सम्पादकीय

श्रेष्ठ चरित्र 


राजेन्द्र

एक दिन एक जज साहब अपनी कारसे अदालत जा रहे थे। रास्तेमें उन्होंने देखा कि एक कुत्ता नालीमें फंसा हुआ है। वह बुरी तरह छटपटा रहा है। उसमें बाहर निकलनेकी छटपटाहट है, किन्तु प्रतीक्षा भी है कि कोई आ जाय और बाहर निकाल दे। जज साहबने तुरन्त कार रुकवाई और पहुंच गये उस कुत्तेके पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुके और झुककर उन्होंने उस कुत्तेको निकालकर सड़कपर खड़ा कर दिया। परन्तु बाहर निकलते ही उस कुत्तेने एक बार जोरसे सारा शरीर हिलाया और पास ही खड़े जज साहबके कपड़ोंपर ढेर सारा कीचड़ लग गया। कपड़ोंपर कीचड़के धब्बे लग गये परन्तु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रोंमें पहुंच गये अदालत। सभी चकित हुए किन्तु जज साहबके चेहरेपर अलौकिक आनन्दकी अद्भुत आभा खेल रही थी। वह शांत थे। लोगोंके बार-बार पूछनेपर बोले, ‘मैंने अपने हृदयकी तड़प मिटायी है, मुझे बहुत शांति मिली है।Ó दूसरेकी सेवा करनेमें हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। स्वयंको ही परिमार्जित करते हैं। एक हाथी जितना निकलनेका प्रयास करता, उतना अधिक कीचड़में धंसता जाता था। उसके निकलनेका एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्यकी गरमीसे सूख जाय। इसी तरह हम और आप भी संकल्पों-विकल्पोंके दलदलमें फंस रहे हैं। अपनी ओर देखनेका अभ्यास करें तब अपने आप ही ज्ञानकी किरणोंसे यह मोहकी कीचड़ सूख जायगी। स्वयंको कीचड़से बचानेका प्रयास करें। हम सबके लिए जियें तो फिर न युद्धका भय होगा, न असुरक्षाकी आशंका, न अविश्वास, न हिंसा, न संग्रह, न शत्रुताका भाव। सारे निषेधात्मक भावोंकी अस्वीकृति जीवन निर्माणका नया पथ रोशन करेगी। अध्यात्मके क्षेत्रमें अकेले जीनेकी बात आत्मविकासका एक सार्थक प्रयत्न है क्योंकि वहां शुद्ध आध्यात्मिक चिन्तन रहता है कि व्यक्ति अकेला जनमता है, अकेला मरता है। यहां कोई अपना-पराया नहीं। सुख-दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मोंका फल है। फिर क्यों किसीकी शरणमें जायं? क्यों किसीके लिए जिये? किन्तु जीवनकी व्यावहारिक भूमिकापर सबसे जुड़कर भी जो सिर्फ अपने लिए सोचता है वह किसी न किसी मोड़पर अकेला पड़ जाता है। उसका अहम ऊंचा उठता है परन्तु आदर्शोंकी मीनारें नीचे झुक जाती हैं। वह समाजमें अपनी पहचान बनाना चाहता है मगर यह भूल जाता है कि पहचानके लिए सुन्दर चेहरा नहीं, श्रेष्ठ चरित्र चाहिए जो सबके लिए सीख बन सके।