पटना

बिहारशरीफ: आखिर जदयू ने बदल ही डाला जिलाध्यक्ष को


  • विधानसभा में टिकट से वंचित रहने पर अध्यक्ष की पत्नी व जदयू नेत्री ने किया था महागठबंधन उम्मीदवार का प्रचार
  • चुनाव के दौरान जिलाध्यक्ष की भूमिका पर भी दल के ही नेता और कार्यकर्ता उठाते रहे थे सवाल

बिहारशरीफ (आससे)। विधानसभा चुनाव के बाद जदयू ने नयी तरीके से अपनी ताकत मजबूत करने की कवायद शुरू की है। इसके तहत कई जिलों के अध्यक्ष बदले गये। इसके साथ ही नालंदा जिला में भी जिलाध्यक्ष बदल दिया गया।

हालांकि विधानसभा चुनाव के पहले जब संगठन का चुनाव हुआ था तब ही अध्यक्ष बदलने के लिए जिले के कई जनप्रतिनिधि और प्रमुख लोग आतूर थे, लेकिन जिलाध्यक्ष द्वारा सदस्यता अभियान में दिखाई गयी सक्रियता से जिलाध्यक्ष के हुए चुनाव में वे अपनी कुर्सी बचा तो लिये थे, लेकिन दल के कई नेताओं के लिए वे किरकिरी बने हुए थे।

कई पुराने वर्कर जिलाध्यक्ष के तानाशाही से भी त्रस्त थे। लोगों ने अध्यक्ष को हटाने के लिए प्रयास किया, लेकिन अध्यक्ष का दांव चला और वे दोबारा कुर्सी पर काबिज हो गये थे। पहली बार ही जब उन्हें अध्यक्ष मनोनीत किया गया था तब ही पार्टी के पुराने और समर्पित लोगों ने विरोध शुरू किया था।

वजह थी कि शिक्षक की नौकरी कर रिटायर होने के बाद वे जिलाध्यक्ष के रूप में लांच हुए थे। तब से ही पार्टी के समर्पित लोगों को यह भा नहीं रहा था, जिन्होंने समता पार्टी के समय से ही पार्टी में अपनी ताकत लगायी थी। वे इस मनोनयन से नाराज चल रहे थे। समय के साथ-साथ कुछ लोग इसे भूल गये तो कुछ लोग जो विरोध में खड़े थे उन्हें अध्यक्ष ने संगठन से किक आउट भी किया। वजह रही कि लोगों का जुड़ाव संगठन से कम हुआ और अध्यक्ष तथा उनका गुट हावी होता चला गया। जो अंततः पार्टी के जनप्रतिनिधियों को भी सलाने लगा।

विधानसभा चुनाव के दौरान स्थिति यह हुई कि स्वयं जिलाध्यक्ष तथा उनकी पत्नी दोनों हीं पार्टी के प्रत्याशी बनना चाहे। जब टिकट नहीं मिली तो उनकी पत्नी जो जदयू की नेत्री थी और महिला प्रकोष्ठ की जिलाध्यक्ष भी रह चुकी है ने खुलकर पार्टी प्रत्याशी का विरोध किया। राजद के लिए वोट मांगी। चुनाव के दिन बूथ पर जदयू कार्यकर्ताओं से भिड़ी और जदयू के खिलाफ जिला प्रशासन में शिकायत भी की।

मजे की बात तो यह भी रही कि जब वो पार्टी के प्रत्याशी के पड़ रहे वोट का शिकायत जिला प्रशासन के अधिकारियों से कर रही थी तो उनके पति भी उनके साथ थे। यह कोई आम लोग नहीं बल्कि उस क्षेत्र से पार्टी के प्रत्याशी रहे का आरोप था। इसके साथ ही और भी कई शिकायतें थी। हालांकि पार्टी ने इसे गंभीरता से लिया था और चुनाव के अगले ही दिन उनकी पत्नी को पार्टी से निकाल दिया था।

तब से ही अध्यक्ष के खिलाफ भी उल्टी गिनती की चर्चाएं थी, लेकिन जब सरकार बनी तो फिर लोगों ने रिश्ता को प्रगाढ़ बनाने का प्रयास किया। एक श्राद्ध कर्म में शामिल होने आये सीएम के आगे-पीछे करती महिला नेत्री दिखी भी, लेकिन इसके साथ ही दल के नेताओं की सक्रियता भी बढ़ी। लोगों ने पूरी शिकायत सुप्रीमो तक पहुंचाया और अंततः नेतृत्व ने जिलाध्यक्ष बनारस प्रसाद सिन्हा को अध्यक्ष पद से बेदखल कर दिया। नये अध्यक्ष के रूप में पूर्व जिलाध्यक्ष रहे सियाशरण ठाकुर की नियुक्ति हुई।

सूत्रों की मानें तो पुराने जिलाध्यक्ष इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि वे जिस दरवाजे से अध्यक्ष पद पर बनकर आये है वे इस पर उसी के भरोसे कायम रह जायेंगे। लेकिन इस बार नेतृत्व ऐसे लोगों को तरजीह नहीं दी, जिन्होंने जिलाध्यक्ष के रूप में पहले तो मनमानी की और जब चुनाव का वक्त आया तो दल के प्रत्याशी का ही विरोध किया। चर्चाएं तो कुछ और भी है।

कहा तो यह भी जा रहा है कि पार्टी टिकट से बेदखल हुए एक पूर्व माननीय से भी इनका चुनाव के दौरान बेहतर रिश्ता रहा था और यह भी अध्यक्ष पद से हटने का एक वजह रहा। बात में कितना दम है यह तो पार्टी के लोग ही बतायेंगे, लेकिन बीच कार्यकाल में जिलाध्यक्ष का हटाया जाना इस बात को बल देता है कि निश्चित तौर पर कहीं ना कहीं शिकायतों की पुष्टि हुई होगी अन्यथा नालंदा जैसे जिले में बीच कार्यकाल में अध्यक्ष के बदले जाने को हल्के में नहीं लिया जा सकता।