श्यामसुन्दर मिश्र
स्वतन्त्रता प्राप्तिके बाद अधिकांश नेता देशसेवा एवं देशभक्तिकी भावनासे लबरेज रहे। किन्तु कुछ चोटीके नेताओंने अपनी धमक एवं धनबलके चलते उन्हें अपने इरादोंमें कामयाब नहीं होने दिया। फलस्वरूप लोकतंत्र एक पार्टी एवं एक परिवारकी विरासत बनकर रह गया। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके कार्यकालमें विकास कार्य नहीं हुए किन्तु वह विकास सत्ताधीशोंकी विचारधाराके अनुरूप ही हुए। आम जनताकी भावनासे उन्हें कुछ भी लेना-देना न था। जिन्होंने सत्ताके लोभमें देशका बंटवारातक स्वीकार कर लिया उनके इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती थी। उन्होंने सत्ता कायम रखनेके लिए अंगे्रजोंकी फूट डालों और राज करोकी नीतिको बदस्तूर जारी रखा। सुखकी लालसा हर इनसानमें स्वाभाविक रूपसे निहित रही है चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक अथवा सत्ताका सुख हो। फलस्वरूप राजनेताओंके मुंहमें सत्ताका खून लग गया जो निरन्तर विस्तार पाता जा रहा है। वह शाही जीवन जीनेके आदी बन चुके हैं। सादा जीवन उच्च विचार एवं त्याग तपस्याके भाव पूर्णत: तिरोहित हो चुके हैं। राजशाहीकी मानसिकताके चलते ही कुर्सीके लिए झूठ-फरेब, मार-काट, ईष्र्या एवं द्वेष दिनोंदिन परवान चढ़ रहे हैं। देश और प्रदेशकी तो बात ही छोड़ दें गांवोंमें होनेवाले पंचायत चुनावोंमें भी लूटपाट, ईष्र्या-द्वेष, अपहरण एवं हत्याओंका दौर चल पड़ा है। बाहुबल, गबन एवं भ्रष्टïाचार गांवोंकी नियति बन चुके हैं खेतिहर किसान भी राजनीतिकी तुलनामें कृषि कार्यको तुच्छ मानने लगा है। ईष्र्या-द्वेष, जातिवाद, असुरक्षा एवं बेरोजगारीसे त्रस्त गांवका युवा शहरोंकी ओर पलायन करने लगा है जिससे देश एवं प्रदेशको दोहरा नुकसान हो रहा है। पहला यह कि गांवकी खेती अशक्त एवं वृद्धजनोंके मत्थे आ पड़ी है जिससे बहुतेरे खेत-खलिहान अव्यवस्था एवं उचित देखरेखके अभावमें नष्टï होते जा रहे हैं। दूसरी तरफ शहरी गरीबोंकी नौकरी एवं व्यवसायपर ग्रामीण युवाओंका आधिपत्य बढऩे लगा है, क्योंकि अधिकांश अपने खेतोंको बेचकर धनको व्यापारमें लगा रहे हैं। क्योंकि वर्तमान दौरमें धनका महत्व ज्ञानसे अधिक हो चुका है। फलस्वरूप ज्ञान एवं शिक्षाके क्षेत्रमें भी भारी गिरावट आने लगी है। किसी भी स्रोतसे धन प्राप्त कर लेना आमजनोंकी मानसिकता बन चुकी है। आजकी शिक्षाप्रणालीसे नैतिकता एवं ईमानदारीके अध्याय हटाकर अर्थोपार्जनके गुर सिखाये जा रहे हैं। यह भी सत्य है कि वर्तमान दौरमें अर्थकी महत्ता बढ़ी है किन्तु अर्थ अज्ञानियों एवं संवेदनासे हीन व्यक्तियोंको प्राप्त होता है तो उसके दुष्परिणाम भी सामजको झेलने पड़ते हैं। कटु सत्य यह भी है कि राजनेताओंकी मानसिकताके चलते ही शिक्षाका ह्रïास हो रहा है।
संकटके इस दौरमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघने अपनी राष्टï्रभक्ति एवं देशप्रेमके चलते राजनीतिमें दखल देना शुरू कर दिया है जबकि उसका उद्देश्य राजनीति करना नहीं है किन्तु देशकी दुर्दशासे द्रवित होकर उसने अपने चहेतों एवं अनुयाइयोंको राजनीतिमें प्रवेश दिला दिया है। क्योंकि सत्तामें पकड़के अभावमें तो भ्रष्टïाचारपर काबू पाया जा सकता है, न ही हालातोंमें बदलाया लाया जा सकता है। राष्टï्रके प्रति समर्पित प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघकी ही देन है जो असम्भवको सम्भव करनेके प्रयासमें लगे हैं। चूंकि शीर्ष नेतृत्वमें संघकी मानसिकतासे प्रेरित लोगोंका वर्चस्व है अत: उसमें भ्रष्टïाचार नगण्य है किन्तु कई छुटभैया नेता, सरकारी कर्मचारी एवं प्रशासनिक अधिकारियोंके भ्रष्टïाचारमें लिप्त होनेके अनेकों वाकये हो रहे हैं जिनपर लगाम लगती प्रतीत नहीं हो रही है। यद्यपि नोटबंदी जैसा कड़ा एवं अप्रिय कदम उठाकर उन्होंने देशके लुटेरों एवं आतंकवादियोंकी कमर किसी हदतक तोड़ दी है। किन्तु कड़े कानूनों तथा उनके