सम्पादकीय

तिब्बतियोंकी पीड़ा


डा. समन्वय नंद

माओकी सेनाने हजारोंकी संख्यामें नीरिह तिब्बतियोंको मौतके घाट उतार दिया था। इस तरहकी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी कि परम पावन दलाई लामाको तिब्बत छोड़कर भारतमें शरण लेना पड़ा था। वैसे देखा जाय तो चीनकी कम्युनिस्ट सेनाने १९४९ से ही तिब्बतपर हमला करना प्रारंभ कर दिया था। पहले माओकी सेनाने चीनसे सटे तिब्बतके हिस्से आमदो एवं खम प्रदेशमें प्रवेश कर उन इलाकोंको नियंत्रणमें लेना प्रारंभ कर दिया था। चीन अपने बर्बर सैन्य बलके माध्यमसे दलाई लामाको झुकानेका प्रयास कर रहा था। इस कारण तिब्बतको चीनके साथ १७ सूत्री समझौतेपर हस्ताक्षर करना पड़ा था। बंदूकके नोकपर चीनने तिब्बतको इस समझौतेपर हस्ताक्षर करनेके लिए मजबूर किया था। चीनी सेना धीरे-धीरे तिब्बतके अन्य इलाकोंपर भी नियंत्रण ले रही थी। धीरे-धीरे चीनी सैनिक तिब्बतकी राजधानी ल्हासातक पहुंच गये थे।

चीन धीरे-धीरे पूरे तिब्बतमें अपना प्रशासन चलानेके लिए नयी रणनीतिपर कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। इस नयी रणनीतिके अनुसार दलाई लामा द्वारा संचालित समस्त विभागोंको वह कार्य करनेके लिए दे रहे थे। लेकिन साथ ही चीनने भी समानांतर तरीकेसे प्रशासनिक विभागोंको चलाना प्रारंभ कर दिया। चीन अपनी सेनाके बलपर यह प्रशासन चला रहा था। इसके बाद चीनी सेनाने धीरे-धीरे तिब्बतके मठ एवं मंदिरोंपर हमला करना शुरू कर दिया। बौद्ध भिक्षुओंका अपमान करना प्रारंभ कर दिया। इससे धीरे-धीरे संपूर्ण तिब्बतमें असंतोषकी ज्वाला बढऩे लगी। उस कालखंडमें दलाई लाला भारत आये थे एवं उन्होंने तिब्बतकी खराब होती स्थितिके संबंधमें भारतके तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरूको अवगत कराया। साथ ही उन्होंने  भारतमें शरण लेनेकी बात भी कही थी। लेकिन नेहरूने उन्हें स्पष्ट रूपसे इसके लिए मना कर दिया तथा उन्हें सलाह दी कि उन्हें ची के साथ मिल-जुलकर रहना सिखना होगा। तिब्बतमें मोनलम नामक एक त्योहार बड़े धूमधामसे मनाया जाता है। तिब्बत मामलोंके जानकार बताते हैं कि यह तिब्बतका सबसे बड़ा त्योहार है। इस त्योहारमें शामिल होनेके लिए पूरे तिब्बतसे श्रद्धालु राजधानी लाहसा आते हैं तथा बुद्ध मंदिरोंमें पूजार्चना की जाती है। मोनलम त्योहारके दौरान ल्हासा प्रशासनकी जिम्मेदारी बौद्ध भिक्षुओंके पास आ जाती थी।

१९५९ में मोनलमके कुछ दिन पूर्व तिब्बतीय नववर्षके अवसरपर दलाई लामाके राज प्रासाद नामग्याल मठके बौद्ध भिक्षुओंका एक नृत्य कार्यक्रमका आयोजन किया जा रहा था। इस नृत्य कार्यक्रममें चीनके दो अधिकारी उपस्थित थे। वह दलाई लामाके पास आकर कहा कि चीनसे एक नृत्य करनेवाली टीम ल्हासा आयी हुई है। उन्होंने दलाई लामाको चीनी सेनाके मुख्यालयमें आकर उस नृत्य देखनेका अनुरोध किया। उन्होंने इस कार्यक्रमके लिए १० मार्चकी तिथि तय की। वास्तवमें इस कार्यक्रममें शामिल करवानेके बहाने चीन दलाई लामाका अपहरण कर लेना चाहता था। इसके अलावा चीनके अधिकारियोंने दलाई लामाके अंगरक्षकोंसे कहा कि इस कार्यक्रम में वह बिना तिब्बती सैनिकोंके आयें। यदि बहुत आवश्यक लगाको दो-तीन अंगरक्षक आ सकते हैं। साथ ही उन्होंने इस बातकी हिदायद दी कि इस मामलेको संपूर्ण रूपसे गुप्त रखा जाय।

