सम्पादकीय

जागरूकतासे कुप्रथाका अन्त


रमेश सर्राफ धमोरा     

देशमें अक्षय तृतीयापर हर वर्ष हजारोंकी संख्यामें बाल विवाह किये जाते हैं। कोरोना संकटको लेकर देशमें चल रहे लाकडाउनके कारण हर जगह पुलिस प्रशासनकी व्यवस्था चाक-चौबंद होनेके चलते इस बार अक्षय तृतीयापर बाल विवाह होनेकी संभावना बहुत कम लगती है। राजस्थान सरकारने तो कोरोना संकटको देखते हुए आगामी ३१ मईतक बिना इजाजत विवाह करनेपर ही कानूनन रोक लगा दी है। इससे बाल विवाह होनेकी सम्भावना काफी कम हो गयी है। कोरानाके चलते देशभरमें अपनाये जा रहे सोशल डिस्टेसिंगका प्रचार पूरे देशमें हो रहा है। ऐसेमें यदि कहीं बाल विवाह होता है तो उसकी सूचना सरकारके पास पहुंचनेकी संभावना ज्यादा है। फिर भी तमाम प्रयासोंके बाबजूद हमारे देशमें बाल विवाह जैसी कुप्रथाका अन्त नहीं हो पा रहा है। भारतमें बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानके शुरू होनेके बावजूद एक नाबालिग बेटीकी जबर्दस्ती शादी करा दी जा रही है। बाल विवाह मनुष्य जातिके लिए एक अभिशाप है। यह जीवनका एक कड़वा सच है कि आज भी छोटे-छोटे बच्चे इस प्रथाकी भेंट चढ़ जा रहे हैं।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हर जगह बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओका नारा देते हैं। देशके सभी प्रदेशोंमें बेटियां शिक्षित हो रही हैं। ऐसेमें समाजको आगे आकर कम उम्रमें लड़कियोंके होनेवाले बाल विवाह रुकवानेके प्रयास करने होंगे। आजकल कई लड़कियां खुद भी आगे आकर अपना बाल विवाह रुकवानेका प्रयास करने लगी हैं। भारतमें यह प्रथा लम्बे समयसे चली आ रही है जिसके तहत छोटे बच्चोंका विवाह कर दिया जाता है। आश्चर्यकी बात तो यह है कि आजके पढ़े-लिखे समाजमें भी यह प्रथा अपना स्थान बनाये हुए है। जो बच्चे अभी खुदको भी अच्छेसे नहीं समझते। जिन्हें जिन्दगीकी कड़वी सचाइयोंका कोई ज्ञान नहीं। जिनकी उम्र अभी पढऩे-लिखनेकी होती है। उन्हें बाल विवाहके बंधनमें बांधकर क्यों उनका जीवन बर्बाद कर दिया जाता है। नेशनल हेल्थ फैमेली सर्वे-५ की २०२० में जारी रिपोर्टके मुताबिक बिहारमें ४०.८ फीसदी लड़कियोंका विवाह १८ वर्षसे कम आयुमें हो गयी। त्रिपुरामें ४०.१ और पश्चिम बंगालमें ४१.६ फीसदी लड़कियां बाल विवाहकी शिकार हुई हैं। गुजरातमें भी २० फीसदी लड़कियां साल २०१९ में बाल विवाहका शिकार हुई हैं। वहीं बिहारमें ११ फीसदी लड़कियां ऐसी थीं, जो १५ से १९ आयु वर्षके बीच ही या तो मां बन गयी थीं या गर्भवती थीं। त्रिपुरामें २१.९ और पश्चिम बंगालमें १६.४ फीसदी लड़कियां १५ से १९ वर्षके बीच मां बन चुकी थीं। इसके अलावा असम और आंध्र प्रदेशमें ११.७ और १२.६ फीसदी लड़कियां १८ वर्षसे कम आयुमें भी मां बन चुकी थीं या गर्भवती थीं। आंकड़ोंसे साफ है कि आजादीके ७४ साल बाद भी इस देशमें महिलाओंकी स्थितिमें कोई खास सुधार नहीं आया है। यही कारण है कि इस देशमें ५० फीसदीसे ज्यादा महिलाएं और बच्चे एनीमिया (रक्ताल्पता) के शिकार हैं। यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्टमें कहा गया था कि भारतके कई क्षेत्रोंमें अब भी बाल विवाह हो रहा है। इसमें कहा गया है कि पिछले कुछ दशकोंके दौरान भारतमें बाल विवाहकी दरमें कमी आयी है। लेकिन कई प्रदेशोंमें यह प्रथा अब भी जारी है। रिपोर्टमें कहा गया है कि बालिका शिक्षाकी दरमें सुधार, किशोरियोंके कल्याणके लिए सरकार द्वारा किये गये निवेश एवं कल्याणकारी कार्यक्रम और इस कुप्रथाके खिलाफ सार्वजनिक रूपसे प्रभावी संदेश देने जैसे कदमोंके चलते बाल विवाहकी दरमें कमी देखनेको मिली है। यूनिसेफके अनुसार अन्य सभी राज्योंमें बाल विवाहकी दरमें गिरावट लाये जानेकी प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। किंतु कुछ जिलोंमें बाल विवाहका प्रचलन अब भी उच्च स्तरपर बना हुआ है। यह रिपोर्ट हमारे सामाजिक जीवनके उस स्याह पहलू कि ओर इशारा करती हैं। जिसे अक्सर हम रीति-रिवाज एवं परम्पराके नामपर अनदेखा करते हैं।