अनुपालनके अभावमें उनकी योजनाओंमें निरन्तर सेंध लग रही है। माना कि सहायता राशि लाभार्थियोंके खातेमें सीधे ट्रांसफर करनेसे बिचौलियोंका वर्चस्व खत्म हो चुका है किन्तु लाभार्थीकी चयन प्रक्रियामें ही वे अच्छी खासी धन उगाही कर ले रहे हैं। बीपीएल कार्डकी बात करें तो पेट्रोल एवं डीजल गाड़ीधारकोंके भी बीपीएल कार्ड धड़ल्लेसे बनाये गये हैं। आयुष्मान योजनामें भी अपात्रोंको गोल्डेन कार्ड देने एवं फर्जी बिलोंपर भुगतान लेनेके किस्से आम हो चुके हैं। सत्ताधीशों एवं शासन एवं प्रशासनसे अपराधियोंकी सांठ-गांठ आज भी नासूर बनी हुई है। न्यायालयोंके फैसले भी सशक्त पैरवी करनेवालों एवं बेतहाशा धन खर्च करनेवालोंके पक्षमें होना भी अत्यन्त पीड़ादायी है। रसूख एवं धनबलके चलते जो अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं उनके विरोधियों एवं गवाहोंकी दुर्दशा तो होती ही है वे संसद एवं विधानसभाके चुनावोंमें भी दहशतके बलपर जीत हासिल कर लेते हैं। इस प्रवृत्तिके लोग सत्ताके गलियारेतक आसानीसे पहुंच जाते हैं और जिन प्रशासनिक अधिकारियोंने जानपर खेलकर इन्हें पकड़वाया था एवं जेलोंमें ठूंसकर यातनाएं दी थी, ताकि यह दुबारा अपराध करनेका साहस न कर सकें। वह ही इनकी सुरक्षामें लगा दिये जाते हैं। उनकी कर्तव्यनिष्ठïा, आत्मसम्मान एवं साहसको कितनी गहरी चोट पहुंचती होगी ऐसे लोगोंकी सुरक्षा एवं सम्मान करनेमें, इसका अन्दाजा आसानीसे लगाया जा सकता है। आज धनकी हवसके चलते घृणितसे घृणित अपराधीका भी बचाव करनेमें अधिवक्तागणोंको तनिक भी हिचक नहीं होती और पेशेका हवाला देते हुए वे डंकेकी चोटपर उसका केस लड़कर उसे बचा लेते हैं। आंकड़े बताते हैं कि लगभग ४० से ५० प्रतिशत सांसदों एवं विधायकोंके ऊपर अनेक आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। परन्तु वह बड़ी ही शानसे यह कहनेमें तनिक भी नहीं हिचकते कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिताके चलते ही उनपर यह मुकदमे लादे गये हैं। बाहुबली स्वयंको हक्र्युलिस बताते हुए यह घोषणा करते रहते हैं कि हम तो कमजोरों एवं पीडि़तोंके मददगार हैं। जिस देश और प्रदेशकी सत्ता ऐसे माननीयोंके हाथोंमें होगी वहां न तो लोकतन्त्रका कोई अर्थ है, न ही संविधानके पालनकी उम्मीद की जा सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थामें सभीको आर्थिक एवं सामाजिक समानताकी बात कही गयी है। किन्तु वर्तमानमें दोनों ही मुद्दे संविधानके पन्नोंतक ही सिमटकर रह गये हैं। राजनेता जातिवादी एवं दलित राजनीतिको हथियार बनाकर आम जनतामें फूट एवं आक्रोशका सृजन करते हुए अपना उल्लू सीधा करनेमें लगे हैं। सामान्य परिस्थितियोंमें दलित उत्पीडऩके मुद्दे भले ही महत्वहीन माने जाते हों किन्तु चुनाव नजदीक आते ही वह जोर पकडऩे लगते हैं। चुनाव जीतनेके लिए विरोधी एवं सत्ताधीश दोनों ही डंकेकी चोटपर जातीय समीकरण साधनेमें लग जाते हैं। खुले आम जातीय गणना एवं आंकड़ोंका दौर प्रारम्भ हो जाता है। राजनेता संविधानकी धज्जियां उड़ाते हुए शहरों, गांवों एवं कस्बोंतकमें जातीय वोटोंकी गिनती एवं उन वोटोंको साधनके प्रयासमें लग जाते हैं। सत्ताधीश सुविधाओंका पिटारा खोलनेमें तनिक भी नहीं हिचकते।
भोली-भाती जनत इस सोचमें सम्भवत: दूर ही रहती है कि आखिर कुर्सीके लिए इतनी मारामारी क्यों है। आम जनताको इतना तो पता है कि लोकतन्त्रमें किसी न किसीको तो सत्ताकी बागडोर सम्भालनी ही है। साथ ही वर्तमान परिवेशमें सभी एक ही थालीके चट्टïे-बट्टïे हैं। अत: देश एवं प्रदेशकी चिन्ता छोड़कर वह अपने भविष्यकी चिन्ता करते हुए बिरादरी एवं रिश्तेदारीको ध्यानमें रखकर उसे ही वोट देते हैं जो भले ही देशको लूट ले किन्तु उन्हें अभय प्रदान करे। चुनाव आयोग लाख नियम बना ले। प्रशासन लाख उपाय कर ले किन्तु इस प्रवृत्तिको तभी समाप्त किया जा सकता है जब ईमानदार और समाजसेवी सत्ताके गलियारेतक पहुंच सके।