सम्पादकीय

संवैधानिक जिम्मेदारीका निर्वहन


आर.के. सिन्हा  

वैश्विक महामारीसे लडऩेका एकमात्र रास्ता राजनीतिक भेदभाव भुलाकर मिल-जुलकर कोरोनाका मुकाबला करनेका है। परन्तु सोनिया गांधी और राहुल गांधी इस मौकेको अपने लाभके लिए भुनाना चाहते हैं। यह दोनों कोरोनाके कारण देशमें उत्पन्न स्थितिके लिए लगातार केन्द्र सरकारको दोषी बता रहे हैं। यदि इन्हें भारतके संविधानकी रत्तीभर भी समझ होती तो ये शांत रहते और सरकारका साथ दे रहे होते। इन्हें इतना भी नहीं पता कि स्वास्थ्य क्षेत्र भारतके संविधानकी राज्य सूचीमें है। हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्रको संविधानके तहत समवर्ती सूचीमें स्थानान्तरित किये जानेकी मांग होती रही है। परन्तु अभी स्वास्थ्यका विषय पूर्णत: राज्य सूचीमें आता है। यदि स्वास्थ्य राज्य सूचीमें है तो फिर आजकल राज्योंमें स्वास्थ्य क्षेत्रकी जो दयनीय स्थिति सामने आ रही है उसके लिए केन्द्र सरकार किस तरहसे जिम्मेदार है। इस सवालका जवाब सोनिया गांधी या उनके पुत्र राहुल गांधी दिल्लीके मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल और बंगालकी तीसरी बार मुख्य मंत्री बनी ममता बनर्जी देना चाहेंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि स्वास्थ्यको समवर्ती सूचीमें शिफ्ट करनेसे केंद्रको राज्योंके स्वास्थ्य सेक्टरको और गंभीरतासे देखना पड़ता। क्या कभी कांग्रेसशासित राज्योंने इस तरहकी मांग की। अब जब कोरोनाके कारण देश छलनी हो रहा है तो कुछ नेताओंको तो मानो हाथ लग गया एक मुद्दा केंद्र सरकारको सुबह-शाम पानी पी पीकर कोसनेका। कांग्रेसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कोरोनाके मौजूदा हालातपर मोदी सरकारपर और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीपर तीखे हमले बोल रहे हैं।

