सम्पादकीय

राजद्रोह कानूनपर सुप्रीम सवाल


डा. सुशील कुमार सिंह    

जुलाई २०१९ में राज्यसभामें एक प्रश्नके जवाबमें जब स्वराष्टï्र मंत्रालयने कहा कि देशद्रोहके अपराधसे निबटनेवाले भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के प्रावधानको खत्म करनेका कोई प्रस्ताव नहीं है तब इसके खात्मेंकी बाट जोहनेवालोंको नाउम्मीदी मिली थी। सरकारने यह भी कहा कि राष्टï्रविरोधी तथ्योंका प्रभावी ढंगसे मुकाबला करनेके लिए प्रावधानको बनाये रखनेकी आवश्यकता है। नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरोके आंकड़ेपर नजर डाले तो भारतमें साल २०१५ में ३०, २०१६ में ३५, २०१७ में ५१ और २०१८ में ७० समेत एवं २०१९ में ९३ राजद्रोहके मामले दर्ज हुए। यदि २०१९ के आंकड़ेका विश्लेशण करे तो ९३ राजद्रोहके मामले दर्ज हुए और ९६ लोगोंकी गिरफ्तारी हुई। इनमेंसे ७६ के खिलाफ चार्जशीट दायर की गयी जबकि २९ को बरी कर दिया गया। इन सभीमेंसे मात्र दोको अदालतने दोषी ठहराया। स्पष्टï है कि राजद्रोहका मामला दर्ज होना और दोषी सिद्ध होना दोनोंमें व्यापक अंतर है। कहीं न कहीं यहां इसका उपयोग कम, दुरुपयोग अधिक दिखता है। पड़ताल बताती है कि पत्रकारोंपर राजद्रोहके मुकदमें बड़ी संख्यामें दर्ज होते रहे हैं और बड़ी संख्यामें न्यायालयमें ये खारिज भी होते रहे हैं। पिछले महीने ३ जूनको सुप्रीम कोर्टने जानेमाने पत्रकार विनोद दुआके खिलाफ हिमाचल प्रदेशके शिमलामें दर्ज देशद्रोहके मामलेको खारिज कर दिया था।

दरअसल राजद्रोहकी धारा १२४ए को खत्म करनेकी एक नयी चर्चा तब प्रकाशमें आयी जब देशकी शीर्ष अदालतने इसपर अपनी चिंता और चिंतनको गहरा किया। अंग्रेजोंने महात्मा गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले एवं अन्यको चुप करानेके लिए धारा १२४ए का इस्तेमाल किया। हमें नहीं पता कि इसे खत्म करनेके लिए सरकार निर्णय क्यों नहीं ले रही है। उक्त हालिया कथन सुप्रीम कोर्टका है जिसमें सुप्रीम सवाल भी देखा जा सकता है। दरअसल बीते १५ जुलाईको मुख्य न्यायाधीश समेत दो अन्य न्यायाधीशोंकी पीठने भारतीय दंड संहिताकी धारा १२४ए जो राजद्रोहसे संबन्धित है कि संवैधानिक वैधताको चुनौती देनेवाली एक पूर्व मेजर जनरल और एडिटर्स गील्डकी याचिकाओंपर विचार करनेकी सहमति जतायी और कहा कि उसकी मुख्य चिंता कानूनका दुरुपयोग है। शीर्ष अदालतने आईटी कानूनकी धारा ६६ए के दुरुपयोगका भी जिक्र किया और कहा कि इसकी तुलना बढ़इसे की जा सकती है जिसे एक लकड़ी काटनेके लिए कहा गया और उसने पूरा जंगल ही काट दिया। दो-टूक यह भी है कि वर्तमानमें राजद्रोहकी परिभाषा व्यापक है और इसे संकीर्ण करनेकी आवश्यकता तो है। खास यह भी है कि भारतकी क्षेत्रीय अखंडता और देशकी संप्रभुता जैसे विषयोंसे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। परन्तु इनकी आड़में राजद्रोहका दुरुपयोग भी नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्टका यह कथन कि राजद्रोह केसमें बेहद कमको सजा मिली जो यह जताता है कि आरोप न्यायालयमें सिद्ध नहीं हो पाते। साल २०१५ की पड़ताल बताती है कि इस कानूनके तहत ७३ गिरफ्तारी हुई और १३ के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई और इनमेंसे एकको भी दोशी साबित नहीं किया जा सका। इतना ही नहीं, २०१४ से २०१९ के बीच ३०० से अधिक लोगोंपर मामले दर्ज किये गये जबकि अदालतने मात्र दसको दोषी माना।

