सम्पादकीय

भारत विरोधी दुष्प्रचारोंका जवाब


अवधेश कुमार      

जब कोरोना प्रकोप चरमपर था तो विदेशी मीडियामें भारत विरोधी दुष्प्रचार सहनशीलताकी सीमा पार कर गया। टाइम पत्रिकाने लिखा कि पहली बार भारतमें पाया गया कोरोना वायरसके बी १.६१७ वैरीएंटसे विश्वभरको खतरा पैदा हो गया है। यह ४४ देशोंमें पाया जा चुका है। ब्रिटेनके चीफ मेडिकल ऑफिसर क्रिस ह्विïटीका बयान था कि भारतमें मिला वैरीएंट ज्यादा संक्रामक है। वैरीएंटके लगातार मिलनेके बाद इस बातका खतरा ज्यादा है कि मरीजोंकी संख्या बढ़ सकती है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटीकी हेल्थ मैट्रिक्स इवेलुएशन इंस्टीट्यूट कह रहा था कि भारतमें हर दिन आठ लाख व्यक्ति संक्रमित हो रहे होंगे। उनका आकलन था कि मृतकोंकी सही संख्या ढाई लाख नहीं साढ़े सात लाख होगी। शोधकर्ताओंने कहा कि भारतमें कोरोना वायरसके प्रकोपकी सही तस्वीरका पता लगाना असंभव है। इन्होंने अगस्ततक मृतकोंकी संख्या १५ लाख होनेका अनुमान भी जता दिया। सोचिये किस तरह संघटित तरीकेसे भारतकी छवि तार-तार करनेका अभियान चल रहा था। विश्व स्वास्थ संघटनने सबसे पहले कहा कि नया वैरिएंट भारतमें ही पाया गया और ४४ देशोंमें पहुंचा है। विश्व स्वास्थ संघटनने कोरोना प्रकोपके दौरान ऐसा एक कदम नहीं उठाया जिससे विश्वको इससे लडऩेमें मदद मिले। कोरोनाका जो वायरस दिसंबर २०१९ में पाया गया उसका स्रोत वैज्ञानिकोंके अनुसार चीनका वुहान प्रांत था। विश्व स्वास्थ संघटन चीनको कुछ कहनेका साहस आजतक नहीं दिखा सका। उसने भारतमें कोरोनाकी दूसरे लहरके बारेमें भी कोई भविष्यवाणी नहीं की। हां, उसे नया वेरिएंटका स्रोत भारतमें अवश्य दिख गया। यदि यह ४४ देशोंमें पाया गया जिनमें अमेरिकाके साथ यूरोपके देश भी शामिल हैं तो क्यों न माने कि वैरीएंट इन्हींमें कहींसे निकला होगा। गहराईसे देखेंगे तो आपको भारत विरोधी दुष्प्रचारका एक अंतरराष्ट्रीय पैटर्न दिखाई देगा। लांसेट जैसी विज्ञानकी पत्रिकाने जिस तरह राजनीतिक लेख लिखकर वास्तविकतासे दूर भारतकी बिल्कुल भयावह विकृत तस्वीर पेश की और भारत सरकारको इस तरह लांछित किया मानो जानबूझकर मानवीय त्रासदीकी स्थिति तैयार की गयी। साफ था कि शत्रु चारों ओर सक्रिय थे। भारतके टीकेको कमतर बतानेका अभियान भी विश्व स्तरपर चल रहा है। कोरोनाकी पहली लहरमें जब भारतने अपने देशसे हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवाइयां विश्वभरको आपूर्ति करनी शुरू कर दी तब भी इसी तरहका दुष्प्रचार किया गया।

