डा. भरत झुनझुनवाला
रिजर्व बैंकने छोटे उद्योगों द्वारा लिये गये ऋणको अदा करनेकी मियादको बढ़ानेकी छूट बैंकोंको दे दी है जिससे कि छोटे उद्योग कोरोनाके संकटको पार कर सकें। साथ ही रिजर्व बैंकने प्राथमिक क्षेत्र, जिसमें कृषि और छोटे उद्योग आते हैं, उनमें कोरोना संकटसे लडऩेमें उपयोगी टीका उत्पादक, मेडिकल डिवाइस उत्पादक, अस्पताल, लेबोरेटरी, आक्सीजन उत्पादक इत्यादिको दिये गये ऋणको भी जोडऩेका निर्णय लिया है। मूल रूपसे दोनों कदम स्वागत योग्य हैं। परन्तु समस्या तो कहीं और ही है। छोटे उद्योगोंकी समस्या है कि बाजारमें मांग नहीं है और जहां मांग है वह ई-कामर्स और बड़ी कम्पनियोंने ले ली है। उनका दायरा सिकुड़ रहा है। उनका बाजार समाप्त हो रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यदि सरकारने बड़े उद्योगोंकी सीमा नहीं बांधी तो निकट भविष्यमें इनका अवसान होगा ही। अत: ऋणकी मियाद बाधा कर इनकी मृत्युकी तिथिको पीछे खिसकानेका औचित्य नहीं दीखता है। प्राथमिक क्षेत्रमें स्वास्थ सेवाओंको जोडऩेका भी कोई विशेष प्रभाव होता नहीं दिख रहा है। बीते बजटमें ही सरकारने छोटे उद्योगोंका दायरा बढ़ा दिया है। जो उद्योग पूर्वमें माध्यम श्रेणीमें आते थे उन्हें छोटी श्रेणीमें ले आया गया है। इसलिए बैंकों द्वारा प्राथमिक क्षेत्रको दिया गया ऋण स्वत: ही बढ़ गया है। इनपर प्राथमिक क्षेत्रको अधिक ऋण देनेका दबाव समाप्त हो गया है। इसलिए छोटे उद्योगोंके ऋणकी मियाद बढ़ाने और स्वास्थ सेवाओंको प्राथमिक क्षेत्रमें लाना यद्यपि सही दिशामें है किन्तु यह मूल समस्या भी नहीं है और मूल समाधान भी नहीं है।
रिजर्व बैंकने यह कदम अपनी अप्रैलमें घोषित की गयी मुद्रा नीतिके परिप्रेक्ष्यमें लिये हैं। जिस प्रकार यह कदम निष्प्रभावी होंगे उसी प्रकार अप्रैलमें घोषित की गयी मुद्रा नीति निष्प्रभावी होगी। उस समय रिजर्व बैंकने ब्याज दरमें कटौती करके इसे चार प्रतिशत कर दिया था। यानी बैंकों द्वारा रिजर्व बैंकसे लिये जानेवाली रकमपर बैंकोंको मात्र चार प्रतिशतका ब्याज रिजर्व बैंकको देना होता है। इस कदमके पीछे सोच यह थी कि बैंकों द्वारा उपभोक्ताको सस्ता ऋण दिया जायगा। उपभोक्ताकी मानसिकता बनेगी कि वह ऋण लेकर बाजारसे माल खरीद। बजारमें मांग बनेगी। जैसे किसी बैंकके द्वारा पूर्वमें दस प्रतिशतकी दरसे बाइक खरीदनेके लिए ऋण दिया जा रहा था। रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दर घटानेसे बैंक उसी उपभोक्ताको ऋण अब आठ प्रतिशत ब्याजपर देना स्वीकार करेगा। मान लीजिये रिजर्व बैंकका यह मंतव्य सफल हुआ और इस प्रलोभनसे उपभोक्ताने ऋण लिया और बाइक खरीदी। इससे बाजारमें बाइककी मांग बनी और इस मांगकी आपूर्ति करनेके लिए उद्यमीने नयी फैक्टरी लगायी। इस फैक्टरीको लगानेके लिए भी उद्यमीको बैंकने आठ प्रतिशतपर ऋण दे दिया। इस प्रकार सस्ता ऋण उपलब्ध होनेसे मांग और आपूर्तिका सुचक्र स्थापित स्थापित हो जायगा। उपभोक्ता सस्ता ऋण लेकर बाइक खरीदेगा और उद्यमी सस्ता ऋण लेकर बाइक बनानेकी फैक्टरी लगायगा। इसलिए रिजर्व बैंकने ब्याज दरोंमें कटौती की थी। लेकिन वर्तमान कोरोनाके