देशमें बाल विवाहके खिलाफ कानून बने हैं और समय-समयपर उसमें संशोधन कर उसे ओर प्रभावशाली बनाया गया हैं। फिर भी लगातार बाल विवाह हो रहे हैं। भारतमें बाल विवाहपर रोक संबंधी कानून सर्वप्रथम सन् १९२९ में पारित किया गया था। बादमें सन् १९४९, १९७८ और २००६ में इसमें संशोधन किये गये। बाल विवाह निषेध अधिनियम २००६ के तहत बाल विवाह करानेपर दो सालकी जेल एवं एक लाख रुपयेका दंड निर्धारित किया है। देशमें बाल विवाह जैसी कुप्रथाको जड़से खत्म करना है तो इसके लिए समाजको ही आगे आना होगा तथा बालिकाओंके पोषण, स्वास्थ्य, सुरक्षा और शिक्षाके अधिकारको सुनिश्चित करना होगा। समाजमें शिक्षाको बढ़ावा देना होगा। अभिभावकोंको बाल विवाहके दुष्परिणामोंके प्रति जागरूक करना होगा। सरकारको भी बाल विवाहकी रोकथामके लिए बने कानूनका कड़ाईसे पालन करवाना होगा। बाल विवाह प्रथाके खिलाफ समाजमें जोरदार अभियान चलाना होगा। साथ ही सरकारको विभिन्न रोजगारके कार्यक्रम भी चलाने होंगे, ताकि गरीब परिवार गरीबीकी जकड़से मुक्त हो सकें और इन परिवारोंकी बच्चियां बाल विवाहका निशाना न बन पायें। यदि सरकारके तमाम प्रयासोंके बावजूद देशमें बाल विवाह जैसी कुप्रथाका अन्त नहीं हो पा रहा है तो इस असफलताके पीछे सबसे बड़ा कारण है इसके प्रति सामाजिक जागरूकताकी कमी। जब तक समाजमें बल विवाह रोकनेके प्रति जागरूकता नहीं आयगी तबतक यह कुरीति खत्म नहीं होनेवाली है। बाल विवाह एक सामाजिक समस्या है। सिर्फ कानूनके भरोसे बाल विवाह जैसी कुप्रथाको नहीं रोका जा सकता है। इसका निदान सामाजिक जागरूकतासे ही सम्भव हो पायेगा।