मेडिकल भाषाओंमें तथाकथित रिपोर्टोंको उल्लेखित कर कहा गया कि यह कोरोनामें प्रभावी ही नहीं है। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन जैसी सस्ती दवाके समानांतर दुनियाभरकी बड़ी कंपनियोंने अनेक महंगी दवाइयां, इंजेक्शन कोरोनाके नामपर बाजारमें झोंकी, उन्हें प्रभावी बताया और खूब मुनाफा कमाया। बादमें साबित हुआ कि वह दवाइयां अनुपयोगी और हानिकारक थीं। लेकिन जब अपने ही देशमें दुष्प्रचारकी बड़ी-बड़ी मशीनें नकारात्मक तथ्यों और आरोपोंका छिड़काव कर रही हों तो विदेशियोंका मुंह कैसे बंद किया जायगा। वैसी विकट स्थितिमें केंद्र एवं राज्य सरकारों, जिम्मेदार राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियोंके सामने एक ही रास्ता होता है, प्रत्युत्तर देनेमें उलझनेकी बजाय मिल-जुलकर पहले अमानवीय और क्रूर दौरका अंत करें। अब जब भारतने कोरोनाको नियंत्रित कर लिया है तो क्या इनका दायित्व नहीं बनता कि इसे भी स्थान दें। हालांकि उस दौरमें भी विश्व स्तरपर ही इनको प्रत्युत्तर मिलना आरम्भ हो गया था। उदाहरणके लिए यूरोपीय संघके मुख्यालय बेल्जियमकी राजधानी ब्रसेल्सकी प्रतिष्ठित वेबसाइट ईयू रिपोर्टरने अंतरराष्ट्रीय मीडियामें भारत विरोधी रिपोर्टका विश्लेषण कर सबको कटघरेमें खड़ा किया था। इसने लिखा कि न सही तथ्य देखे गये, न तथ्योंका विश्लेषण किया गया, बल्कि बड़ी दवा कम्पनियोंके प्रभावमें आकर भारतके बारेमें नकारात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत किये गये। ऐसे समय जब भारतके साथ खड़ा होना चाहिए मीडियाके इस समूहने निहायत ही गैर-जिम्मेदार भूमिका निभायी है। लांसेटकी आलोचना करते हुए बताया गया कि उसकी एशिया संपादक एक चीनी मूलकी महिला हैं, जिन्होंने भारतविरोधी लेख लिखा था। अमेरिकाकी ही जॉन हापकिंस यूनिवर्सिटीने दुनियाके कई देशोंके कोरोना संक्रमण और उससे होनेवाली मौतोंके आंकड़ोंका विश्लेषण करते हुए कहा कि भारत कोरोनासे होनेवाली मौतोंके मामलेमें अभी सबसे सुरक्षित देशोंमेंसे एक है। यूनिवर्सिटीने भारतको फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका, स्वीडन, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, ब्राजील जैसे देशोंकी तुलनामें ज्यादा सुरक्षित बताया। विश्वमें सबसे बेहतर स्वास्थ ढांचाका दावा करनेवाले देश अमेरिका विश्वमें कोरोनावाली मौतोंमें लगभग छह लाखके साथ सबसे ऊपर है। अमेरिकी मीडियाको यह दिखाई नहीं दिया कि भारत जैसे १३० करोड़वाले देशका आंकड़ा इससे आधेपर है। अच्छा है कि भारतने अपना धैर्य बनाये रखा है। भारत विरोधी दुष्प्रचारमें शामिल सबको उत्तर दिया जाना चाहिए लेकिन समयपर। हमारे देशने अपना एक स्वतंत्र टीका विकसित किया। डीआरडीओने जो २डीजी औषधि बनायी वह विश्वमें अपने किस्मकी अकेली कोरोना औषधि है। यह बड़ी उपलब्धियां हैं।

टीका बनानेवाले दूसरे देश भी अपना प्रचार कर रहे हैं। भारतमें अपने ही टीकेके बारेमें नकारात्मक धारणा फैलायी गयी। अभीतक किसी देशने भारतके बारेमें इस तरहकी टिप्पणी नहीं की। दिल्लीके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जब प्रतिदिन टीवीपर आकर आक्सीजनकी कमी और उसके कारण मरीजोंकी मौत और अस्पतालोंमें व्यवस्था न होनेकी विकृत राजनीति करेंगे तो यह विश्व मीडियामें भी जायगा। झूठकी आयु ज्यादा दिन नहीं होती। भारतके लिए विकट समय था। दूसरी लहरके आकलनमें चूक हुई, पहली लहरसे अनुभव लेकर जन-चेतनाको जागरूक करनेके लिए जो होना चाहिए था नहीं हुआ, स्वास्थ्य व्यवस्थामें जो सुधार चाहिए था ठीक प्रकारसे नहीं किया गया, समाजके स्तरपर भी लापरवाही ज्यादा बरती गयी, कुछ नेताओंने भी कोरोना कहां है, टीके नहीं लगायंगे जैसे बयानोंसे गलतफहमी पैदा की। भारतने इन सबका घातक दुष्परिणाम झेला है। जब झंझावात पूरी तरह थमेगा शोधकर्ता, विश्लेषक अनेक बातोंको फिरसे समझनेकी कोशिश करेंगे। विश्व स्तरपर दुष्प्रचारको तो उत्तर मिलेगा, यह भी देखा जायगा कि कोरोनासे घोषित मौतोंमें केवल कोरोनाके कारण कितनी मौतें हुईं, क्योंकि कोरोनासे हुई मौतोंमें बड़ी संख्या उनकी है जिनको कई प्रकारकी गम्भीर बीमारियां थीं और उसीमें वह संक्रमित भी हुए। दूसरे, निजी अस्पतालोंने मौतके आंकड़े बढ़ाने और तस्वीरको भयावह करनेमें कितनी बड़ी भूमिका निभायी। सचाई आज न कल उनसे पूछी जायगी। पूछा जायगा कि आपने अपने महंगे आईसीयूके लिए आक्सीजनकी व्यवस्था क्यों नहीं रखी।