सम्पादकीय

भावी पीढ़ीको युगानुरूप शिक्षाकी आवश्यकता


 आनन्द सिन्धदूत

शिक्षा व्यवस्थामें पाठ्यक्रम सम्बन्धी बदलाव जितना पिछले सौ-सवा सौ वर्षोंमें भारतमें हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ था। शायद इसका कारण ज्ञानके स्रोतोंमें विकासकी तेजी थी। विज्ञान, कला, व्यवसाय किसी भी क्षेत्रमें पिछली शताब्दियां अनुसन्धान और वैचारिक स्थापनाओंके लिए विशेष रूपसे जानी जायंगी। इन सूचनाओं और स्थापनाओंको पाठ्यक्रममें शामिल कर भावी पीढ़ीको युगानुरूप तैयार करते रहना समयकी आवश्यकता थी। किन्तु एक विचित्र वक्तव्यका प्रथाचार भी साथमें था। पिछले सौ वर्षोंमें कोई भी शिक्षा सम्बन्धी बातचीत बिना मैकालेका नाम लिये पूरी नहीं हुई। मैकाले भारतीय शिक्षा व्यवस्थाका आलोच्य वस्तु था। वह खलनायककी तरह प्रत्येक वक्ता द्वारा याद किया गया किन्तु यह पहलेसे भी अधिक आश्चर्यजनक है कि लोग मैकालेकी ओलाचेना करते हुए अनुयायी बनते रहे। उदाहरणके लिए मैकालेके कहनेका तात्पर्य यह था कि जिस पेशाके लोगोंकी कमी महसूस होती हो शिक्षामें उस पेशेके लोगोंको बढ़ावा देकर तैयार करो। आज मैकालेकी इसी नीतिका पालन हो रहा है। मैकालेके समयमें कार्यालयीय कर्मियोंकी आवश्यकता थी इसलिए क्लर्क और पेटी अफसर तैयार किये गये। आज हम देखते हैं कि इंजीनियरकी कमी पड़ रही है तो शिक्षाके द्वारा इंजीनियरोंकी संख्या बढ़ाते हैं और देखते हैं कि डाक्टरकी संख्या बढ़ानी है तो शिक्षामें तद्ïनुकूल व्यवस्था करते हैं। मैकालेका शत-प्रतिशत अनुकरण करते हुए आलोचना भी करना वैसा ही है जैसा कोई बूढ़ा धर्म नैतिकताकी दुहाई भी दे और गलत नीति भी अपनाये।

