सम्पादकीय

भक्तिका अर्थ


बाबा हरदेव

गुरुका ध्यान करके किया हुआ कर्म ही प्रधान हो जाता है। कई बार मनुष्य चालाकी भी कर जाता है। सोच लेता है कि आज भले मेला देखो, वहां हाजिरी तो लग ही जायेगी। यह दिमागकी चालाकी है। दिमाग जो सोचता है, उसमें बनावट होती है। वास्तवमें भक्ति दिमागका विषय नहीं, बल्कि हृदयका विषय है। जो अंदर-बाहरसे एक होकर निर्मल भावसे भक्तिमें लग जाते हैं, वास्तवमें उनका ही मुख उजला होता है तथा वे ही हर प्रकारके सुख प्राप्त करते हैं। सेवाका महत्व सेवादार ही समझता है। वही जानता है कि भक्ति क्या है। भक्त एक खिला हुआ फूल है और भक्ति उसकी महक है। भक्त हमेशा अर्पित भावसे जीवन व्यतीत कर देता है। इस निरंकार परमात्माके आगे सर्वस्व अर्पण कर देता है। हमारे शरीरपर लगा चेहरा, हमारे शरीरकी पहचान बनता है। इसी बातको जब दातने कहा तो उसके बाद इसके उलट भी एक बात ध्यानमें आयी कि शरीर, जिसका सिर नहीं, उसकी कोई पहचान नहीं है। इसी तरह जो अपने शीशको अर्पण कर देता है, उसकी अपनी पहचान बाकी रह नहीं जाती। वह जिसको शीश देता है, उस जैसा हो जाता है। भक्तकी यह भावना होती है कि सर्वस्व अर्पित कर दे। इसको अपने पास नहीं रखता। न हम किया न कर सकें, न कर सके शरीर। जो कुछ किया सो हरि किया, हुई कबीर कबीर।। वे अपने अहंकारमें यह नहीं कहते कि मैं करने वाला हूं, मैं यह सब करता हूं, मेरे पास बड़ी विद्या है, मैं बहुत नई चीजें बना लेता हूं। मेरे पास ऐसी अक्ल है कि मैं सबको हिला कर रख सकता हूं। ऐसा व्यक्ति तो अपने आपको ही कर्ता मान बैठता है, अपने सिरपर ही सेहरा बांधना चाहता है। भक्त महापुरुष सेवा करके भी कर्ता भाव नहीं रखते। सेवाका कर्ता खुदको न मान कर प्रभु की कृपा मानते और जानते हैं। महापुरुष जो भी कार्य करते हैं हमेशा अर्पण भावसे करते हैं। महापुरुष जो भी कार्य करते हैं, यही मानते हैं कि यह किस प्रकार भले काममें लग रही है और मैं कौन हूं करने वाला। दातार तू ही अवसर प्रदान कर रहा है, जो यह सेवाका मौका मिल रहा है। सेवा करते हुए मेवा भी तभी प्राप्त होता है जैसे कहा है हृदयसे जो सेवा करता है वह कोई स्वार्थ या लालसा रखे बिना ही इस सेवाके मार्गपर चलता है। ध्यान रहे, भक्ति तो संसार भी कर रहा है लेकिन परमात्माके बिना जाने जो भक्ति की जाती है, उसका कोई लाभ नहीं मिलता। भक्तिका आरंभ ही तब होता है जब प्रभुको पाकर इसके साथ नाता जोड़ लिया जाता है। यदि हमारे जीवनमें कोई आया ही नहीं तो हम प्यार किससे करेंगे। जैसे किसी मांकी गोदमें अगर बच्चा आया ही नहीं तो वह प्यार किससे करेगी। इसका स्नेह किसके साथ बनेगा। इस प्यार और मोहके लिए गोदमें बच्चा आना जरूरी है। जैसे बिजलीका कनेक्शन ही अगर हमारे घरतक नहीं आयए तो हम चाहे कितने ही बल्ब खरीद लें। उसका कोई फायदा नहीं। इसी प्रकार भक्तिकी पराकाष्ठा तभी सम्भव है जब भक्त परम प्रभुमें स्वयंका सर्वस्व लुटा दे।