उल्लेखनीय है कि जब ब्रिटिश कालमें १८७० में आईपीसीकी धारा १२४ए जोड़कर राजद्रोहको अपराध बनाया गया था तब अंग्रजोंका मकसद लोगोंके असंतोषको दबाना था। रोचक यह भी है कि दुनियाको राजद्रोह कानून देनेवाले ब्रिटेनने अपने यहां साल २००९ में खत्म कर दिया जबकि भारतमें इसकी खात्मेंकी सिर्फ चर्चा होती है। इतना ही नहीं, दुनियाके छोटे बड़े कई देश मसलन ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं न्यूजीलैंड समेत इंडोनेशिया जैसे देशोंने ऐसे कानूनोंसे अपना पीछा छुड़ा लिया परन्तु भारतमें यह अब भी अनवरत बना हुआ है। औपनिवेशिक कालमें सबसे पहले इस कानूनका प्रयोग या दुरुपयोग १८९१ में बंगोबासी अखबारके संपादक जोगेन चंद्र बोसके विरुद्ध किया गया था। बाल गंगाधर तिलकपर तो तीन बार राजद्रोहके मुकदमें चलाये गये और सजा भी हुई। १९२२ में यहीं मुकदमा गांधी जीपर थोपा गया और छह वर्षके कारावासकी सजा हुई। हालांकि सेहत अच्छी न होनेके कारण उन्हें १९२४ में रिहा कर दिया गया था। राजद्रोह कानून एक ऐसा हथियार है जिसके सही प्रयोग न करनेपर लोगोंको फंसानेका हथकंडा साबित हो जाता है। अरविंद केजरीवालसे लेकर अरुण जेटलीतक राजद्रोहके मुकदमें दर्ज हुए हैं परन्तु न्यायालयमें खारिज हो गये। यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। अब सवाल इसे बनाये रखने या खात्मेकी है। शीर्ष अदालतका दृष्टिïकोण यह बताता है कि सरकारको इसे खत्म करनेके लिए सोचना ही चाहिए।

गौरतलब है कि समुचित नियमोंके अंतर्गत राजद्रोह और देशद्रोहके मामलेमें एक ही धारा लागू होती है। ऐसे सभी मामले धारा १२४ए के तहत विचाराधीन होते है। सामान्य परिभाषा यह है कि राजद्रोह शासनके खिलाफ किया गया आचरण है जबकि देशद्रोह राष्टï्रके खिलाफ। हालमें सुप्रीम कोर्टके न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूडऩे असहमतियोंके दमनमें जो टिप्पणी की वह न सिर्फ लोकतंत्रकी बुनियाद मजबूत करनेवाली है, बल्कि एक सभ्य और सहिष्णु समाजके निर्माणके लिहाजसे भी कई अधिक जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि असहमतियोंको दबानेके लिए आतंकवाद विरोधी कानूनोंका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। उक्त संदर्भ यह दर्शता है कि कानून लोगोंको फंसानेका हथकंडा न बन जाय। राजद्रोहके मामलेमें अबतककी स्थिति यही बताती है कि चुप करानेके लिए इसे हथियार बना दिया गया है जबकि एक हकीकत यह भी है कि औपनिवेशिक कालमें ऐसी तमाम स्वतंत्रताओंके लिए बरसों बरस अंग्रेजोंके साथ संघर्ष होता रहा। संविधानका अनुच्छेद १९(१)(ए) वाक् एवं अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता है परन्तु इसे दबानेके लिए कानूनोंके दुरुपयोग होते दिखते है। गौरतलब है कि स्वतंत्रताके बाद १९६२ में राजद्रोहका पहला मामला आया था और अबतक इसमें काफी पानी निकल चुका है। एक जीवन्त लोकतंत्रके लिए आवश्यक है कि उसमें सरकारकी आलोचना और उसके प्रति असंतोषको भी स्थान दिया जाय। हकीकत तो यह भी है कि धारा १२४ए की स्पष्टïताको लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। इसकी जटिलताने दुरुपयोगकी संभावना भी बढ़ायी है। अन्तत: गांधीके शब्दोंमें कि कानूनके जरिये तंत्रके प्रति समर्पण पैदा नहीं किया जा सकता यदि किसी व्यक्तिको सरकारके प्रति असंतोष है तो उस व्यक्तिको असंतोष व्यक्त करनेकी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए, जबतक कि वह हिंसाका कारण न बने।