देशको जब और जैसी वृत्ति विशेषज्ञोंकी आवश्यकता हो शिक्षा तब-तब अपेक्षित गुणवत्ताकी प्रतिभाकी आपूर्ति करती रहे। यह उद्देश्यपरक व्यवस्था है। हम इसके लिए शासनकी प्रशंसा करेंगे कि बहुतांशमें शिक्षा उद्देश्यपरक रही। उद्देश्यपरक शिक्षामें अति दक्षिणपंथी और अति वामपंथी शक्तियां परस्पर विरोधी व्यावसायी वृत्तियां स्थापित करनेके लिए विवादरत रहीं और इन मान्यताओंके लिए संघर्ष भी हुए लेकिन अभिभावक यथार्थवादी दृष्टिïकोण अपनाये रहे और वर्तमान पीढ़ी वस्तुनिष्ठï शिक्षा प्राप्त करती रही। भारतकी संस्कृति आगुन्तुकों द्वारा विकसित होती रही है। यह संस्कृति विश्वमें अपने ढंगकी अकेली है। यह आगन्तुक काफिलोंके विचार आचरण खान-पान पहनावा युद्धशैली और ज्ञान-कला, कर्म-अनुष्ठïानके शिल्प सौन्दर्यके आपसमें मिलते चले जानेकी प्रेमपूर्ण कथा है। यह वह देश है जहां राम और रावणका युद्ध परिणाम अभी नहीं आया है। लड़ाई जारी है। राम-रावण, विभीषण, कृष्ण, अर्जुन, दुर्योधन इससे भी आगे अकबर-राणा प्रताप और बहुत पीछे देवता-राक्षस यक्ष-किन्नर, असुर नागकी तिथिहीन वंशावलियां और विजित-विजेता होकर भी मिल-जुलकर रहनेका लम्बा इतिहास है। इस सांस्कृतिक एकताको भी शिक्षामें स्थान देकर देशकी वीरता-शौर्य और स्वातंत्र्य प्रेमको नया स्वरूप और नयी परिभाषा देनी होगी। उदाहरणके लिए रावणका पुतला फूंकना और सही-गलत कहना गैर-जरूरी है, क्योंकि राम-रावणका सांस्कृतिक युद्ध अभी खत्म कहां हुआ है। रावणके वंशज तमिल पुतला फूंकनेके विरोधमें सेलममें जुलूस निकालते हैं। विभीषणके वंशज हालतक गृहयुद्धमें लीन थे। देशकी एकताके लिए यह भी उद्देश्यपरक शिक्षाका एक पक्ष है। शिक्षाका दूसरा पक्ष सूचनापरक है। ज्ञान-विज्ञानकी जितनी शोधपूर्ण सूचनाएं पिछली दो-तीन शताब्दियोंमें स्थापित हुई हैं उतनी पहले नहीं हुई थी। आज विज्ञान कला और व्यवसायका प्रत्येक विषय सूचनाओंसे ठसाठस भर गया है। अब समस्या विद्यार्थियोंके मन-मस्तिष्कमें इन सूचनाओंके अंटानेकी है। विद्यार्थियोंका झोला प्रतिदिन मोटा होता जा रहा है। बड़े विद्यार्थी सूचनाओंका भार मस्तिष्कमें सेट करते असामान्य रूपसे ध्यानस्थ दिखायी दे रहे हैं। अध्यापक जिम्मेदारी ढोते-ढोते विद्रोहमें लापरवाह हो रहे हैं। माता-पिता महंगी शिक्षाका भार बहुत देरतक सहनेकी स्थितिमें नहीं है। जैसे चना रखे हुए मिट्टïीके बर्तन अनाजके सांस लेनेपर चिटक जाते हैं कुछ ऐसा ही विस्फोट शिक्षा व्यवस्थामें हो सकता है। आरक्षणके द्वारा दो विपरीत धु्रवके छात्र एक साथ बैठ रहे हैं। कुछ छात्र जो अपना नाम नहीं लिख सके साजिशन इण्टर-बी.ए.में पहुंच गये हैं और उनके बगलमें वह छात्र भी हैं जो बीमारी और विक्षिप्त हो जानेकी हदतक अध्ययन कर रहे हैं।

व्यवस्थाको इन दोनों श्रेणियोंको अलग-अलग बैठाना होगा। शिक्षामें आरक्षण एक अस्वस्थ परम्परा है। विपन्न और जरूरतमंदको आर्थिक सहयोग दिया जाय लेकिन फारवर्ड बैकवर्ड और दलित कहकर नहीं। बच्चोंके साथ समानताका व्यवहार हो और विद्यार्थियोंको सजग रखनेके लिए उनको दिये गये आर्थिक सहयोगका परिणाम भी विवेचनाके अन्तर्गत रहे। अन्तिम प्रकाश कि हमारी संस्कृतिको रक्षात्मक मानकर शिक्षा नीति बनी है। इस नीतिसे वर्तमान हतोत्साहित और दब्बू हो रहा है। भविष्यकी राष्टï्रीय एकता और अखण्डता हमारे आक्रामक रुखसे ही बचेगी। हमारी नागरिकता बाहर न निकल पानेकी विवशतामें चिड़चिड़ी और कहलहरत है। इसके विपरीत अधिघर्षण और बाहर निकलकर छेड़छाड़ करनेवाली जनता मैत्रीपूर्ण प्रसन्नचित होती है। हमारी अधिकांश समस्याएं हमारे एग्रेसिव न होनेसे हैं।