ऋतुपर्ण दवे
बाढ़की सर्वाधिक मार झेल रहे बिहारपर तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडि़त जवाहरलाल नेहरूने १९५३ में कहा था कि १५ वर्षोंमें इसपर काबू पा लिया जायगा। लेकिन ६८ वर्ष हो रहे हैं न तो बाढ़से होनेवाली तबाही ही थमीं और न ही देशमें इसका बढ़ता दायरा रुका। उल्टा उत्तराखण्ड, असम, जम्मू-कश्मीर, चेन्नई या देशके दूसरे हिस्से बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बनते जा रहे हैं। लगभग नौ हजार साल पहले हमारे पूर्वजोंने जब खेती शुरू की तब उपज बढ़ानेके लिए कई उपाय किये। सिंचाईकी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए नदियोंके किनारे बसना शुरू किया। तब जंगल, पहाड़, नदियोंके दोहनकी नीयत नहीं थी। खेतीके लहलहानेसे बड़ी संख्यामें लोग नदियोंके किनारे जा बसे। तब बारिश आजके मुकाबले बहुत ज्यादा होती थी। लेकिन प्रकृतिका प्रबंधन इतना मजबूत कि खतरा जैसा कुछ था ही नहीं। धीरे-धीरे विकास बढ़ा। जंगल कटने, पहाड़ गिट्टियोंमें बदलने, बड़े-बड़े बांध बनने, नदियोंका सीना छलनी होनेसे देखते ही देखते पुरातन प्राकृतिक व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न होती गयीं। नतीजा प्रकृतिने अपना नियंत्रण खो दिया। इनसानके हाथों रची विनाशलीला रौद्र रूपमें दिखने लगी। बाढ़से होनेवाली मौतोंमें बीस फीसदी भारतमें होती हैं। विश्व बैंकने भी इसे कुबूल किया है। इससे २०५० तक हमारी आधी आबादीके रहन-सहन और जीवन स्तरमें और गिरावट होगी। अब पृथ्वीपर १५० लाख वर्ग किमीमें केवल दस प्रतिशत हिमखंड बचे हैं जबकि कभी यह ३२ प्रतिशत भूभाग तथा ३० प्रतिशत समुद्री क्षेत्रोंमें था और हिमयुग कहलाता था। सबसे बड़े ग्लेशियर सियाचिनके अलावा गंगोत्री, पिंडारी, जेमु, मिलम, नमीक, काफनी, रोहतांग, व्यास कुंड, चन्द्रा, पंचचुली, सोनापानी, डाका, भागा, पार्वती, शीरवाली, चीता काठा, कांगतो, नन्दा देवी श्रंखला, दरांग, जैका आदि प्रभावित हुए जिनसे गर्मियोंमें जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, उतराखंड, हिमांचल, अरुणांचलमें सुहाने मौसमका लुत्फ मिलता है। लेकिन यहां भी पर्यावरणके दोहनका जबरदस्त दुष्परिणाम दिखने लगा।
वर्षाकी अधिकतावाले जंगलोंकी अंधाधुंध कटाईसे पराबैंगनी विकरणको सोखने और छोडऩेका संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। प्रतिवर्ष लगभग ७३ लाख हेक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं। ज्यादा रासायनिक खाद और अत्याधिक चारा कटनेसे मिट्टीकी सेहत अलग बिगड़ रही है। जंगली और समुद्री जीवोंका अंधाधुंध शिकार भी संतुलन बिगाड़ता है। बाकी कसर जनसंख्या विस्फोटने पूरी कर दी। बीसवीं सदीमें दुनियाकी जनसंख्या लगभग १.७ अरब थी, अब छह गुना ज्यादा ७.