सम्पादकीय

भयग्रस्त चित्त रुग्णताकी जननी


हृदयनारायण दीक्षित

विश्व मानवता विचार एवं बुद्धिसे संचालित है। हम इसके अविभाज्य अंग हैं। हम चिकित्सा विज्ञानमें यह समझते हैं कि विचारों और भावनाओंकी प्रकृति हमारी शारीरिक स्थिति तंत्र एवं क्रियाओंको निर्धारित करती है। 

विचार बुद्धिगत होते हैं और भावनाएं हृदयगत। दोनों हमारे अंत:करणको लगातार प्रभावित करते हैं। ऐसे प्रभाव शरीरकी तमाम गतिविधियोंमें हलचल पैदा करते हैं। भय मानवजातिकी बड़ी समस्या है। भय भविष्यकी चिंता है। यह भविष्यमें घटनेवाली कल्पित घटनाका मनपर पडऩेवाला प्रभाव है। भयकी कपकंपी वर्तमानमें घटित होती है। कल्पित घटना किसी भी रूपकी हो सकती है। जैसे हम सोचे कि ऋतु परिवर्तन हो रहा है, मैं बीमार हो सकता हूं। इसी तरह मैं लिफ्टमें हूं। यह फंस सकती है। परीक्षार्थी सोच रहा है कि वह असफल हो सकता है। अनेक लोगोंको ऊंचाईपर डर लगता है। मुझे स्वयं ऊंचाईपर डर लगता है। उत्तराखण्डके एक संसदीय कार्यक्रममें व्याख्यान था। मेरे रहनेकी व्यवस्था मंसूरीमें थी। मैने प्राकृतिक सुंदरताके लिए मंसूरी नगरका नाम सुन रखा था। मन प्रसन्न था। लेकिन पहाड़ काटकर बनायी गयी सड़कसे भयग्रस्त हुआ। कभी दाएं पहाड़ और दाएं सैकड़ों फिट नीचे घाटी और कभी बाएं पहाड़ और बाएं ऐसी ही घाटी। भयकी गहराई घाटीकी गहराईसे ज्यादा थी। शीर्षपर होटल। चारों ओर प्राकृतिक सौन्दर्य। लेकन होटलमें भी भयकी स्मृति थी। मैनें होटलके प्रबन्धकसे पूछा, क्या देहरादून जानेके लिए कोई दूसरी सड़क है? मैंने उसे भयकी बीमारी बतायी। वह हसा। दूसरी सड़क नहीं थी। कोलकातामें कुमार सभा पुस्तकालयके संचालनकर्ता प्रेमशंकर त्रिपाठीने मुझे व्याख्यानके लिए बुलाया। मैंने जहाजसे यात्रा की। रास्तेमें मौसमकी खराबीसे जहाज कई बार लडख़ड़ाया। मेरी भयग्रंथि कंपकपी करा रही थी। मैंने अपने व्याख्यानमें इस डरका उल्लेख किया, ‘वैदिक अनुभूतिमें आकाश पिता है और धरती माता है। पिता डांटते थे। पिता आकाशके पास डर स्वाभाविक है। धरती माताके सान्निध्यमें डरका कोई प्रश्न नहीं।

कोरोना महामारीको लेकर समूचा विश्व भयग्रस्त है। स्वस्थ सोच रहे हैं कि वह कोरोनाकी चपेटमें आ सकते हैं। कोरोना संक्रमित सोचते हैं कि वह अब नहीं बचेंगे। आक्सीजनके अभावकी खबरे भी डरानेका कारण बन रही हैं। समाचार माध्यम आशा बढ़ानेवाली शैली नहीं अपनाते। मृतकोंकी संख्यापर जोर रहता है। ठीक हुए लोगोंके विवरण प्राय: नहीं होते या बहुत कम होते हैं। भयका विचार शरीरके भीतर तमाम रासायनिक परिवर्तन लाता है। भय केवल विचार है। जो नहीं हुआ है, उसके होनेका कल्पित विचार। कोरोना महामारीसे उत्पन्न डरावने विचारने लाखों लोगोंके शरीरको कुप्रभावित किया है। शरीरकी क्षमता घट रही है। विचार मनुष्यके स्वास्थ्यपर प्रभाव डालते हैं। यह अच्छा हो सकता है और बुरा भी। रांडा बर्नकी सुंदर पुस्तक है ‘दि सीक्रेटÓ। इसमें एक अध्याय है-सेहतका रहस्य। उन्होंने डा. जॉन एफ डेमार्टिनीको उद्धृत किया है। डेमांर्टिनी चिंतक चिकित्सक एवं प्रख्यात वक्ता हैं। वह बताते हैं ‘उपचारके क्षेत्रमें हम प्लासीबो इफेक्टके बारेमें जानते हैं। प्लासीबो एक ऐसी नकली दवा है, जिसका शरीरपर कोई प्रभाव नहीं होता है। यह दवा नहीं, शक्करकी गोली होती है। आप मरीजको प्लासीबो देते समय कहते हैं कि यह प्रभावी दवा है और प्लासीबोका प्रभाव असली उपचारक दवा जैसा ही होता है। शोधकर्ताओंने पता लगाया है कि उपचारमें मस्तिष्क सबसे बड़ा तत्व है। कई बार तो यह दवासे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यहां विचारका प्रभाव बताया गया है। हम जैसा सोचते हैं, मन शरीरी क्षेत्रमें वैसा ही प्रभाव पड़ता है। उपनिषदके ऋषि यह बात जानते थे। मुण्डकोपनिषदमें कहते हैं ‘यं यं लोकं मनसा संविभाति-मनुष्य  जिस-जिस लोकका चिंतन करता है, भोगोंकी कामना करता है- कामान कामयते। वही सब प्राप्त करता है।Ó कामना विचार है। अभिलाषा भी है। उपनिषद अभिलाषाओंकी पूर्तिकी भी प्रतिभूति देती है। शरीरपर अभिलाषाका प्रभाव पड़ता है। हमारे सभी विचार शरीरके भीतर ही पैदा होते हैं। शरीर विचारके सर्वाधिक निकट है।