चीनी सरकारके अधिकारी एवं उनके सैनिक अधिकारियोंकी गतिविधियां तिब्बतियोंको आश्चर्यचकित करनेवाली लग रही थी। तिब्बतियोंने यह आशंका व्यक्त करना प्रारंभ कर दिया कि चीन परम पावन दलाई लामाका अपहरण करनेकी साजिश रच रहा है। इसी बीच चीनी सैनिकोंने ल्हासामें प्रवेश करनेके लिए जो पुल था, उसे अवरोध कर दिया। इस कारण तिब्बतियोंकी आशंकाएं बढऩे लगी। यह खबर आगकी तरह पूरे तिब्बतमें फैलने लगी कि माओकी लाल सेना दलाई लामाका अपहरण करनेकी योजना बना रही है। हजारोंकी संख्यामें तिब्बती दलाई लामाके प्रासादके निकट एकत्रित होने लगे। तिब्बतके लोग चाहते थे कि दलाई लामा कार्यक्रम देखनेके लिए चीनी सेनाके कार्यालय न जायं। उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। लोगोंमें कितना गुस्सा था, इस बातका अन्दाजा इस बातसे लगाया जा सकता है कि एक अधिकारी जिसपर चीनी समर्थक होनेका शक था, उसपर लोगोंने हमला कर दिया। लोगोंने उसे चीनका दलाल बताते हुए वाहनसे खींचकर पीटने लगे, जिससे उसकी मौत हो गयी। स्थिति इतनी खराब हो गयी कि दलाईलामा ड्रैगन नृत्य देखने नहीं जा सके। पूरा वातावरण अंशात हो चुका था। उधर चीनी सेना एवं सैनिकोंमें भी क्रोध बढऩे लगा था। सात दिनोंतक चीनी सेना चुप रही। लेकिन १७ मार्चके दिन माओकी लाल सेना उसके कार्यालयसे बाहर निकलकर अपनी बर्बरता एवं नृशंसताका नंगा प्रदर्शन शरू  कर दिया। ल्हासाके सडकों, बाजारोंमें चीनी सैनिकों निर्ममता एवं ड्रैगन नृत्य देखनेको मिला। दलाईलामाका प्रासाद नारबुलिंगापर भी बम डाले गये। चीनी सेनाके इस अमानवीय हमलेमें दस हजारसे अधिक तिब्बतियोंको मौतके घाट उतार दिया गया।

इस घटनाको ६१ साल बीत चुकी है। लेकिन अब भी तिब्बतियोंके मनमें यह पीड़ा है। गत कुछ सालोंसे चीन तिब्बतके चीनीकरणके प्रयासोंको और तेज किया है। तिब्बतके इलाकोंमें चीनसे हान लोगोंको बसाया जा रहा है। तिब्बती लड़कियोंकी शादी जोर जबरदस्ती हान लोगोंसे करवायी जा रही है। तिब्बतमें तिब्बतियोंको अल्पसंख्यक बनानेपर चीन सरकार आमादा है। तिब्बती संस्कृतिको समाप्त करनेकी साजिश चल रही है। तिब्बतके लोग भले ही चीनकी दासतामें है लेकिन अब भी उन्होंने चीनकी गुलामीको मानसिक रूपसे स्वीकार नहीं किया है। तिब्बतमें दलाई लामाकी फोटो रखनेपर कारावासकी सजाका प्रावधान होनेके बाद भी हजारों तिब्बती दलाई लामाके फोटोके साथ जेलमें जानेके लिए तैयार हैं। गत कुछ सालोंमें चीनी गुलामीके प्रतिवादमें दो सौसे अधिक बौद्ध भिक्षुओंने आत्मदाह कर स्वतंत्रता प्राप्तिकी ललकको स्पष्ट किया है। भारत सरकारको भी चाहिए कि चीनके साथ वार्तामें तिब्बतके मामलेको उठाये तथा उन्हें न्याय दिलानेका प्रयास किया। भारतके गलतीके कारण ही तिब्बत चीनका गुलाम हो गया है। इसलिए प्रायश्चित भारतको ही करना पडेगा।