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मानसून 2023 पर मंडरा रहा अल नीनो के प्रभाव का खतरा, हालात को और बिगाड़ेगा जलवायु परिवर्तन


नई दिल्ली। ला नीना प्रभाव अब विदाई की ओर है। एशिया पैसेफिक सागर के सर्द तापमानों में अनियमितताओं के साथ इसका असर अब खत्म होने को है। एनओएए (नोआ) के ताजा पूर्वानुमानों के मुताबिक ला नीना से ईएनएसओ-न्‍यूट्रल में रूपांतरण का अधिकांश दौर फरवरी-अप्रैल 2023 में गुजरेगा। यह 21वीं सदी में ला नीना में हुई पहली तिहरी पुनरावृत्ति है, और अब तक का सबसे लंबा चलने वाला दौर भी है।

उत्‍तरी गोलार्द्ध में ला नीना का प्रभाव लगातार तीसरी बार पड़ना एक दुर्लभ घटना है और इसे ‘ट्रिपल डिप’ ला नीना के तौर पर जाना जाता है। आंकड़ों के मुताबिक लगातार तीन बार ला नीना का प्रभाव वर्ष 1950 से अब तक सिर्फ दो ही बार पड़ा है। ऐसा वर्ष 1973-1976 और 1998-2001 के बीच हुआ था। नोआ के मुताबिक ला नीना प्रभाव की सबसे लंबी अवधि 37 महीनों की थी और यह वर्ष 1973 के वसंत से 1976 के वसंत तक रही थी। उसके बाद वर्ष 1998-2001 के बीच इसका प्रभाव 24 महीनों से ज्‍यादा वक्‍त तक रहा था।

ज्‍यादातर माडल्‍स यह इशारा देते हैं कि फरवरी-अप्रैल 2023 तक ईएनएसओ-न्‍यूट्रल की वापसी होगी और इसकी संभावना 82 प्रतिशत तक है। मगर सबसे ज्‍यादा फिक्र की बात यह है कि अल नीनो जैसे खतरनाक प्रभाव की वापसी हो रही है। जलवायु परिवर्तन से जुड़े माडल्‍स के अनुमानों के मुताबिक अल नीनो का प्रभाव मई-जुलाई के दौरान लौटने की संभावना है। यह अवधि गर्मी और मानसून के मौसम को आपस में जोड़ती है। मानसून की अवधि जून से सितंबर के बीच मानी जाती है।

अल नीनो और दक्षिण-पश्चिमी मानसून के बीच सम्‍बन्‍ध

अल नीनो निरपवाद रूप से खराब मानसून से जुड़ा होता है और इसे एक खतरे के तौर पर देखा जाता है। आंकड़ों के मुताबिक अल नीनो वर्ष होने पर देश में सूखा पड़ने की आंशका करीब 60 प्रतिशत होती है। इस दौरान सामान्‍य से कम बारिश होने की 30 प्रतिशत सम्‍भावना रहती है, जबकि सामान्‍य वर्षा की मात्र 10 फीसद संभावनाएं ही बाकी रहती हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक जहां तक अगर गर्मी के मौसम में अल नीनो प्रभाव पड़ता है तो वर्षा में कमी आने की संभावना ज्‍यादा बढ़ जाती है। ला नीना सर्दी (हम अभी जो महसूस कर रहे हैं) से ग्रीष्मकालीन एल नीनो स्थिति में रूपांतरण होने से मानसून में सबसे बड़ी कमी (15 प्रतिशत) का खतरा होता है। इसका मतलब यह है कि प्री-मानसून और मानसून परिसंचरण कमजोर हो जाते हैं।

अल नीनो प्रभाव का कोई निश्चित नियम कायदा नहीं होता जिससे यह पता लगे कि उसका व्यवहार कैसा होगा और वह कैसे आगे बढ़ेगा। मिसाल के तौर पर वर्ष 1997 में सबसे ताकतवर अलनीनो प्रभाव होने के बावजूद मानसून में 102 प्रतिशत वर्षा हुई थी। वहीं वर्ष 2004 में अलनीनो का प्रभाव कमजोर होने के बावजूद गंभीर सूखा पड़ा था और देश का लगभग 86 प्रतिशत हिस्सा इसकी चपेट में आया था।

वर्ष 2009 से 2019 के बीच के आंकड़ों को देखें तो ऐसे चार मौके मिलते हैं जब सूखा पड़ा था। वर्ष 2002 में भारत में बारिश की मात्रा में 19 प्रतिशत और 2009 में 22 प्रतिशत की गिरावट हुई थी। इन दोनों वर्षो को गंभीर सूखे वाले सालों के तौर पर जाना जाता है। इसी तरह वर्ष 2004 और 2015 में भी वर्षा में 14-14 प्रतिशत की गिरावट आई थी और यह दोनों साल भी सूखे के गवाह बने थे। पिछले 25 वर्षों में सिर्फ एक ही ऐसा मौका (1997) गुजरा है जब अलनीनो के प्रभाव के बावजूद देश में 2 प्रतिशत अतिरिक्त यानी कुल 102 प्रतिशत बारिश हुई थी।

स्काईमेट वेदर के मौसम विज्ञान एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के अध्यक्ष जी पी शर्मा ने कहा “अल नीनो प्रभाव का पूर्वानुमान अगले नौ महीनों के लिए उपलब्ध है। हालांकि इस समय चार महीने से अधिक के समय के लिए माडल की सटीकता आमतौर पर कम होती है फिर भी इस समय के आसपास संकेत किए गए अलनीनो का पिछला रिकार्ड खराब दक्षिण पश्चिमी मानसून का एक सुबूत है। दिसंबर 2013 और दिसंबर 2017 के ईएनएसओ के पूर्वानुमान दिसंबर 2022 की तरह ही थे। इन दोनों वर्षों में दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी वर्षा देखी गई थी जिसकी वजह से 2014 में मध्यम सूखा और 2018 में पूर्ण सूखा पड़ा था।

इससे पहले वर्ष 2003 और 2008 में भी अलनीनो प्रभाव की तर्ज इसी तरह बहुत खराब साबित हुई थी, जिसकी वजह से 2004 और 2009 में भारत में मानसून पर बहुत बुरा असर पड़ा था और यह दोनों ही साल सूखे के गवाह बने थे। शुरुआती अनुमानों से संकेत मिलता है कि ईएनएसओ तेजी से बढ़ रहा है और अल नीनो प्रभाव भी मानसून के समय तेजी से बढ़ता है। अभी तक नीनो 3.4 रूपी प्रमुख संकेतक अपनी जगह कायम हैं और नकारात्मक विसंगतियां अब भी बनी हुई हैं।