सम्पादकीय

विरोधी भावकी स्वीकार्यता


हृदयनारायण दीक्षित  

लोकसभा और राज्यसभाके लिए अलग-अलग निर्वाचक मण्डल है। निर्वाचित सदस्य प्राय: किसी न किसी दलके टिकटपर चुने जाते हैं। इस तरह लोकसभा एवं राज्यसभाके सभी सदस्य किसी न किसी दलके प्रतिबद्ध सदस्य भी हैं। प्रत्येक सदस्यसे अपेक्षा की जाती है कि वह सदनकी कार्यवाहीमें हिस्सा ले। कार्यवाहीके दौरान अपने दलकी नीतियोंका पालन करें। हालमें लोकसभा एवं राज्यसभाके भीतर बहस प्रारम्भ हुई है, लेकिन राष्ट्रपतिके धन्यवाद प्रस्तावको लेकर बहुत बड़ा बखेड़ा हुआ। विपक्षकी मांग थी कि राष्ट्रपतिके अभिभाषणके धन्यवाद प्रस्तावके पहले किसान कानूनोंपर बहस होनी चाहिए। विपक्षी दल अड़े थे। सरकारकी तरफसे कहा गया कि संसदीय कार्यवाही की परम्परामें राष्ट्रपतिके अभिभाषणपर धन्यवादका प्रस्ताव प्रथम वरीयता है। लेकिन विपक्षीदलोंने लोकसभामें इस बातको स्वीकार नहीं किया, गजबका हंगामा हुआ।

लेकिन इसके पहले राज्यसभामें विपक्ष और सत्ता पक्षके बीच समझौता हुआ। कांग्रेस संसदीय दलके नेता गुलामनवी आजादने पहले कहा कि १८-१९ विपक्षी दलोंने दो माह पुराने किसान आन्दोलनपर बहसकी मांग की है। किसान आन्दोलनपर बहसके मुद्देको धन्यवाद प्रस्तावके पहले लेना चाहिए। सत्ता पक्षकी तरफसे उन्हें बताया गया कि राष्ट्रपतिके अभिभाषणपर धन्यवाद प्रस्तावके पूर्व कोई अन्य प्रस्ताव लेनेकी परम्परा नहीं है। इसलिए राष्ट्रपति अभिभाषणपर ही किसानोंका विषय भी लेना चाहिए। राष्ट्रपतिने भी अभिभाषणमें किसानोंके मुद्देका उल्लेख किया है। विपक्षकी ओरसे पांच घण्टा अतिरिक्त समयकी मांग की गयी। सरकार द्वारा यह मांग मान ली गयी। आजादने इसके लिए सरकारको धन्यवाद दिया। विपक्षने दोनों मुद्दोंको एक साथ लेनेकी बातपर स्वीकृति दी। न दुराग्रह, न हंगामा।संसदीय कार्यवाहीमें दोनों पक्षोंके मध्य सद्भाव जरूरी है। सद्भावके कारण वास्तविक मुद्दोंपर बहसकी मनोदशा बनती है। राज्यसभामें इस बार ऐसी ही मनोदशा थी। संसदीय पद्धतिमें बेशक पक्ष और सशक्त विपक्षकी आवश्यता होती है, लेकिन दोनों पक्षोंके बीच सहयोग भी जरूरी है। लोकसभा सचिवालयसे प्रकाशित संसदीय पद्धति और प्रक्रियामें पं. नेहरूका कथन है, संसदीय प्रणालीमें न केवल सशक्त विरोधी पक्षकी जरूरत होती है न केवल प्रभावत्पादक ढंगसे अपना विचार व्यक्त करना जरूरी होता है, बल्कि सरकार द्वारा विरोधी पक्षके बीच सहयोगका आधार भी अति आवश्यक होता है।Ó लेकिन पं. नेहरूके उत्तराधिकारी ऐसा नहीं मानते।