सद्विचार शरीरको स्वस्थ रखते हैं और भय, ईष्र्या-द्वैष शरीरको अस्वस्थ करते हैं। इनमें भी भयका विचार सर्वाधिक नुकसानदेह है। भारतीय चिंतनमें शुभ सोचनेका आग्रह है। इसका शरीरपर अच्छा प्रभाव पड़ता है। भयग्रस्त चित्तमें शुभ विचार नहीं उगते। भय स्वयं एक गहन विचार है। इसलिए अथर्ववेदमें भय दूर करनेकी स्तुतितियां हैं। दुर्गा सप्तशतीमें देवीसे प्रार्थना है कि वह हमको भयसे मुक्ति दिलायें- भयम्य स्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तुते। भयग्रस्त चित्त शरीरको तो रूग्ण करता ही है, उसकी सोच-विचारकी शक्ति भी दुर्बल होती रहती है। सभी विचार अपने-अपने ढंगसे जीवनको प्रभावित करते हैं। बेशक विचार पदार्थ नहीं है लेकिन उनका प्रभाव भौतिक पदार्थसे ज्यादा शक्तिशाली होता है। एक लोककथामें इसका मजेदार वर्णन है, एक व्यक्तिने बकरा खरीदा। वह बकरेको प्रसन्न मन अपने कंधेपर लादे घर जा रहा था कि आज इसके मांससे सुन्दर भोजन बनाऊंगा। चार लड़कोंने बकरा हथियानेकी योजना बनायी। एक लड़केने उसे टोंका-आप यह कुत्ता कितने रुपयेका लाये हैं। बकरेवाले व्यक्तिने डाटा ‘अबे! यह कुत्ता नहीं बकरा है। लड़केने कहा ‘यह कुत्ता है। आप इसे बकरा मानो मुझे क्या लेना-देना है? वह बकरा लादे आगे चला। दूसरे लड़केने फिर टोका, ‘अंकल यह कुत्ता लादे कहां जा रहे हैं? वह भड़का। यह कुत्ता नहीं बकरा है। आज रात डिनरमें इसका इस्तेमाल होगा। लड़केने कहा कि आपके साथ धोखा हुआ है। यह कुत्ता ही है। विचार उसको प्रभावित कर रहे थे। वह व्यक्ति घरकी ओर चला। मनमें बकरेको लेकर संशय बढ़ रहा था। तीसरा लड़का सामने था। बोला ‘सुन्दर कुत्ता है। सरजी कितनेमें लाये हैंÓ? वह आदमी झुझलाया। उसने बकरेको कंधेसे उतारा। जमीनपर रखा। उसके मुंहपर हाथ रखकर बोला। इसका मुंह कुत्ते जैसा है लेकिन है यह बकरा ही। थोड़ी दूर चलनेके बाद चौथा लड़का खड़ा था। उसने कहा ‘आपका कुत्ता अच्छी नस्लका है। मेरे पास भी ऐसा ही कुत्ता है। आप यह कुत्ता कंधेपर क्यों रखे हैं। उस व्यक्तिने बकरेको कंधेसे उतारा। उसने कहा, ‘बकरी विक्रेताने मेरे साथ धोखा किया है। पहले भी कई लोग इसे कुत्ता बता चुके हैं। यह मेरे किसी कामका नहीं। तुम कुत्तेके शौकीन हो। इसे ले जाओ। कथा दिलचस्प है। यहां व्यक्त विचारोंके प्रभावका उल्लेख है।