंत्रात्मक कार्यशैली अपनानेके लिए आगे बढ़कर पहल करनी होगी। जी-२३ जो अब जी-२२ रह गया है, के सभी अनुभवी नेताओंको ससम्मान आमंत्रित कर पार्टीको सशक्त बनानेके लिए समूचे ढांचेको आमूल-चूल परिवर्तन करनेके लिए मन बनानेकी अपरिहार्य आवश्यकता है। रचनात्मक विपक्षकी भूमिका अपनाकर ही अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल की जा सकती है, न कि मात्र विरोध करनेके लिए हर बातका आंख मूंदकर विरोध करनेकी मौजूदा नीतिसे। एक संघटित कैडरवाली और समर्पित विचारधारावाले अनुशासित कार्यकर्ताओंसे भरी-पूरी पार्टी जिसकी संघटनात्मक संरचना जम्मू-कश्मीरसे कन्याकुमारीतक और ओडीसासे गुजराततक सुस्थापित रही हो, यहांतक कि पूर्वोत्तर राज्यों सहित सुदूर लक्ष्य द्वीप और अंडमान निकोबार जैसे केन्द्रशासित राज्योंमें भी जिस पार्टीकी तूती बोलती रही हो वह राष्ट्रीय दल आज अपने ही आकाओंकी मानसिकता और गंभीर उदासीनताके चलते नेतृत्वहीनताका शिकार होकर अभिशप्त-सी हालतमें रसातलमें जानेको तैयार है, यह खेदजनक ही नहीं, अपितु शर्मनाक ही कहा जा सकता है। कांग्रेसको दलहितकी जगह देशहितके मुद्दोंपर संवेदनशीलता बरतनेकी जरूरत है। देशकी प्रमुख विपक्षी पार्टीकी इसी सतत् कमजोरीका चतुराईपूर्वक फायदा उठाकर अपनी-अपनी रियासतें हासिल करनेके लिए सिद्धान्तोंको तिलांजलि देनेपर उतारू नजर आती है। इनकी प्राथमिकता सत्ताप्राप्ति ही रहती आयी है, राष्ट्रीय महत्व और दीर्घकालीन संवेदनशील मुद्दोंको ताकपर रखकर निहित एजेण्डेके तहत सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना ही मूल उद्देश्य रहता है। इसीलिए रीजनल पार्टियोंकी जगह राष्ट्रीय पार्टीका मजबूत होना ही भारतीय लोकतंत्रके लिए सुखद अध्याय साबित होगा, यही समयकी मांग भी है।