अधिकतर राज्योंका अपने स्वास्थ्य क्षेत्रको बेहतर बनानेका रवैया बेहद ठंडा रहा है। उदाहरणार्थ पश्चिम बंगालके पहले मुख्य मंत्री डा. बी.सी. रायने अपने राज्यकी राजधानी कोलकातामें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निर्माणके प्रस्तावको माननेसे ही इनकार कर दिया था। एम्स दिल्लीमें न स्थापित होता तो क्या होता। यकीनन तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्यमंत्री राजकुमारी अमृत कौर चाहती थीं कि एम्सका निर्माण पश्चिम बंगालकी राजधानीमें हो, परन्तु यह प्रस्ताव डा. बी.सी. रायको रास नहीं आया। उन्होंने इसे ठुकरा दिया। फिर यह १९५६ में दिल्लीमें बना। इस एक उदाहरणसे समझा जा सकता है कि भारतीय राज्य अपने यहां स्वास्थ्य क्षेत्रको लेकर कोई बहुत गम्भीर नहीं रहे हैं। इन्होंने स्तरीय अस्पतालोंसे लेकर मेडिकल कालेजोंके निर्माण करनेके बारेमें भी कभी कोई नीति नहीं बनायी। एम्स भारतकी पहली स्वास्थ्यमंत्री राजकुमारी अमृत कौरके ही विजनका परिणाम है। वह गांधीकी प्रिय शिष्या थीं। एम्सके डाक्टर रोगियोंको पूरे मनसे देखते हैं। इधर समूचे उत्तर भारत या कहें कि हिन्दीभाषी राज्यों और बंगाल-उड़ीसातकके रोगी आते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेशके रोगियोंको दिल्ली एम्सपर खासा यकीन है। इधर बिहारके पटना, दरभंगा, किशनगंज, अररिया, मुजफ्फरपुर वगैरहके तमाम रोगी यहांसे स्वस्थ होकर ही घर वापस जाते हैं। आखिर सब राज्योंमें एम्स जैसे पांच-सात अस्पताल क्यों नहीं खुले। केन्द्र तो हर सालके अपने बजटमें स्वास्थ्य क्षेत्रके लिए भी एक निश्चित धनराशि रखता है। वह धनराशि सभी राज्योंको बांट दी जाती है। आगे राज्य उसे अपनी मर्जीसे खर्च करते हैं पश्चिम राज्योंको अपनी आबादी और जरूरतोंके हिसाबसे स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित करनी चाहिए थी। उस तरफ ज्यादातर राज्योंका ध्यान नहीं गया। दिल्लीमें आम आदमी पार्टी (आप) सरकार बार-बार कहती रही कि उसने मोहल्ला क्लीनिक बनाये। क्या कोई बतायगा कि इस कोरोना कालमें उनका क्या हुआ। अभी तो देशको कोरोनाको हराना होगा। एक बार कोरोनाको मात देनेके बाद नये मेडिकल कालेजोंको खोलनेके संबंधमें भी ठोस कार्यक्रम बनाना होगा। देशमें मेडिकल कालेजोंकी संख्या उस तरहसे बढ़ नहीं सकी है। नये खुलनेवाले मेडिकल कालेजोंमें दाखिले पारदर्शी तरीकेसे हों और इनमें उच्चस्तरीय फैकल्टी आये। उल्लेखनीय है कि हमारे यहां मेडिकल कालेजोंमें दाखिलोंके स्तरपर जमकर धांधली होती रही है। इसके चलते हजारों-लाखों मेधावी छात्र डाक्टर बननेसे वंचित रह गये।

दरअसल देशके छह राज्यों, जो भारतकी आबादीका ३१ फीसदीका प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां ५८ फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं। दूसरी ओर, आठ राज्य जहां भारतकी आबादीके ४६ फीसदी लोग रहते हैं, वहां केवल २१ फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं। सामान्य रूपसे स्वास्थ्यकी कमीको गरीबीके साथ जोड़ा जाता है। इन सब बिन्दुओंपर अब काम करना होगा। यदि स्वास्थ्य क्षेत्र राज्योंका विषय है तो इसका यह मतलब नहीं है कि केन्द्र सरकारकी राज्योंके हेल्थ सेक्टरको लेकर कोई जिम्मेदारी नहीं है। केंद्र सरकार स्वास्थ्य क्षेत्रमें राज्योंको शोध और नयी योजनाओंके संबंधमें मार्गदर्शन देते रहना होगा। केन्द्र तथा राज्य सरकारोंको देशके सभी नागरिकोंको सुलभ, सस्ती और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं देनेके लिए मिलकर काम करना होगा। हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि अभीतक इस बाबत कोई बहुत शानदार काम नहीं हुआ। यह भी जान लिया जाय कि स्वास्थ्यका अधिकार पहले ही संविधानके अनुच्छेद २१ के माध्यमसे प्रदान किया गया है जो जीवन और स्वतंत्रताकी सुरक्षाकी गारंटी देता है। इसलिए यह चाहिए कि सभी राज्य सरकारें अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी तत्परतासे निभायें और बिना वजह इस कोरोना संकट कालमें आरोप-प्रत्यारोपमें समय गंवानेकी बजाय अपने राज्यकी जनताको सही और कारगर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करायें। जहांतक प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीके कोरोना संघर्षका सवाल है, पूरा विश्व यह जानता है कि शुरूसे लेकर अबतक कोरोनासे संघर्ष करनेमें प्रधान मंत्री मोदीका क्या रोल रहा है। उल्टा चोर कोतवालको डांटेवाली बात तो शोभा नहीं देती न।