सम्पादकीय

महबूबाके तालीबानीकरणका असर


 कुलदीप चंद

जबसे अफगानिस्तानके अधिकांश हिस्सेपर तालिबानने कब्जा कर लिया है और वहांके राष्ट्रपति अशरफ गनी भाग गये हैं, सेनाध्यक्षने बिना लड़े तालिबानी आतंकियोंके सामने विधिवत आत्मसमर्पण कर दिया है, तबसे भारतमें भी कुछ लोग तालिबानके समर्थनमें खड़े नजर आ रहे हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीरकी कश्मीर घाटीकी महबूबा मुफ्तीने तालिबानका उदाहरण देकर भारतको एक प्रकारसे धमकियां ही देनी शुरू कर दी हैं। महबूबा मुफ्तीने भारतको कहा है कि वह कश्मीरको लेकर अब भी पाकिस्तानसे बात कर लेए अन्यथा अफगानिस्तानमें जो तालिबान आतंकियोंने किया है, वह कश्मीर घाटीमें भी हो सकता है। महबूबाने कहा कि अब भी समय है कि भारत कश्मीरपर पाकिस्तानसे बात करे, अन्यथा बहुत देर हो जायगी। संकेत स्पष्ट है कि कश्मीर घाटीका हाल भी वही होगा जो तालिबान आतंकियों ने अफगानिस्तान का किया है। यह सभी जानते हैं कि तालिबानका निर्माण पाकिस्तानकी सेना और आईएसआईने ही किया है। महबूबा शायद यही संकेत देना चाहती है कि यदि पाकिस्तानसे बात न की तो वही तालिबान कश्मीर घाटीका भी वही हाल करेगा। महबूबा जैसे कुछ लोग अफगानिस्तानमें जो कुछ हुआ है, उसे तालिबान द्वारा अफगानिस्तानको स्वतंत्र करवाना भी बता रहे हैं। यानी महबूबा धमकी दे रही है कि यदि कश्मीर घाटी को लेकर भारतने पाकिस्तानसे बात न की तो तालिबान आतंकी अफगानिस्तानकी तरह कश्मीर घाटीको भी भारतसे छीन सकते हैं।

महबूबा मुफ्ती कौन है। साधारण-सा उत्तर तो यही है कि वे मरहूम सैयद मुफ्ती मोहम्मदकी बेटी हैं। कुछ अरसाके लिए जम्मू-कश्मीरकी मुख्य मंत्री भी रह चुकी हैं। आजकल एक राजनीतिक दल पीडीपीकी अध्यक्षा हैं। लेकिन प्रश्न है कि वह कश्मीर घाटीमें किसका प्रतिनिधित्व करती हैं और किसकी ओरसे भारतको इस प्रकारकी धमकियां दे रही हैं। कश्मीर घाटीकी जनसंख्या लगभग ६८ लाख है। यह जनसंख्या अनेक समूहों ें विभाजित है। बड़ा हिस्सा तो कश्मीरियोंका ही है, चाहे उनका मजहब इस्लाम, हिंदू, सिख, शिया संप्रदाय इत्यादि कोई भी हो। लेकिन बहुत बड़ी संख्या गुज्जरोंकी भी है। कुछ संख्या शीना समाजकी भी है। कुछ मोनपा भी हैं। कश्मीर घाटीमें दो-तीन प्रतिशत संख्या एटीएमकी है। एटीएमसे मतलब अरब सैयद, तुर्क, मुगल मंगोलसे है। ये लोग आक्रमणकारियोंके साथ मध्य एशियाके विभिन्न हिस्सोंसे आये थे। तबके शासकोंने इन्हें घाटीमें जागीरें दीं। अरब सैयद तो तैमूरलंगसे पिटते हुए भाग कर कश्मीर घाटीमें आये थे। इनकी बदतर हालत देखकर कश्मीरियोंने इन्हें शरण दी। भारतीय संविधानके अनुच्छेद ३७० की आड़में एटीएम समुदायने एक प्रकारसे समस्त कश्मीरी समाजको बंधक बनाकर रखा था। एटीएमकी दृष्टिमें जब कश्मीरी ही कहीं नहीं ठहरते तो गुज्जरोंकी भला क्या औकात। महबूबा इसी एटीएम समुदायसे ताल्लुक रखती हैं। कश्मीरियोंका दुर्भाग्य ही कहा जायगा कि अबतक जम्मू-कश्मीरमें जितने मुख्य मंत्री हुए वे सभी इसी एटीएम समाजके थे। शेख मोहम्मद अब्दुल्लाने अपने राजनीतिक जीवनकी शुरुआत तो एटीएमके विरोधसे ही की थी, लेकिन १९५३ के बाद वे और उनका कुनबा निरंकुश सत्ताके लालचमें एटीएमकी गोदमें ही समा गये। बख्शी गुलाम मोहम्मदने जरूर एटीएमसे दूरी बनाये रखी, लेकिन कांग्रेसने शेख अब्दुल्लाके साथ मिलकर उसका जो हश्र किया, सभी जानते हैं।