५ अरब है। जल्द काबू नहीं पाया तो २०५० तक दस अरब पार कर जायगी। धरतीका क्षेत्रफल तो बढ़ेगा नहीं तो उपलब्ध संसाधनोंके लिए होड़ मचेगी जिससे पर्यावरणकी सेहतपर चोट स्वाभाविक है। इसी तरह बांधोंके बननेका भी दुष्परिणाम सामने हैं। १९७१-७२ में फरक्का बैराजके बनते ही सूखे दिनोंमें गंगाका प्रवाह मध्दिम पड़ा जिससे नदीमें मिट्टी भरने लगी। नतीजन कटानसे नदीका रुख बदलने लगा। गंगाका पानी कहीं तो जाना था तो बिहार-उत्तर प्रदेशके तटीय क्षेत्रोंको चपेटमें लिया। उधर मध्यप्रदेशके शहडोल जिलेमें सोन नदीपर बाणसागर बांध बना। तयशुदा पनबिजली तो नहीं बनी अलबत्ता हर औसत बरसातमें मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेशके कई इलाके बाढ़से जूझने लगे। वहीं उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेशमें बाढ़की वजहें बीते दशकोंमें ताबड़तोड़ पनबिजली परियोजनाएं, बांधों, सड़कों, होटलोंका निर्माण और कटते जंगल हैं। अंग्रेजोंने दामोदर नदीको नियंत्रित करनेके लिए १८५४ में उसके दोनों ओर बांध तो बनवाये लेकिन १८६९ में ही तोड़ दिया। वह समझ चुके थे कि प्रकृतिसे छेड़छाड़ ठीक नहीं फिर दोबारा कभी बांध नहीं बनवाये। उल्लेखनीय है कि फरक्का बैराज और दामोदर घाटी परियोजना विरोधी एक विलक्षण प्रतिभाशाली इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य थे। ४४ वर्ष पहले ही उन्होंने जो प्रभावी और अकाट्य तर्क दिये, उसका खण्डन कोई नहीं कर पाया अलबत्ता उन्हें बर्खास्त जरूर कर दिया गया। अब उनकी बातें हू-ब-हू सच हो रही हैं। उन्होंने चेताया था कि दामोदर परियोजनासे पश्चिम बंगालके पानीको निकालनेवाली हुगली प्रभावित होगी, भयंकर बाढ़ आयगी। कलकत्ता बंदरगाहपर बड़े जलपोत नहीं आ पायंगे। नदीके मुहाने जमनेवाली मिट्टी साफ नहीं हो पायगी, गाद जमेगी, जहां-तहां टापू बनेंगे। दो-तीन दिन चलनेवाली बाढ़ महीनों रहेगी। सारा सच साबित हुआ, बल्कि स्थितियां और भी बदतर हुईं।
विश्व बांध आयोगकी रिपोर्ट कहती है कि भारतमें बड़े-बड़े बांधोंमें आधेसे ज्यादा ऐसे हैं, जिनमें विस्थापितोंकी संख्या अनुमानसे दोगुना है। वहीं दक्षता, सहभागिता, निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी जैसे पांच बुनियादी सिद्धान्तोंका क्रियान्वयन सुनिश्चित करने एवं बांधके दूसरे सारे विकल्पोंकी भली-भांति होनेवाली जांचें सवालोंमें है। योजनाओंको बनानेवाले ब्यूरोक्रेट्स तो सालों साल वही रहते हैं लेकिन उनको अमलीजामा पहनानेवाले जनतंत्रके डेमोक्रेट्स बदल जाते हैं। वैसे भी इन्हें रीति-नीति, सिद्धांतों और बादके प्रभावोंसे क्या लेना देना। जनप्रतिनिधि आंखें मूंद, बिना अध्ययन या विचारके अफसरोंके दिखाये ख्वाब स्वीकार लेते हैं। माना कि प्राकृतिक आपदाओंपर पूरी तरह अंकुश नामुमकिन है। लेकिन यह भी सही है कि प्रकृतिके क्रूर हरकतें बेतहाशा बढ़ रही हैं। अब भी वक्त है सभीको चेतना होगा वरना हर मौसममें प्रकृतिके अलग और विकारल रौद्र रूप झेलने तैयार रहना होगा। कभी हर गांवकी शान रहे पोखर, तालाब, कुंए, झरने सब सूख रहे हैं। आबादी तेजीसे बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघके आंकड़े बताते हैं कि १९९० से २०१० के बीच दुनियाकी आबादी ३० प्रतिशत यानी १.६ अरब बढ़ी है। इसमें सबसे आगे भारत ही है जिसकी आबादी ३५ करोड़ बड़ी जबकि चीनकी केवल १९.६ करोड़ ही बढ़ी। आबादी विस्फोट और संसाधनोंकी कमीं डराती है। प्राकृतिक स्त्रोतों और संसाधनोंमें तेजीसे कमीं आयी। इन्हीं दुष्परिणामोंसे पर्यावरण संतुलन और पृथ्वीकी सेहत बिगड़ी, प्रकृतिका नाश और मानवीय विकासके मूलके सचका रौद्र रूप दिखने लगा जो कड़वी सचाई है।