सम्पादकीय

मनुष्यमें नैतिकताका संचार करता है गुरु


 डा. प्रदीप कुमार सिंह

भारतीय दर्शनके अनुसार गुरुशिष्यके लिए शैक्षिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है, जिसके आशीर्वादके बिना ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता। गुरु शब्दमें ही गुरु-महिमाका वर्णन है। श्रीगुरुगीताके अनुसार-

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।

अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न शंसय:॥

गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।

अन्धकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥ 

अर्थात्ï ‘गुÓ (अज्ञान रूपी) अन्धकार है एवं ‘रुÓ (ज्ञान रूपी) प्रकाश है। इस प्रकार नि:सन्देह समाजसे अज्ञान रूपी अंधकार दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाशका विस्तार करनेवाला ‘गुरुÓ ही ब्रह्मï है। अनेक ग्रंथ गुरुके महत्वका विस्तारसे वर्णन हैं। यह आवश्यक नहीं कि कोई सन्तवेषधारी या औपचारिक शिक्षा प्रदान करनेवाला शिक्षकको ही गुरु माना जाये और उसके समीप पहुंचकर ही ज्ञान प्राप्त किया जाय। मनमें सची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरुको किसी भी रूपमें कहीं भी पाया जा सकता है। एकलव्यने मिट्टीकी प्रतिमामें ही गुरुका दर्शन पाया। दत्तात्रेयने प्रकृतिमें चौबीस गुरुओंको खोजकर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया। गुरु गोविन्द सिंहने सन्तोंकी वाणीसे परिपूर्ण पवित्र ग्रंथको गुरुकी संज्ञा दी। निश्चय ही उत्तम साहित्य पाठकका मार्गदर्शन कर गुरुकी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी प्रकार आकाशवाणी एवं दूरदर्शनपर प्रसारित होनेवाले कुछ विशेष कार्यक्रम भी लाभ दायक हो सकते है। आधुनिक युगमें सूचना प्रौद्योगिकी एवं सोशल मीडियाके माध्यमसे भी विभिन्न विषयोंमें शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। एक जिज्ञासु एवं जागरूक नागरिक अत्यंत चतुराईसें किसी भी साधनसे उचित मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है। किसी भी अन्य भाषामें गुरुके लिए कोई वैकल्पिक शब्द नहीं है। भारतीय समुदायने प्राचीन कालमें ही गुरुके महत्वको गहराईसे समझाये और गुरुको प्रतीक रूपमें सम्मानित करनेके लिए महर्षि वेदव्यास जीकी स्मृतिमें भारतीय राष्ट्रीय कैलेंडरके अनुसार अषाढ़ मासकी पूर्णिमाको एक पवित्र त्योहार ‘गुरु पूर्णिमाÓ के रूपमें मनानेकी परम्परा है। महर्षि वेदव्यास जीने चारों वेद संपादित किये। उन्होंने अ_ïारह पुराण और कुछ अन्य पवित्र ग्रंथ भी लिखे। यह सभी ग्रंथ भारतीय संस्कृतिके आधार हैं एवं मानवको देशकालके अनुसार उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ एवं धर्म-अधर्मका बोध कराते हुए कर्तव्य पथको आलोकित करते हैं।