कश्मीर घाटीमें एटीएम समाजकी संख्या चाहे आटेमें नमकके बराबर भी नहीं है, लेकिन कश्मीरियोंके मजहबी और राजनीतिक जीवनपर उनका शिकंजा पूरा है। कश्मीर घाटीकी सभी बड़ी मस्जिदोंपर सैयद मौलवियोंका ही कब्जा है। कोई कश्मीरी इन मस्जिदोंका मौलवी बननेका स्वप्न भी नहीं ले सकता। कुरान शरीफका अध्ययन तो इतने लंबे अरसेमें कश्मीरियोंने भी कर ही लिया है। सब मुफ्ती, पीरजादे, एटीएम समुदायसे ही ताल्लुक रखते हैं। अच्छे पद और बड़ी नौकरियां इन्हींके लिए सुरक्षित हैं। एटीएमका कष्ट तो यह है कि जिन कश्मीरियोंने सैकड़ों सालसे इस्लाम मजहब या शिया मजहबको स्वीकार भी कर लिया है, वे अबतक अपनी सांस्कृतिक जड़ोंसे पूरी तरह टूटे नहीं हैं। सैकड़ों सालसे हिंदुस्तानमें रहनेके बावजूद इस समाजके लोग कश्मीरकी मूल चेतनाको अपना नहीं पाये और अब भी अपनी विदेशी सांस्कृतिक चेतना और मूल्योंसे जुड़े हैं। वे बड़े गौरवसे अपने नामके आगे हमदानी, करमानी, अन्द्राबी, बुखारी, मुगल, सैयद इत्यादि लिखकर अपनी मूल सांस्कृतिक चेतनाकी घोषणा भी करते हैं। प्राकृतिक नियमके अनुसार तो एटीएमके लघु समाजको कश्मीरकी सांस्कृतिक चेतनामें स्वयंको समाहित करना चाहिए था लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। वह आज भी अपने मूल्योंपर कश्मीरियोंको बंधक बनाकर रखना चाहता है। अधिकांश कश्मीरियोंको मतांतरित कर इस्लाम मजहबमें दीक्षित तो कर लिया गया था लेकिन उनका अरबीकरण नहीं हो सका था। उसके इस अरबीकरण अभियानको ज्यादा शह १९४७ के बाद तब मिला जब भारत सरकारने संविधानमें अनुच्छेद ३७० का समावेश करके कश्मीर घाटीको एक प्रकारसे देशकी मुख्य धारासे अलग कर दिया।

अनुच्छेद ३७० की चारदीवारीके भीतर सत्ता एक प्रकारसे एटीएम समाजके हाथ ही आ गयी। अनुच्छेद ३७० एटीएमके इस अरबीकरण अभियानकी परोक्ष रूपमें सहायता कर रहा था। इस अनुच्छेदके कारण भारतके संविधानके महत्वपूर्ण हिस्से कश्मीर घाटीपर लागू नहीं होते थे। धीरे-धीरे भारत सरकार अनुच्छेद ३७० के इस कश्मीर विरोधी और भारत विरोधी चरित्रको समझने लगी थी और उसने पांच अगस्त २०१९ को अनुच्छेद ३७० को निरस्त कर दिया। यह एटीएम समाजकी बहुत बड़ी हार थी। उसे आशा थी कि आम कश्मीरी समाज उसका साथ देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि आम कश्मीरीने मुक्तिकी सांस ली। आतंकवादी अकेले पड़ते गये और बड़ी संख्यामें सुरक्षाबलोंके हाथों मारे भी गये। एटीएम समाजके कि़लेमें दरारें पडऩे लगीं। अब महबूबा कश्मीरके लिए पाकिस्तानसे बातचीत करनेके लिए कह रही हैं। उसका कहना है कि तालिबानको अफगानिस्तानमें शरीयतको सख्तीसे लागू करना चाहिए। पाकिस्तान और तालिबानके रिश्तेको वे अच्छी तरह जानती ही हैं। यह महबूबा मुफ्ती नहीं बोल रही हैं, बल्कि यह एक प्रकारसे कश्मीर घाटीमें बैठा एटीएम समाज बोल रहा है। लेकिन एटीएमकी सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि जिस अनुच्छेद ३७० की छत्रछायामें यह समाज फल-फूल रहा था, वह छत्रछाया समाप्त हो गयी है। अब सचमुच कश्मीरी जनता अपना नेतृत्व निर्माण कर रही है। पिछले दिनों जिला विकास परिषदोंके चुनाव इसका सबूत है। एटीएमका प्रतिनिधित्व कर रही हुर्रियत कान्फ्रेंस और जमायत-ए-इस्लामी जैसी तंजीमें हाशियेपर चली गयी हैं। उनके धनके स्रोत सूख रहे हैं। आम कश्मीरी राहतकी सांस ले रहा है और खास एटीएमका सांस फूल रहा है। महबूबाकी धमकियां उसी फूल रहे सांसमेंसे निकली हैं।