संकटमें तमाम उपभोक्ताओंकी नौकरियां संकटमें हैं। तमाम छोटे उद्योगोंपर जीवित रहनेका संकट है। इसलिए बड़ी संख्यामें उपभोक्ताओं द्वारा ऋण लेकर बाइक आदि खरीदी जायेगी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। बीते समयमें कार और ट्रैक्टरकी अधिक बिक्रीका कारण लॉकडाउनके कारण बस और श्रमिकोंका उपलब्ध न होना था। वह खरीद हौसला बुलंद करनेवाली नहीं, बल्कि संकटके समयको पार करनेके लिए की गयी थी। इसलिए वर्तमान समयमें सस्ते ऋणसे बाजारमें मांग बननेकी संभावना शून्य है। यह मांग नहीं बनी तो उद्यमी द्वारा सस्ता ऋण लेकर निवेश भी नहीं किया जायगा। रिजर्व बैंककी मुद्रा नीति निश्चित रूपसे फेल होगी।
मूल बात यह है कि ब्याज दरमें कटौतीकी सार्थकता तब होती है जब बाजारमें मांग हो। याद करें कि २०१४ में रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों द्वारा उपभोक्ताओंको लगभग १४ प्रतिशत और उद्यमियोंको १२ प्रतिशतकी दरसे ऋण दिया जा रहा था। लेकिन इस ऊंची ब्याज दरके बावजूद उपभोक्ता ऋण लेकर बाइक खरीद रहे थे और उद्यमी ऋण लेकर बाइक बनानेका कारखाना लगा रहे थे। आज बात बदल गयी है। न्यून ब्याज दरके बावजूद उपभोक्ता ऋण लेकर बाइक नहीं खरीद रहे हैं और उद्यमी ऋण लेकर बाइक बनानेका कारखाना नहीं लगा रहे हैं। कारण यह कि तब उपभोक्ताको भरोसा था कि वह ऋणको भविष्यकी आयसे चुका सकेगा। लेकिन आज उपभोक्ताको अपने भविष्यकी कमाईपर भरोसा नहीं है इसलिए यह न्यून ब्याज दर निष्प्रभावी होंगे।
वास्तवमें वर्तमानमें अर्थव्यवस्थाको गति देनेमें रिजर्व बैंककी भूमिका शून्यप्राय है। सरकारको वित्तीय नीतिमें परिवर्तन करना चाहिए। सरकार द्वारा वर्तमानमें जो खर्च किये जा रहे हैं उनसे भी मांग और उत्पादनका सुचक्र बनता नहीं दिख रहा है। जैसे सरकारने नये सांसद भवनका निर्माण किया। इसके निर्माणमें बड़ी कम्पनियोंने सीमेंट बनायी, जिसका उत्पादन उन्होंने पूंजी सघन उपकरणोंसे किया, बड़े व्यापारियोंने सीमेंट, लोहे और एयर कंडिशनर आदिकी आपूर्ति की, उस उत्पादनमें रोजगार कम संख्यामें बने, आम आदमीके हाथमें रकम कम आयी और बाजारमें मांग कम बनी।
बड़ी कंपनियोंका कार्य अवश्य बड़ा परन्तु जमीनी स्तरपर अर्थव्यवस्थामें चाल नहीं बनी। इसकी तुलनामें यदि सरकार संसद भवन इत्यादि बनानेके स्थानपर आम आदमीके खातेमें सीधे रकम रकम ट्रांसफर करती जैसा कि अमेरिकामें किया जा रहा है और छोटे उद्योगोंको सस्ते ऋण उपलब्ध करानेके साथ सीधे नकद सब्सिडी देती तो उत्पादन और मांगका सुचक्र बन सकता था। जैसे आम आदमीको दो हजार रुपये उसके खातेमें मिल गये होते तो वह बाजारसे डबलरोटीकी मांग बढ़ाता और छोटे उद्योगको आर्थिक सहायता मिल गयी होती तो वह डबल रोटी बनाकर सप्लाई करता। इस प्रकार आम आदमी और छोटे उद्योगका मेल बनकर मांग और उत्पादनका सुचक्र स्थापित हो सकता था। यही सुचक्र न्यून ब्याज दरों और संसद भवन बनानेसे नहीं स्थापित होगा जैसा कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालयका प्रयास है। वर्तमानमें अर्थव्यवस्थाको पटरीपर लानेका विषय और जिम्मेदारी वित्त मंत्रालयकी है, न कि रिजर्व बैंक की।