बढ़ती जनसंख्या, बदलती अर्थव्यवस्था और औद्योगीकरणके आधुनिक युगमें औपचारिक शिक्षाका स्वरूप पूर्णरूपेण बदल चुका है। आज शिक्षाका मुख्य उद्देश्य इसे रोजगारपरक बनाकर बेरोजगारी दूर करना और युवाओंको अधिकसे अधिक धन अर्जित करने योग्य बनाना है। साथ ही विज्ञान और तकनीकी विकासके नये-नये आयाम स्थापित कर देशको विकसित देशोंकी प्रतिस्पर्धामें रखना भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। शिक्षाके उद्देश्यके अनुरूप शिक्षण पाठ्यक्रम भी बदल चुका हैं। नैतिक शिक्षाका महत्व समाप्तप्राय है। युवाओंमें आत्मविश्वास घटता जा रहा है। अधिकांश युवा येन-केन-प्रकारेण अधिकसे अधिक धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व, सत्ता अर्जित करनेके लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं। परिणामस्वरूप समाजमें भ्रष्टाचरण बढ़ रहा हे। असुरक्षा एवं हताशा बढ़ती जा रही है। समाजमें मानवीय गुणों-विनम्रता, कर्तव्य परायणता, सहनशीलता (धैर्य), श्रमशीलता, संवेदनशीलता, कृतज्ञता, सत्यनिष्ठा आदिकी कमी एवं मनोविकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या, स्वार्थपरता, अतिमहत्वाकांक्षा आदिकी निरंतर बृद्धि हो रही है। दुखद है कि समाजमें विशेषकर (तथाकथित) बुद्धिजीवी वर्गमें शुभ-अशुभ, अच्छाई-बुराई, उचित-अनुचित, गुण-दोष एवं धर्म-अधर्मकी पहचान लगभग मिट चुकी है। यहांतक कि लोग राष्ट्रविरोधी तत्वोंका खुल्लमखुल्ला समर्थन करनेमें भी नहीं हिचकते और इसे लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं।

समयके साथ निरंतर मानवीय गुणोंकी कमी एवं मनोविकारोंमें बृद्धि एक सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है, इसे विचार प्रदूषण भी कहा जा सकता है। इसे वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक एवं शास्त्रीय सिद्धान्तोंके आधारपर समझा जा सकता है। यदि विचार प्रदूषण निर्बाध रूपसे बढ़ता रहे तो समाजमें आपराधिक प्रवृत्तिका बढऩा अवश्यमभावी है। समुचित सामाजिक विकासके लिए समाजमें आपराधिक प्रवृत्तिको नियंत्रित रखनेके लिए विचार प्रदूषणको नियंत्रित रखना आवश्यक है। इसके लिए समय-समयपर एक योग्य गुरुकी शिक्षाओंसे मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए अन्त:करणको शुद्ध रखना अनिवार्य है। देशमें अनेक सन्त-महापुरुष हुए है, जिन्होंने अपने विवेक एवं अनुभवके आधारपर धर्मका अनुसरण करते हुए जीवन यापन करनेके सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। इस संदर्भमें विभिन्न ग्रन्थोंके रूपमें महर्षि वेदव्यास जीका योगदान मानव समाज एवं देशके लिए अनुपम भेंट है।

मानव जीवनमें त्योहारों एवं अनुष्ठानोंके आयोजनका विशेष महत्व है। इनसे समाजमें नयी ऊर्जाका संचार होता है। गुरु पूर्णिमाके अवसरपर गुरु-पूजाका आयोजन कर, ग्रंथोंमें वर्णित शिक्षाओंसे प्रेरणा लेते हुए हम अपने अन्त:करणकी बैटरीको ऊर्जावान बनाकर विचार प्रदूषणको नियंत्रित कर, सकारात्मकताका संचार कर सकते हैं। कोरोनाकालकी असामान्य परिस्थितियोंमें उचित होगा कि इस त्योहारको पारिवारिक स्तरपर घरमें ही मनायें। महर्षि वेदव्यास एवं अन्य महापुरुषोंके योगदानको याद करें, ग्रंथोंकी पूजा करें। ग्रंथोंमें वर्णित मानव कल्याणकारी शिक्षापर संक्षिप्त नोट तैयार करें एवं उन्हें आधुनिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिस्थितियोंमें समझनेका प्रयास करें। दैनिक कार्य-कलापोंका आत्मनिरीक्षण करते हुए, शिक्षाओंको जीवनमें धारण करनेका संकल्प करें। आशा है, गुरु-पूर्णिमा उत्सव बच्चों एवं युवाओंको भारतीय संस्कृतिकी पहचान करायेगा एवं समाजमें नैतिकताके प्रचारमें एक नयी चेतनाका संचार करेगा।