सम्पादकीय

मानसूनपर टिकी किसानोंकी आस


अनिल जैन

भारतमें मानसूनको लेकर मौसम विभागका अनुमान आमतौरपर गलत ही साबित होती है। इस बार भी मौसम विभागने मानसून समयपर आनेकी भविष्यवाणी करते हुए १०४ से ११० फीसदी वर्षाकी संभावना जतायी है। इस स्थितिको सामान्यसे अधिक वर्षा माना जाता है, लेकिन मौसम विभागका यह अनुमान हकीकतसे दूर नजर रहा है। मानसूनकी आमदमें हो रही देरीसे पिछले दिनों बेमौसम बारिशकी मार झेल चुके कृषि क्षेत्रका संकट और गहरा हो गया है। केंद्र सरकारके बनाये तीन कृषि कानूनोंसे पैदा हुआ संकट भी अभी कायम है। दिल्ली सहित उत्तर भारतके मैदानी इलाकोंके किसानोंको मानसूनका इंतजार बना हुआ है। मानसूनके अभावमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेशके अधिकांश जिलोंमें सूखेके हालात बने हुए हैं। निजी मौसम पूर्वानुमान एजेंसी स्काईमेट वेदरके अनुमानके मुताबिक ९ जुलाईसे बंगालकी खाड़ीसे पूर्वी हवाएं चलेंगी। इसके बाद ही देशके बाकी हिस्सोंमें मानसून आगे बढ़ेगा। कृषि विशेषज्ञोंका कहना है कि मानसूनकी धीमी गतिकी वजहसे प्रमुख खरीफ फसलों दलहन, तिलहन, धान और मोटे अनाजकी बुवाईमें देरी हुई है। यदि एक सप्ताह और बारिश नहीं हुई तो देशके कुछ हिस्सोंमें फिरसे बुवाई करनी पड़ सकती है। सूखेकी आशंकाने न सिर्फ किसानोंकी सिहरन बढ़ा दी है, बल्कि उद्योगजगत भी सहमा हुआ है। आसन्न सूखेके खतरेसे महंगीके और बढऩेकी आशंका भी है।

नतीजतन औद्योगिक विकास दरके घटनेका भी अंदेशा बढ़ गया है। इस बार कम बारिशसे स्थिति इसलिए भी अधिक भयावह हो सकती है, क्योंकि देश पिछले साल भी कम बारिशकी मार झेल चुका है। रही-सही कसर पिछले दिनों आये दो-दो भीषण तूफानों और उनकी वजहसे हुई बेमौसम बरसातने पूरी कर दी है। ऐसेमें साफ है कि कमतर बारिश किसानोंके साथ समूची अर्थव्यवस्थाकी कमर तोड़ सकती है। मौसमके बदलते तेवरोंके साथ बेमौसम बारिश और ओलावृष्टिसे तहस-नहस खेतीके बाद मानसूनपर टिकी किसानोंकी आस अभीसे छूटती दिख रही है। लेकिन मामला इतनेपर ही खत्म नहीं हो रहा है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियोंकी माने तो प्रशांत महासागरका तापक्रम बढऩेसे उत्पन्न होनेवाला अल नीनोका दैत्य अगले सालके मानसूनतक भी असर डाल सकता है। ऐसी भयंकर आशंकाएं यदि सही साबित हुई तो इसका असर न केवल किसानोंको, बल्कि देशकी विशाल आबादीको गहरे जख्मोंसे भरकर रख देगा। यह प्राकृतिक कारण नहीं है, बल्कि भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्थाका नतीजा है कि न तो सिंचाईके मामलेमें आत्मनिर्भर हो पाये और न ही व्यर्थ बह जानेवाले वर्षा-जलके संग्रहण और प्रबंधनकी कोई ठोस प्रणाली विकसित कर सके। आजादीके बादकी हमारी समूची राजनीति इस बातकी गुनहगार है कि जिस तरह उसने देशके सभी लोगोंको स्वच्छ पानी पीनेके अधिकारसे वंचित रखा, वैसे ही फसलोंके लिए भी पानीका पर्याप्त इंतजाम नहीं किया। वैसे देशमें खेतीकी बदहाली हालके वर्षोंकी कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादीके पूर्व ब्रिटिश हुकूमतके समयसे ही हो गयी थी। अंग्रेजोंसे पहलेके राजे-रजवाड़े खेतीके महत्वको समझते थे। इसलिए वह किसानोंके लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवानेमें दिलचस्पी लेते थे। वह यह अच्छी तरह जानते थे कि किसानकी जेब गरम रहेगी तो ही हम तमाम मौज-शौक कर सकेंगे।

