सम्पादकीय

विफल हुआ पश्चिमी मीडिया


डा. अजय खेमरिया    

भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसीका यह विश्वसनीय सर्वे समवेत रूपसे विदेशी मीडिया संस्थानों खासकर बीबीसी, इकोनोमिस्ट, द गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएनकी पक्षपातपूर्ण, झूठी रिपोर्टिंगको आमजनकी दृष्टिमें भी कटघरेमें खड़ा कर रहा है। नैतिक मापदंडोंपर जन्मना दोहरेपनका शिकार पश्चिमी मीडिया कोविड-१९ को लेकर कैसे निष्पक्षता और ईमानदारीका अबलंबन कर पाता। आईआईएमसीके सर्वेक्षण और शोध-विमर्शसे एक बात और स्पष्ट होती है कि पश्चिमी जगत आज भी हमारे देशकी छवि सांप-सपेरे, जादू-टोनेवाले देशसे बाहर माननेके लिए तैयार नहीं है। सत्तरके दशककी तीसरी दुनिया या अल्पविकसित देशोंमें भारतको पिछड़ा देश माना जाता था उसी अधिमान्यतापर पश्चिमी बौद्धिक जगत आज भी खड़ा है। चंद्रयान और गगनयान जैसे विज्ञान और तकनीकी सम्पन्न नवाचार हो या फार्मा इंडस्ट्रीमें हमारी बादशाहत पश्चिम इसे मान्यता देनेको आज भी राजी नहीं है। कोरोनाकी पहली लहरमें जिस प्रमाणिकतासे हमने दुनियाको मिसाल पेश की उसका कोई सकारात्मक उल्लेख विदेशी मीडिया संस्थानोंमें नजर नहीं आया। इस दौरमें ब्रिटेन, अमेरिका, स्पेन, इटली, जर्मनी, आस्ट्रेलिया जैसे धनीमानी राष्ट्र पस्त हो चुके थे। इस नाकामीको प्रमुखतासे उठानेकी जगह इन मीडिया हाउसने भारतमें प्रवासी मजदूरोंको पहले पन्नेपर जगह दी। तब जबकि डब्लूएचओ भारतीय कोविड प्रबंधन मॉडलको सराहा रहा था।

कोविडकी दूसरी लहरने भारतमें अप्रत्याशित रूपसे व्यापक जनहानिकी परिस्थिति निर्मित की इससे इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन इस दूसरी लहरमें मानो पश्चिमी मीडियाको भारतके विरुद्ध आपदामें अवसर मिल गया हो। इस दौरान बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे संस्थानोंने अस्पतालों, श्मसानोंसे लेकर गंगामें जल समाधिसे जुड़ी अतिरंजित, डरावनी और भया उत्पन्न करनेवाली रिपोर्ट प्रकाशित की है। इन खबरोंसे साबित होता है कि पश्चिमी मीडिया किस हद दर्जेकी दुराग्रही एवं औपनिवेशिक मानसिकताकी ग्रन्थिसे पीडि़त है। अमेरिकामें जब ९/११ की आतंकी घटना हुई थी तब न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और बीबीसीने खूनका एक कतरा भी नहीं दिखानेका निर्णय लिया था। तर्क यह दिया गया कि सचाई और जवाबदेही मिलकर पत्रकारिताको निष्पक्ष बनाते हैं इसलिए मृतकोंके परिजनोंके प्रति जवाबदेही और समाजको भयादोहित होनेसे बचानेके लिए ऐसा किया जा रहा है। भारतका मामला बनते ही यह जवाबदेही और निष्पक्षता खूंटीपर टांग दी गयी। हमारे लोकजीवनमें भी अंतिम संस्कार बेहद ही संवेदनशील मामला होता है। क्या जिन तस्वीरोंको विदेशी अखबारोंने पहले पन्नेपर जलती लाशोंके रूपमें छापा वह जवाबदेहीके आदर्शपर खरी कही जा सकती थीं। एक विदेशी फोटो एजेंसीने तो भारतमें अंतिम संस्कारकी तस्वीरोंको बकायदा २३ हजारकी बोली लगाकर बेचा है। आईआईएमसीका शोध बताता है कि कोविड-१९ के मामलेमें मार्च २०२० से जून २०२१ के मध्य करीब ७०० रिपोर्टस गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी, अलजजीरा, फॉक्स न्यूज, न्यूयार्क टाइम्स, द इकोनोमिस्ट, सीएनएन जैसे संस्थानोंमें छपी है। यह सभी खबरें भारतीय समाजमें भय निर्मित करनेवाली, अतिरंजित, अनावश्यक आलोचनाओं एवं मैदानी तथ्योंसे परे थी। यानी जिस जवाबदेही और सचाईके युग्मकी बातें पश्चिमी मीडिया द्वारा अपने देशोंमें रिपोर्टिंगके लिए कही जातीं हैं वह भारतके मामलेमें खुदके ऊपर लागू नहीं की गयीं। शरारती मानसिकताके उद्देश्यसे दूसरी लहरमें संक्रमितों एवं मृतकोंके आंकड़े हेडलाइनमें सजाये गये। बीबीसीकी कुल रिपोर्टसमेंसे ९८ फीसदी समाजको भयादोहित और उपचार प्रविधियोंसे लेकर वैक्सीनेशनके प्रति समाजमें भ्रम फैलानेवाली रही हैं। संक्रमितोंके आंकड़े बड़ी चालाकीसे बदनामीके उद्देश्यसे पेश किये गये। मसलन ७ सितंबर २०२० को बीबीसीने हैडिंग लगायी ‘भारतने ब्राजीलको पछाड़ाÓ। अब ध्यान देनेवाली बात यह है कि भारतकी आबादी ब्राजीलसे छह गुना है। यानी हमारी कुल आबादीके तथ्यको दरकिनार कर दहशत फैलानेमें बीबीसी जैसे मीडिया हाउस अग्रणी रहे। यूरोपमें कुल ४८ देश है जहां साढ़े पांच करोड़ लोग कोविडसे संक्रमित हुए और अबतक करीब ११ लाखकी मौत हो चुकीं है। इन सभी ४८ देशोंकी आबादी मिलाकर ७५ करोड़ है। उत्तरी अमेरिकाके ३९ मुल्कोंको मिला दिया जाय तो इन ८७ देशोंकी सम्मिलित आबादी १३४ करोड़ होती है। यानी दुनियाके ८७ देशोंसे अधिक लोग भारतमें रहते है इसके बाबजूद संक्रमित और मृतकोंकी संख्या इन देशोंसे आज भी हमारे यहां कम है।