संसद भारतके १३० अरब जन-गण-मनकी भाग्य विधाता है। यह भारतकी राजनीतिक अभिव्यक्ति भी है। भिन्न-भिन्न दलोंके लोग उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिमसे निर्वाचित होकर आते हैं। वह अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताके अनुसार काम करते हैं। आमजन उनसे राष्ट्र सर्वोपरिताके आचरणकी अपेक्षा रखते हैं। संसदमें सत्तापक्ष एवं विपक्षको आम जनता ही चुनकर भेजती है। विपक्ष अपने सिद्धांतोंके अनुसार विचार रखता है और सत्ता पक्ष अपने सिद्धांतके अनुसार। लेकिन संवैधानिक नैतिकता और संसदीय मर्यादाका अभाव बाधक है। डा. अम्बेडकरने संविधान सभामें प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रोटका उल्लेख किया था, सरकार संचालनमें वैधानिक, नैतिकताका प्रसार जरूरी है। केवल बहुसंख्यक लोगोंमें ही नहीं सभी नागरिकोंमें भी है। कोई भी शक्तिशाली हठी और दु:साह अल्पमत वैधानिक शासनके कार्य संचालनको कठिन बना सकता है। भारतके अल्पसंख्यक समूहों द्वारा शासनका कार्य बहुधा बाधित किया जाता है। अल्पसंख्यक किसान समूहोंने भी विधि व्यवस्थाको तोडऩेका काम किया है। बेशक दल तंत्रमें परस्पर विरोधी भाव होते हैं ऐसा आस्वाभाविक नहीं। आमजन संसदमें दलीय राजनीतिक झगड़ोंका जीवंत प्रसारण देखते हैं। निराश होते हैं संसद राष्ट्र जीवनकी आशा और उत्साहका लोकतांत्रिक तीर्थ है। इसलिए संसदके भीतरके सभी दलोंको परस्पर समन्वय बनाकर देश सेवाका काम करना चाहिए। विपक्षका आचरण राज्यसभामें प्रसंशनीय है और लोकसभामें निराशाजनक रहा है। राजनीतिक विद्यार्थियोंके मनमें सवाल उठ रहा है कि क्या राज्यसभाके विपक्षकी विचारधारा लोकसभाके विपक्षकी विचारधारासे भिन्न है? लोकसभामें विपक्षने बवाल किया। राज्यसभामें विपक्षने आपसी सहमतिके आधारपर खूबसूरत बहस की। वाकई इस बार राज्यसभाने उच्च सदनका सुन्दर व्यवहार किया है। यह विषय अनुत्तरित रहेगा कि एक ही विपक्षके सांसदोंने लोकसभामें अलग और राज्यसभामें अलग आचरण क्यों किया? भारतके लोगोंको विपक्षके वरिष्ठ नेताओंसे यह जाननेका अधिकार है कि एक ही दल विपक्ष द्वारा एक सदनमें दूसरा, दूसरेमें भिन्न आचरण करनेका औचित्य क्या है?

भारतको सिद्धांतनिष्ठ आदर्श विपक्षकी आवश्यकता है। सत्तापक्ष और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। विपक्षका कार्य जिम्मेदारीसे भरापूरा है। ब्रिटेनके एक प्रधान मंत्री हेराल्ड मैकमिलनने कहा था, संसद और राष्ट्रके प्रति विपक्ष, विपक्षके नेताकी विशेष जिम्मेदारी है। वह सरकारका आलोचक है साथ ही उसे सरकारका समर्थन भी शुद्ध हृदयसे करना होता है। कार्यमंत्रणा समितियोंकी बैठकोंमें विपक्ष द्वारा प्राय: यह जाता है कि सदन चलानेकी जिम्मेदारी सरकारकी है। यह बात सही नहीं हैं। विपक्ष अपने कार्यक्रम आचरणसे प्रामाणिक बनता है। आमजनोंमें भरोसा जगाता है। विकल्प होनेका दावा करता है। लोकसभाके महासचिव रहे सी.के. जैनने ‘आल इंण्डिया कान्फ्रेंस आफ प्रिसाइडिंगÓ पुस्तकमें प्रसिद्ध विद्वान वाल्टर लिपिमैनको उद्धृत किया है, उच्च पदस्थ लोग संस्थाओंके प्रशासक मात्र नहीं हैं। वह अपने देशके राष्ट्रीय आदर्शों, विश्वासों और अभिलाषाओंके संरक्षक हैं। जिनके कारण देश लोगोंका जोड़ नहीं राष्ट्र होता। अटल बिहारी बाजपेयी दीर्घ कालतक विपक्षी सांसद रहे। संसदीय मर्यादाके शिखर रहे। सारी दुनियाने उन्हें सम्मान दिया। वह राष्ट्रजीवनके प्रेरक रहे और हैं। सत्तापक्ष या विपक्षमें बहुत फर्क नहीं होते। अन्तर दायित्व निर्वहनका है। जनादेशके कारण एक पक्ष सत्ताधीश बनते हैं और अल्पमतवाला समूह विपक्षी। राष्ट्र संवद्र्धनकी जनअपेक्षा दोनोंसे है। दोनों अपने देशके आदर्शों अभिलाषाओंके संरक्षक हैं। भारतीय संसदको विधि निर्माणके साथ संविधान संशोधनके भी अधिकार हैं। संसद राष्ट्रीय अभिलाषाका प्रतिनिधि निकाय है। दुनियाके तमाम देशोंमें संसद जैसी विधायी संस्थाएं है। बिटिश संसद है ही। अमेरिकी कांग्रेस स्वीट्ïजरलैण्डकी संघीय सभा, जापानकी डाइट और फ्रांसकी संसद सुचारूरूपसे काम करती है। भारतीय संविधान निर्माताओंने संसदको हर तरहसे शक्तिशाली बनाया है। वाद-विवाद संवाद और विचार-विमर्शके माध्यमसे राष्ट्रीय स्वप्नकी सिद्धि होती है। विपक्षके लिए संसदसे श्रेष्ठ कोई मंच नहीं है। सत्तापक्ष और विपक्ष परस्पर मिलकर आदर्श संसदीय व्यवस्थाका निर्माण कर सकते हैं। पूर्वाग्रह छोड़कर समन्वयकी दशामें राज्यसभाके सत्तापक्ष एवं विपक्षने आदर्श कदम उठाया है। यही काम लोकसभाके विपक्षने नहीं किया। वैधानिक नैतिकताकी कमी के कारण विपक्ष संसदीय मर्यादाका ध्यान नहीं रखता।