भारत ही नहीं, कृषिपर आधारित दुनियाकी किसी भी सभ्यतामें नहरोंका केंद्रीय महत्व हुआ करता था। यही नहरें उनकी जीवनरेखा होती थीं। भारतमें इस जीवनरेखाको खत्म करनेका पाप अंग्रेज हुक्मरानोंने किया। जहां-जहां उन्होंने जमींदारी व्यवस्था लागू की वहां-वहां नहरें या तो सूख गयीं या फिर उन्हें पाट दिया गया। भ्रष्ट और बेरहम जमींदार पूरी तरह अंग्रेजपरस्त थे और राजाओंके कारिंदे होते हुए भी अंग्रेजोंको ही अपना भगवान मानते थे। किसानोंकी समस्याओंसे उनका दूर-दूरतक कोई सरोकार नहीं था। उन्हें तो बस किसानोंसे समयपर लगान चाहिए होता था। समयपर लगान न चुकानेवाले किसानोंपर जमींदार तरह-तरहके शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जुल्म ढाते थे। रही-सही कसर सूदखोर महाजन पूरी कर देते थे, जो किसानोंको कर्ज और ब्याजकी सलीबपर लटकाये रहते थे तो इस तरह ब्रिटिश हुक्मरानोंके संरक्षणमें, जालिम जमींदारों और लालची महाजनोंके दमनचक्रके चलते भारतीय खेतीके सत्यानाश सिलसिला शुरू हुआ, जो बदले हुए रूपमें आज भी जारी है।

आजाद भारतके हुक्मरान चाहते तो भारतीय खेतीको पटरीपर लानेके ठोस जतन कर सकते थे, लेकिन गुलामीके कीटाणु उनके खूनसे नहीं गये। उनकी भी विकासदृष्टि अपने पूर्ववर्ती गोरे शासकोंसे ज्यादा अलहदा नहीं रह पायी। उनके लिए देशकी किसान बिरादरीका महत्व इतना ही था कि वह अन्नके मामलेमें देशको आत्मनिर्भर बना सकती है। चूंकि उनकी समझ यह बनी है कि जरूरत पडऩेपर विदेशोंसे भी अनाज मंगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कभी यह महसूस ही नहीं किया कि खेती समद्ध हो और किसान खुशहाल बने। नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खादके जरिये जो हरित क्रांति हुई, वह अखिल भारतीय स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश जैसे देशके उन्हीं इलाकोंमें देखनेको मिला, जहांके किसान खेतीमें ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे। शासक वर्गका मकसद यदि आम किसानोंको समृद्ध बनानेका होता तो देशके उन इलाकोंमें नहरोंका जाल बिछा दिया जाता, जहां सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। ऐसा होता तो खेतीकी लागत भी कम होती और कर्जकी मार तथा मानसूनकी बेरुखीके चलते किसानोंको आत्महत्या करनेपर मजबूर नहीं होना पड़ता। विश्व बैंकके एक आकलनके अनुसार भारतकी कुल खेतीके मात्र ३५ प्रतिशत हिस्सेको ही सिंचाईकी सुविधा उपलब्ध है। यानी लगभग दो-तिहाई खेती आसमान भरोसे है। जिस देशकी लगभग दो-तिहाई आबादीकी जीविका खेतीसे जुड़ी हुई हो, उसकी एक अनिवार्य जरूरत यानी सिंचाईकी इस उपेक्षाको आपराधिक षड्यंत्रके अलावा और क्या कहा जा सकता है। देशके अधिकांश क्षेत्रोंमें बिजली सरकारी सेक्टरमें है, परन्तु वह गांवोंको इतनी बिजली नहीं दे सकता कि किसान दिनमें अपने खेतोंकी सिंचाई कर रातको चैनकी नींद सो सके। गांवोंमें बिजली रातमें आती है और वह भी कुछ घंटोंके लिए। क्या यह किसी लोकहितकारी व्यवस्थाका लक्षण है कि अपना पैसा खर्च कर धरतीसे पानी निकालनेके लिए किसानोंको रात-रातभर जागना पड़े। देशकी आजादीके आठवें दशकमें भी देशके आधेसे अधिक किसान मानसूनकी मेहरबानीपर जिंदा हैं। यह तथ्य अपने आपमें इस बातका प्रमाण है कि हमारा व्यवस्था तंत्र अभी बुनियादी जिम्मेदारीसे कोसों दूर है।