८७ देशोंकी आबादीको समेटे हुए विविधताओंसे भरे भारतमें किसी एक कोनेकी घटनाको भी पश्चिमी जगतने सामान्यीकरणकी तरह पेश करनेमें बेशर्मीकी सीमाएं लांघ दी। गंगाके तटोंपर लाशोंके फोटो या मुक्तिधामोंपर सामूहिक संस्कारोंको ऐसे दिखाया गया मानों भारतमें लाशोंके सिवाय कुछ भी अच्छा नहीं है। बेशक वह दु:खद और कल्पनासे परे कालखंड था लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका, स्पेन, इटली, इंग्लैंडमें भी इससे बुरे हालात थे। लेकिन फरवरी २०२० से जुलाई २०२१ तक यदि पश्चिमी मीडिया हाउसोंकी कोविडसे जुड़ी स्थानीय खबरोंको सिलसिलेबार देखा जाय तो पत्रकारिताके एथिक्सके नामपर दोगला और दोहरापन स्वंयसिद्ध है। करीब ७०० स्टोरीज को गहराईसे विश्लेषित किया जाय तो विदेशी मीडियाका यह स्थायी दुराग्रह भाव १५ अगस्तको प्रधान मंत्री मोदीके उस एलानके बाद और भी आक्रमक हो गया जिसमें उन्होंने वैक्सीन उत्पादन और वेक्सीनेशनकी कार्ययोजनाका खाका विश्वके सामने रखा। यह कोविडकी पहली लहरपर मोदीके परिणामोन्मुखी प्रयासोंको वैश्विक अधिमान्यताका दौर भी था। इस आक्रमकताका आधार इसलिए भी बना क्योंकि तबतक यूरोप और उत्तरी अमेरिकाके धनीमानी और सर्वोत्कृष्ठ स्वास्थ्य सेवा तंत्रवाले मुल्क कोरोनासे हाहाकार कर रहे थे। दुर्भाग्यसे दूसरी लहरमें भारतीय व्यवस्था और प्रशासन तंत्र लडख़ड़ाया यह तथ्य है लेकिन यह भी समानान्तर तथ्य था कि भारत संक्रमण और मौतोंके मामलेमें जनसंख्याके पैरामीटर्सपर आज भी दुनियामें विकसित राष्ट्रोंसे पीछे है। किसी मीडिया हाउसने कभी यह नहीं बताया कि भारतमें दुनियाका हर छठा आदमी निवास करता है इसके बाबजूद कोविडमें भारतीय स्वास्थ्य तंत्रने बहुत अच्छा काम भी किया है। भारतमें प्रति मिलियन आबादीपर मौतका आंकड़ा २८७ है वहीं रूसमें यह संख्या २०२१, अमेरिकामें १८५७, ब्रिटेनमें १८९९, इटलीमें २०२५, पेरूमें ५७६५, जर्मनीमें १०१२, कनाडामें ६४९ दर्ज किया जा रहा है। इस सांख्यिकीय सचाईको पूरी तरहसे पश्चिमी मीडिया हाउस छिपाये हुए है।